Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

37-47  योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा

 

 

bhagavad gita in hindi chapter 6श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ৷৷6.40৷৷

 

श्रीभगवानुवाच-भगवान् ने कहा; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; न-एव-कभी नहीं; इह-इस संसार में; न कभी नहीं; अमुत्र-परलोक में; विनाश:-नाश; तस्य-उसका; विद्यते-होता है; न कभी नहीं; हि-निश्चय ही; कल्याण-कृत्-भगवद्प्राप्ति के लिए प्रयासरत्; कश्चित्-कोई भी; दुर्गतिम्-पतन को; तात–मेरे प्रिय मित्र; गच्छति–जाता है।

 

परमेश्वर श्रीकृष्ण ने कहाः हे पृथा पुत्र! आध्यात्मिक पथ का अनुसरण करने वाले योगी का न तो इस लोक में और न ही परलोक में विनाश होता है। मेरे प्रिय मित्र! आत्मोद्धार अर्थात भगवद्प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाला और भगवत्प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता अर्थात उसका कभी पतन नहीं होता और उसको कोई बुराई पराजित नहीं कर सकती  ৷৷6.40৷৷

 

( जिसको अन्तकाल में परमात्मा का स्मरण नहीं होता उसका कहीं पतन तो नहीं हो जाता इस बातको लेकर अर्जुनके हृदयमें बहुत व्याकुलता है। यह व्याकुलता भगवान्से छिपी नहीं है। अतः भगवान् अर्जुन के ‘कां गतिं कृष्ण गच्छति’ इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले ही अर्जुन के हृदय की व्याकुलता दूर करते हैं। ‘पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते’ हे पृथानन्दन ! जो साधक अन्त समय में किसी कारणवश योग से साधन से विचलित हो गया है , वह योगभ्रष्ट साधक मरने के बाद चाहे इस लोक में जन्म ले चाहे परलोक में जन्म ले उसका पतन नहीं होता (गीता 6। 41 45)। तात्पर्य है कि उसकी योग में जितनी स्थिति बन चुकी है उससे नीचे वह नहीं गिरता। उसकी साधन-सामग्री नष्ट नहीं होती। उसका पारमार्थिक उद्देश्य नहीं बदलता। जैसे अनादिकाल से वह जन्मता-मरता रहा है , ऐसे ही आगे भी जन्मता-मरता रहे पर उसका यह पतन नहीं होता। जैसे भरत मुनि भारत-वर्ष का राज्य छोड़कर एकान्त में तप करते थे। वहाँ दया के वश होकर वे हिरण के बच्चे में आसक्त हो गये , जिससे दूसरे जन्म में उनको हिरण बनना पड़ा परन्तु उन्होंने जितना त्याग – तप किया था , उनकी जितनी साधन की पूँजी इकट्ठी हुई थी , वह उस हिरण के जन्म में भी नष्ट नहीं हुई। उनको हिरण के जन्म में भी पूर्वजन्म की बात याद थी , जो कि मनुष्य जन्म में भी नहीं रहती। अतः वे ( हिरण जन्म में ) बचपन से ही अपनी माँ के साथ नहीं रहे। वे हरे पत्ते न खाकर सूखे पत्ते खाते थे। तात्पर्य यह है कि अपनी स्थिति से न गिरने के कारण हिरण के जन्म में भी उनका पतन नहीं हुआ (श्रीमद्भागवत स्कन्ध 5 अध्याय 7 8)। इसी तरह से पहले मनुष्य जन्म में जिनका स्वभाव सेवा करने का , जप-ध्यान करने का रहा है और विचार अपना उद्धार करने का रहा है , वे किसी कारणवश अन्त समय में योगभ्रष्ट हो जायँ तथा इस लोक में पशु-पक्षी भी बन जायँ तो भी उनका वह अच्छा स्वभाव और सत्संस्कार नष्ट नहीं होते। ऐसे बहुत से उदाहरण आते हैं कि कोई दूसरे जन्म में हाथी , ऊँट आदि बन गये पर उन योनियों में भी वे भगवान की कथा सुनते थे। एक जगह कथा होती थी तो एक काला