आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ৷৷6.18৷৷
यदा-जब; विनियतम् – पूर्ण नियंत्रित; चित्तम्–मन; आत्मनि-आत्मा का; एव-निश्चय ही; अवतिष्ठते-स्थित होना; निस्पृह-लालसा रहित; सर्व-सभी प्रकार से; कामेभ्यः-इन्द्रिय तृप्ति की लालसा; तृप्तिः-योग में पूर्णतया स्थित; इति–इस प्रकार से; उच्यते-कहा जाता है; तदा-उस समय।
पूर्ण रूप से अनुशासित और नियंत्रित होकर जो अपने मन को स्वार्थों एवं लालसाओं से हटाना सीख लेते हैं और इसे अपनी आत्मा के सर्वोत्कृष्ट लाभ में लगा देते हैं अर्थात अत्यन्त वश में किया हुआ जिनका चित्त जिस समय परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है ऐसे मनुष्यों को उस समय योग में पूर्णतया स्थित या योगयुक्त कहा जाता है ऐसे योगी सभी प्रकार की इन्द्रिय लालसाओं और सभी प्रकार के विषय भोगों से मुक्त होते हैं ৷৷ 6.18 ৷৷
इस अध्याय के 10वें से 13वें श्लोक तक सभी ध्यानयोगी साधकों के लिये बिछाने और बैठने वाले आसनों की विधि बतायी। 14वें और 15वें श्लोक में सगुण-साकार के ध्यान का फल सहित वर्णन किया। फिर 16वें , 17वें श्लोकों में सभी साधकों के लिये उपयोगी नियम बताये। अब इस (18वें) श्लोक से लेकर 23वें श्लोक तक स्वरूप के ध्यान का फलसहित वर्णन करते हैं। ‘यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते’ अच्छी तरह से वश में किया हुआ चित्त (टिप्पणी प0 350) अर्थात् संसार के चिन्तन से रहित चित्त जब अपने स्वतःसिद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है। तात्पर्य है कि जब यह सब कुछ नहीं था तब भी जो था और सब कुछ नहीं रहेगा तब भी जो रहेगा तथा सबके उत्पन्न होने के पहले भी जो था , सबका लय होने के बाद भी जो रहेगा और अभी भी जो ज्यों का त्यों है , उस अपने स्वरूप में चित्त स्थित हो जाता है। अपने स्वरूप में जो रस है , आनन्द है , वह इस मन को कहीं भी और कभी भी नहीं मिला है। अतः वह रस , आनन्द मिलते ही मन उसमें तल्लीन हो जाता है। ‘निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा’ और जब वह प्राप्त-अप्राप्त , दृष्ट-अदृष्ट , ऐहलौकिक-पारलौकिक , श्रुत-अश्रुत , सम्पूर्ण पदार्थों से , भोगों से निःस्पृह हो जाता है अर्थात् उसको किसी भी पदार्थ की , भोग की किञ्चिन्मात्र भी परवाह नहीं रहती , उस समय वह योगी कहा जाता है। यहाँ ‘यदा’ और ‘तदा’ पद देने का तात्पर्य है कि वह इतने दिनों में , इतने महीनों में , इतने वर्षों में योगी होगा , ऐसी बात नहीं है बल्कि जिस क्षण वश में किया हुआ चित्त , स्वरूप में स्थित हो जायगा और सम्पूर्ण पदार्थों से निःस्पृह हो जायगा , उसी क्षण वह योगी हो जायगा। विशेष बात – इस श्लोक में दो खास बातें बतायी हैं – एक तो चित्त स्वरूप में स्थित हो जाय और दूसरी सम्पूर्ण पदार्थों से निःस्पृह हो जाय। तात्पर्य है कि स्वरूप में लगते-लगते जब मन स्वरूप में ही स्थित हो जाता है तो फिर मन में किसी वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि का चिन्तन नहीं होता , मन स्वरूप में ही तल्लीन हो जाता है। इस प्रकार स्वरूप में ही मन लगा रहने से ध्यानयोगी वासना , कामना , आशा , तृष्णा आदि से सर्वथा रहित हो जाता है। इतना ही नहीं वह जीवननिर्वाह के लिये उपयोगी पदार्थों की आवश्यकता से भी निःस्पृह हो जाता है। उसके मन में किसी भी वस्तु आदि की किञ्चिन्मात्र भी स्पृहा नहीं रहती , तब वह असली योगी होता है। इसी अवस्था का संकेत पहले चौथे श्लोक में कर्मयोगी के लिये किया गया है कि जिस काल में इन्द्रियों के अर्थों (भोगों ) में और क्रियाओं में आसक्ति नहीं रहती तथा सम्पूर्ण संकल्पों का त्याग कर देता है , तब वह योगारूढ़ कहा जाता है (6। 4)। वहाँ के और यहाँ के प्रसङ्ग में अन्तर इतना ही है कि वहाँ कर्मयोगी दूसरों की सेवा के लिये ही कर्म करता है तो उसका क्रियाओं और पदार्थों से सर्वथा राग हट जाता है , तब वह योगारूढ़ हो जाता है और यहाँ ध्यानयोगी चित्त को स्वरूप में लगाता है तो उसका चित्त केवल स्वरूप में ही स्थित हो जाता है , तब वह क्रियाओं और पदार्थों से निःस्पृह हो जाता है। तात्पर्य है कि कर्मयोगी की कामनाएँ पहले मिटती हैं , तब वह योगारूढ़ होता है और ध्यानयोगी का चित्त पहले अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है , तब उसकी कामनाएँ मिटती हैं। कर्मयोगी का मन संसार की सेवा में लग जाता है और स्वयं स्वरूप में स्थित हो जाता है और ध्यानयोगी स्वयं मन के साथ स्वरूप में स्थित हो जाता है। स्वरूप में स्थिर हुए चित्त की क्या स्थिति होती है इसको आगे के श्लोक में दीपक के दृष्टान्त से स्पष्ट बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी