Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

05-10 आत्म-उद्धार की प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण एवं एकांत साधना का महत्व

 

 

shrimad bhagavad geeta chapter 6 chapter 6योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ৷৷6.10৷৷

 

योगी-योगी; युञ्जीत–साधना में लीन रहना; सततम्-निरन्तर; आत्मानम्-स्वयं; रहसि-एकान्त वास में; स्थित-रहकर; एकाकी-अकेला; यत चित्त आत्मा-नियंत्रित मन और शरीर के साथ; निराशी:-कामना रहित; अपरिग्रहः-सुखों का संग्रह करने की भावना से रहित।

 

योग की अवस्था प्राप्त करने के इच्छुक साधकों को चाहिए कि वे एकान्त स्थान में रहें और मन एवं इन्द्रियों सहित शरीर को नियंत्रित कर निरन्तर भगवान के चिन्तन में लीन रहें तथा समस्त कामनाओं और सुखों का संग्रह करने से मुक्त रहें ৷৷ 6.10 ৷৷

 

(पाँचवें अध्याय के 27वें , 28वें श्लोकों में जिस ध्यानयोग का संक्षेप से वर्णन किया था अब यहाँ उसी का विस्तार से वर्णन कर रहे हैं। ‘युज् समाधौ ‘धातु से जो योग शब्द बनता है जिसका अर्थ चित्तवृत्तियों का निरोध करना है (टिप्पणी प0 341.1) उस योग का वर्णन यहाँ 10वें श्लोक से आरम्भ करते हैं। ‘अपरिग्रहः’ चित्तवृत्तियों के निरोधरूप योग का साधन संसारमात्र से विमुख होकर और केवल परमात्मा के सम्मुख होकर किया जाता है। अतः उसके लिये पहला साधन बताते हैं ‘अपरिग्रहः’ अर्थात् अपने लिये सुखबुद्धि से कुछ भी संग्रह न करे। कारण कि अपने सुख के लिये भोग और संग्रह करने से उसमें मन का खिंचाव रहेगा जिससे साधक का मन ध्यान में नहीं लगेगा। अतः ध्यानयोग के साधक के लिये अपरिग्रह होना जरुरी है। ‘निराशीः’ (टिप्पणी प0 341.2) पहले ‘अपरिग्रहः’ पद से बाहर के भोगपदार्थों का त्याग बताया । अब ‘निराशीः’ पद से भीतर की भोग और संग्रह की इच्छा का त्याग करने के लिये कहते हैं। तात्पर्य यह है कि भीतर में किसी भी भोग को भोगबुद्धि से भोगने की इच्छा , कामना , आशा न रखे। कारण कि मन में उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों का महत्त्व आशा , कामना , परमात्मप्राप्ति में महान् बाधक है। अतः इसमें साधक को सावधान रहना चाहिये। ‘यतचित्तात्मा’ बाहर से अपने सुख के लिये पदार्थ और संग्रह का त्याग तथा भीतर से उनकी कामना , आशा का त्याग होने पर भी अन्तःकरण आदि में नया राग होने की सम्भावना रहती है , अतः यहाँ तीसरा साधन बताते हैं ‘यतचित्तात्मा’ अर्थात् साधक अन्तःकरणसहित शरीर को वश में रखने वाला हो। इनके वश में होने पर फिर नया राग पैदा नहीं होगा। इनको वश में करने का उपाय है कोई भी नया काम रागपूर्वक न करे। कारण कि रागपूर्वक प्रवृत्ति होने से शरीर की आराम-आलस्य में , इन्द्रियों की भोगों में और मन की भोगों के चिन्तन में अथवा व्यर्थ चिन्तन में प्रवृत्ति होती है इसलिये अन्तःकरण और शरीर को वश में करने की बात कही गयी है। योगी , जिसका ध्येय और लक्ष्य केवल परमात्मा में लगने का ही है अर्थात् जो परमात्मप्राप्ति के लिये ही ध्यानयोग करने वाला है , सिद्धियों और भोगों की प्राप्ति के लिये नहीं उसको यहाँ योगी कहा गया है। एकाकी ध्यानयोग का साधक अकेला हो , साथ में कोई सहायक न हो क्योंकि दो होंगे तो बातचीत होने लग जायगी और साथ में कोई सहायक होगा तो राग के कारण उसकी याद आती रहेगी , जिससे मन भगवान में नहीं लगेगा। ‘रहसि स्थितः’ साधक को कहाँ स्थित होना चाहिये ? इसके लिये बताते हैं कि वह एकान्त में स्थित रहे अर्थात् ऐसे स्थान में स्थित रहे , जहाँ ध्यान के विरुद्ध कोई वातावरण न हो। जैसे नदी का किनारा हो , वन में एकान्त स्थान हो , एकान्त मन्दिर आदि हो अथवा घर में ही एक कमरा ऐसा हो जिसमें केवल भजन-ध्यान किया जाय। उसमें न तो स्वयं भोजन-शयन करे और न कोई दूसरा ही करे। ‘आत्मानं सततं युञ्जीत ‘ उपर्युक्त प्रकार से एकान्त में बैठकर मन