Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

37-47  योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा

 

 

bhagavad gita in hindi chapter 6अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ৷৷6.42৷৷

 

अथवा–या; योगिनाम्-दिव्य ज्ञान से सम्पन्न; एव-निश्चय ही; कुले-परिवार में; भवति-जन्म लेता है।धी-मातम्-बुद्धिमानों के; एतत्-यह; हि-निश्चय ही; दुर्लभ-तरम्-अति दुर्लभ, लोके इस संसार में; जन्म-जन्म; यत्-जो; ईदृशम्-इस प्रकार का।

 

अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परन्तु इस प्रकार का जो यह जन्म है, वह इस  संसार में निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है॥6.42॥

 

 (साधन करने वाले दो तरह के होते हैं – वासनासहित और वासनारहित। जिसको साधन अच्छा लगता है , जिसकी साधन में रुचि हो जाती है और जो परमात्मा की प्राप्ति का उद्देश्य बनाकर साधन में लग भी जाता है पर अभी उसकी भोगों में वासना सर्वथा नहीं मिटी है वह अन्त समय में साधन से विचलित होने पर योगभ्रष्ट हो जाता है तो वह स्वर्गादि लोकों में बहुत वर्षों तक रहकर शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेता है। (इस योगभ्रष्ट की बात पूर्वश्लोक में बता दी )। दूसरा साधक जिसके भीतर वासना नहीं है , तीव्र वैराग्य है और जो परमात्मा का उद्देश्य रखकर तेजी से साधन में लगा है पर अभी पूर्णता प्राप्त नहीं हुई है , वह किसी विशेष कारण से योगभ्रष्ट हो जाता है तो उसको स्वर्ग आदि में नहीं जाना पड़ता बल्कि वह सीधे ही योगियों के कुल में जन्म लेता है (इस योगभ्रष्ट की बात इस श्लोक में बता रहे हैं)।अथवा तुमने जिस योगभ्रष्ट की बात पूछी थी वह तो मैंने कह दी परन्तु जो संसार से विरक्त होकर , संसार से सर्वथा विमुख होकर , साधन में लगा हुआ है , वह भी किसी कारण से , किसी परिस्थिति से तत्काल मर जाय और उसकी वृत्ति अन्त समय में साधन में न रहे तो वह योगभ्रष्ट हो जाता है। ऐसे योगभ्रष्ट की गति को मैं यहाँ कह रहा हूँ। ‘योगिनामेव कुले भवति धीमताम्’ जो परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर चुके हैं जिनकी बुद्धि परमात्मतत्त्व में स्थिर हो गयी है , ऐसे तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त बुद्धिमान् योगियों के कुल में वह वैराग्यवान् योगभ्रष्ट जन्म लेता है। ‘कुले’ कहने का तात्पर्य है कि उसका जन्म साक्षात् जीवन्मुक्त योगी महापुरुषके कुलमें ही होता है क्योंकि श्रुति कहती है कि उस ब्रह्मज्ञानी के कुल में कोई भी ब्रह्मज्ञान से रहित नहीं होता अर्थात् सब ब्रह्मज्ञानी ही होते हैं – ‘नास्याब्रह्मवित् कुले भवति ‘ (मुण्डक0 3। 2। 9)। ‘एतद्धि दुर्लभतरं ‘ (टिप्पणी प0 379) ‘लोके जन्म यदीदृशम्’ उसका यह इस प्रकार का योगियों के कुल में जन्म होना इस लोक में बहुत ही दुर्लभ है। तात्पर्य है कि शुद्ध सात्त्विक राजाओंके धनवानोंके और प्रसिद्ध गुणवानोंके घरमें जन्म होना भी दुर्लभ माना जाता है पुण्य का फल माना जाता है फिर तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त योगी महापुरुषों के यहाँ जन्म होना तो दुर्लभतर बहुत ही दुर्लभ है कारण कि उन योगियों के कुल में , घर में स्वाभाविक ही पारमार्थिक वायुमण्डल रहता है। वहाँ सांसारिक भोगों की चर्चा ही नहीं होती। अतः वहाँ के वायुमण्डल के दृश्य से , तत्त्वज्ञ महापुरुषों के सङ्ग से , अच्छी शिक्षा आदि से उसके लिये साधन में लगना बहुत सुगम हो जाता है और वह बचपन से ही साधनमें लग जाता है। इसलिये ऐसे योगियों के कुल में जन्म लेने को दुर्लभतर बताया गया है। विशेष बात- यहाँ ‘एतत्’ और ‘ईदृशम्’ ये दो पद आये हैं। ‘एतत्’ पद से तो तत्त्वज्ञ योगियों के कुल में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट समझना चाहिये (जिसका इस श्लोक में वर्णन हुआ है) और ‘ईदृशम्’ पद से उन तत्त्वज्ञ योगी महापुरुषों के सङ्ग का अवसर जिसको प्राप्त हुआ है , इस प्रकार का साधक समझना चाहिये। संसार में दो प्रकार की प्रजा मानी जाती है बिन्दुज और नादज। जो माता-पिता के रजवीर्य से पैदा होती है , वह बिन्दुज प्रजा कहलाती है और जो महापुरुषों के नाद से अर्थात् शब्द से , उपदेश से , पारमार्थिक मार्ग में लग जाती है वह नादज प्रजा कहलाती है। यहाँ योगियों के कुल में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट बिन्दुज है और तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों का सङ्गप्राप्त साधक नादज है। इन दोनों ही साधकों को ऐसा जन्म और सङ्ग मिलना बड़ा दुर्लभ है। शास्त्रों में मनुष्यजन्म को दुर्लभ बताया है पर मनुष्य जन्म में महापुरुषों का सङ्ग मिलना और भी दुर्लभ है (टिप्पणी प0 380.1)। नारदजी अपने भक्तिसूत्र में कहते हैं – ‘महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च’ अर्थात् महापुरुषों का सङ्ग दुर्लभ है , अगम्य है और अमोघ है। कारण कि एक तो उनका सङ्ग मिलना कठिन है और भगवान की कृपा से ऐसा सङ्ग मिल भी जाय (टिप्पणी प0 380.2) तो उन महापुरुषों को पहचानना कठिन है परन्तु उनका सङ्ग किसी भी तरह से मिल जाय वह कभी निष्फल नहीं जाता। तात्पर्य है कि महापुरुषों का सङ्ग मिलने की दृष्टि से ही उपर्युक्त दोनों साधकों को दुर्लभतर बताया गया है।  पूर्वश्लोक में भगवान ने वैराग्यवान् योगभ्रष्ट का तत्त्वज्ञ योगियों के कुल में जन्म होना बताया। अब वहाँ जन्म होने के बाद क्या होता है ? यह बात आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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