कुत्ता आकर वहाँ बैठता और कथा सुनता। जब कीर्तन करते हुए कीर्तन मण्डली घूमती तो उस मण्डली के साथ वह कुत्ता भी घूमता था। यह हमारी देखी हुई बात है। ‘न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ‘ भगवान ने इस श्लोक के पूर्वार्ध में अर्जुन के लिये पार्थ सम्बोधन दिया , जो आत्मीयसम्बन्ध का द्योतक है। अर्जुन के सब नामों में भगवान को यह पार्थ नाम बहुत प्यारा था। अब उत्तरार्ध में उससे भी अधिक प्यार भरे शब्दों में भगवान् कहते हैं कि हे तात् ! कल्याणकारी कार्य करने वाले की दुर्गति नहीं होती। यह तात सम्बोधन गीता भर में एक ही बार आया है जो अत्यधिक प्यार का द्योतक है। इस श्लोक में भगवान ने मात्र साधक के लिये बहुत आश्वासन की बात कही है कि जो कल्याणकारी काम करने वाला है अर्थात् किसी भी साधन से सच्चे हृदय से परमात्मतत्त्व की प्राप्ति करना चाहता है , ऐसे किसी भी साधक की दुर्गति नहीं होती। उसकी दुर्गति नहीं होती यह कहने का तात्पर्य है कि जो मनुष्य कल्याणकारी कार्य में लगा हुआ है अर्थात् जिसके लिये मनुष्यशरीर मिला है , उस अपने असली काम में लगा हुआ है तथा सांसारिक भोग और संग्रह में आसक्त नहीं है , वह चाहे किसी मार्ग से चले उसकी दुर्गति नहीं होती। कारण कि उसका ध्येय चिन्मयतत्त्व मैं (परमात्मा ) हूँ अतः उसका पतन नहीं होता। उसकी रक्षा मैं करता ही रहता हूँ फिर उसकी दुर्गति कैसे हो सकती है ? मेरी दृष्टि स्वतः प्राणिमात्र के हित में रहती है। जो मनुष्य मेरी तरफ चलता है अपना परम हित करने के लिये उद्योग करता है वह मुझे बहुत प्यारा लगता है क्योंकि वास्तव में वह मेरा ही अंश है , संसार का नहीं। उसका वास्तविक सम्बन्ध मेरे साथ ही है। संसार के साथ उसका वास्तविक सम्बन्ध नहीं है। उसने मेरे साथ इस वास्तविक सम्बन्ध को असली लक्ष्य को पहचान लिया तो फिर उसकी दुर्गति कैसे हो सकती है ? उसका किया हुआ साधन भी नष्ट कैसे हो सकता है ? हाँ , कभी-कभी देखने में वह मोहित हुआ सा दिखता है , उसका साधन छूटा हुआ सा दिखता है परन्तु ऐसी परिस्थिति उसके अभिमान के कारण ही उसके सामने आती है। मैं भी उसको चेताने के लिये , उसका अभिमान दूर करने के लिये ऐसी घटना घटा देता हूँ , जिससे वह व्याकुल हो जाता है और मेरी तरफ तेजी से चल पड़ता है। जैसे गोपियों का अभिमान (मद ) देखकर मैं रास में ही अन्तर्धान हो गया तो सब गोपियाँ घबरा गयीं , जब वे विशेष व्याकुल हो गयीं तब मैं उन गोपियों के समुदाय के बीच में ही प्रकट हो गया और उनके पूछने पर मैंने कहा ‘मया परोक्षं भजता तिरोहितम्’ (श्रीमद्भा0 10। 32। 21) अर्थात् तुम लोगों का भजन करता हुआ ही मैं अन्तर्धान हुआ था। तुम लोगों की याद और तुम लोगों का हित मेरे से छूटा नहीं है। इस प्रकार मेरे हृदय में साधन करने वालों का बहुत बड़ा स्थान है। इसका कारण यह है कि अनन्त जन्मों से भूला हुआ यह प्राणी जब केवल मेरी तरफ लगता है तब वह मेरे को बहुत प्यारा लगता है क्योंकि उसने अनेक योनियों में बहुत दुःख पाया है और अब वह सन्मार्ग पर आ गया है। जैसे माता अपने छोटे बच्चे की रक्षा पालन और हित करती रहती है , ऐसे ही मैं उस साधक के साधन और उसके हित की रक्षा करते हुए उसके साधन की वृद्धि करता रहता हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि जिसके भीतर एक बार साधन के संस्कार पड़ गये हैं । वे संस्कार फिर कभी नष्ट नहीं होते। कारण कि उस परमात्मा के लिये जो काम किया जाता है , वह सत् हो जाता है – ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते’ (गीता 17। 27) अर्थात् उसका अभाव नहीं होता – ‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता 2। 16)। इसी बात को भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि कल्याणकारी काम करने वाले किसी भी मनुष्य की दुर्गति नहीं होती। उसके जितने सद्भाव बने हैं , जैसा स्वभाव बना है , वह प्राणी किसी कारणवशात् किसी भी योनि में चला जाय अथवा किसी भी परिस्थिति में पड़ जाय तो भी वे सद्भाव उसका कल्याण करके ही छोड़ेंगे। अगर वह किसी कारण से किसी नीच योनि में भी चला जाय तो वहाँ भी अपने सजातीय योनि वालों की अपेक्षा उसके स्वभाव में फरक रहेगा (टिप्पणी प0 377.1)। यद्यपि यहाँ अर्जुन का प्रश्न मरने के बाद की गति का है तथापि परमात्मा की तरफ लगने का बड़ा भारी माहात्म्य है , इस बात को बताने के लिये यहाँ ‘इह’ पद से इस जीवित अवस्था में भी पतन नहीं होता , ऐसा अर्थ भी लिया जा सकता है। ऐसा अर्थ लेने से यह शङ्का हो सकती है कि अजामिल जैसा शुद्ध ब्राह्मण भी वेश्यागामी हो गया , बिल्वमङ्गल भी चिन्तामणि नाम की वेश्या के वश में हो गये तो इनका इस जीवित अवस्थामें ही पतन कैसे हो गया ? इसका समाधान यह है कि लोगों को तो उनका पतन हो गया ऐसा दिखता है पर वास्तव में उनका पतन नहीं हुआ है क्योंकि अन्त में उनका उद्धार ही हुआ है। अजामिल को लेने के लिये भगवान के पार्षद आये और बिल्वमङ्गल भगवान के भक्त बन गये। इस प्रकार वे पहले भी सदाचारी थे और अन्त में भी उनका उद्धार हो गया केवल बीच में ही उनकी दशा अच्छी नहीं रही। तात्पर्य यह हुआ कि किसी कुसङ्ग से , किसी विघ्न-बाधा से , किसी असावधानी से उसके भाव और आचरण गिर सकते हैं और मैं कौन हूँ ? मैं क्या कर रहा हूँ ? मुझे क्या करना चाहिये ? ऐसी विस्मृति होकर वह संसार के प्रवाह में बह सकता है परन्तु पहले की साधन अवस्था में वह जितना साधन कर चुका है , उसका संसार के साथ जितना सम्बन्ध टूट चुका है , उतनी पूँजी तो उसकी वैसी की वैसी ही रहती है अर्थात् वह कभी किसी अवस्था में छूटती नहीं बल्कि उसके भीतर सुरक्षित रहती है। उसको जब कभी अच्छा संग मिलता है अथवा कोई बड़ी आफत आती है तो वह भीतर का भाव प्रकट हो जाता है और वह भगवान की ओर तेजी से लग जाता है (टिप्पणी प0 377.2)। हाँ , साधन में बाधा पड़ जाना , भाव और आचरणों का गिरना तथा परमात्मप्राप्ति में देर लगना , इस दृष्टि से तो उसका पतन हुआ ही है। अतः उपर्युक्त उदाहरणों से साधक को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि हमें हर समय सावधान रहना है , जिससे हम कहीं कुसंग में न पड़ जायँ , कहीं विषयों के वशीभूत होकर अपना साधन न छोड़ दें और कहीं विपरीत कामों में न चले जायँ। पूर्वश्लोक में भगवान ने अर्जुन को आश्वासन दिया कि किसी भी साधक का पतन नहीं होता और वह दुर्गति में नहीं जाता। अब भगवान् अर्जुन द्वारा 37वें श्लोक में किये गये प्रश्न के अनुसार योगभ्रष्ट की गति का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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