को निरन्तर भगवान में लगाये। मन को निरन्तर भगवान में लगाने के लिये खास बात है कि जब ध्यान करने के लिये एकान्त स्थान पर जाय तब जाने से पहले ही यह विचार कर ले अब मेरे को संसार का कोई काम नहीं करना है केवल भगवान का  ध्यान ही करना है। अब भगवान के सिवाय दूसरे का चिन्तन करना ही नहीं है इस बात को लेकर निरन्तर सावधान रहे क्योंकि सावधानी ही साधना है। साधक के लिये इस बात की बड़ी आवश्यकता है कि वह ध्यान के समय तो भगवान के चिन्तन में तत्परतापूर्वक लगा रहे , व्यवहार के समय भी निर्लिप्त रहते हुए भगवान का चिन्तन करता रहे क्योंकि व्यवहार के समय भगवान का चिन्तन न होने से संसार में लिप्तता अधिक होती है। व्यवहार के समय भगवान का चिन्तन करने से ध्यान के समय चिन्तन करना सुगम होता है और ध्यान के समय ठीक तरह से चिन्तन होने से व्यवहार के समय भी चिन्तन होता रहता है अर्थात् दोनों समय में किया गया चिन्तन एक-दूसरे का सहायक होता है। तात्पर्य है कि साधक का साधकपना हर समय जाग्रत् रहे। वह संसार में तो भगवान को मिलाये पर भगवान में संसार को न मिलाये अर्थात् सांसारिक कार्य करते समय भी भगवत्स्मण करता रहे। यदि ध्यान के लिये बैठते समय साधक अमुक काम करना है , इतना लेना है , इतना देना है , अमुक जगह जाना है , अमुक से मिलना है आदि कार्यों को मन में जमा रखेगा अर्थात् मन में इनका संकल्प करेगा तो उसका मन भगवान के ध्यान में नहीं लगेगा। अतः ध्यान के लिये बैठते समय यह दृढ़ निश्चय कर ले कि चाहे जो हो जाये , गरदन भले ही कट जाय , मेरे को केवल भगवान का ध्यान ही करना है। ऐसा दृढ़ विचार होने से भगवान में मन लगाने में बड़ी सुविधा हो जायगी। साधक की यह शिकायत रहती है कि भगवान में मन नहीं लगता तो इसका कारण क्या है ? इसका कारण यह है कि साधक संसार से सम्बन्ध तोड़कर ध्यान नहीं करता बल्कि संसार से सम्बन्ध जोड़कर करता है। अतः अपने सुख-सेवा के लिये भीतर से किसी को भी अपना न माने अर्थात् किसी में ममता न रखे क्योंकि मन वहीं जायगा जहाँ ममता होगी। इसलिये उद्देश्य केवल परमात्मा का रहे और सबसे निर्लिप्त रहे तो भगवान में मन लग सकता है। विशेष बात – अर्जुन पहले भी युद्ध के लिये तैयार थे और अन्त में भी उन्होंने युद्ध किया। केवल बीच में वे युद्ध को पाप समझने लगे थे तो भगवान के समझा देने से उन्होंने युद्ध करना स्वीकार किया। इस तरह प्रसङ्ग कर्मों का होने से गीता में कर्मयोग का विषय आना तो ठीक ही था पर इसमें ज्ञानयोग , भक्तियोग आदि कई पारमार्थिक साधनों का वर्णन कैसे आया है ? उनमें भी यहाँ ध्यानयोग का वर्णन आया जिसमें केवल एकांत में बैठकर ध्यान लगाना पड़ता है। यह प्रसङ्ग ही यहाँ क्यों आया ? अर्जुन पाप के भय से युद्ध से उपरत होते हैं तो उनके भीतर कल्याण की इच्छा जाग्रत् होती है। अतः वे भगवान से प्रार्थना करते हैं कि जिससे मेरा निश्चित श्रेय (कल्याण) हो वह बात आप कहिये (2। 7 3। 2 5। 1)। इस पर भगवान को श्रेय करने वाले जितने मार्ग हैं वे सब बताने पड़े। उनमें दान , यज्ञ , तप , वेदाध्ययन , प्राणायाम , ध्यानयोग , हठयोग , लययोग आदि को कहना भी कर्तव्य हो जाता है। इसलिये भगवान ने गीता में कल्याणकारक साधन बताये हैं। उन सब साधनों में भगवान ने यह बात बतायी कि उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं का जो लक्ष्य है वही खास बन्धनकारक है। अगर साधक का लक्ष्य केवल परमात्मा का है तो फिर उसके सामने कोई भी कर्तव्यकर्म आ जाय उसको समभाव से करना चाहिये। समभाव से किये गये सबके सब कर्तव्यकर्म कल्याण करने वाले होते हैं। पूर्वश्लोक में भगवान ने ध्यानयोग के लिये प्रेरणा की। ध्यानयोग का साधन कैसे करे ? इसके लिये अब आगे के तीन श्लोकों में ध्यानयोग की उपयोगी बातें बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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