आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ৷৷6.21৷৷
सुखम्-सुख; आत्यन्तिकम्-असीम; यत्-जो; तत्-वह; बुद्धि-बुद्धि द्वारा; ग्राह्मम्-ग्रहण करना; अतीन्द्रियम्-इन्द्रियातीत; वेत्ति-जानता है; यत्र-जिसमें; न- कभी नहीं; च -और; एव–निश्चय ही; अयम्-वह; स्थितः-स्थित; चलति–विपथ न होना; तत्त्वतः-परम सत्य से;
योग में चरम आनन्द की या सिद्धि की अवस्था अवस्था को समाधि कहते हैं जिसमें मनुष्य का मन योगाभ्यास के द्वारा भौतिक और मानसिक क्रियाओं से पूर्णतया संयमित हो जाता है तथा वह असीम दिव्य आनन्द प्राप्त करता है जो इन्द्रियों से परे है अर्थात विषयजनित सुख नहीं है और जो केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य अनन्त आनन्द है , ऐसे आनंद को अपने स्वरूप में स्थित हुआ योगी जिस काल में अनुभव कर लेता है फिर वह उस तत्त्व से और उसके वास्तविक स्वरूप से कभी विचलित नहीं होता अर्थात ऐसे सुख में स्थित हुआ ज्ञानी परम सत्य के पथ से विपथ नहीं होता। ऐसी सिद्धि की अवस्था में जीव शुद्ध मन से अपने को देख सकता है और अपने आप में आनन्द उठा सकता है | ৷৷6.21৷৷
‘सुखमात्यन्तिकं यत्’ ध्यानयोगी अपने द्वारा अपने आप में जिस सुख का अनुभव करता है , प्राकृत संसार में उस सुख से बढ़कर दूसरा कोई सुख हो ही नहीं सकता और होना सम्भव ही नहीं है। कारण कि यह सुख तीनों गुणों से अतीत और स्वतःसिद्ध है। यह सम्पूर्ण सुखों की आखिरी हद है ‘सा काष्ठा सा परा गतिः’। इसी सुख को अक्षय सुख (5। 21) , अत्यन्त सुख (6। 28) और ऐकान्तिक सुख (14। 27) कहा गया है। इस सुख को यहाँ आत्यन्तिक कहने का तात्पर्य है कि यह सुख सात्त्विक सुख से विलक्षण है। कारण कि सात्त्विक सुख तो परमात्मविषयक बुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न होता है (गीता 18। 37) परन्तु यह आत्यन्तिक सुख उत्पन्न नहीं होता बल्कि यह स्वतःसिद्ध अनुत्पन्न सुख है। ‘अतीन्द्रियम्’ इस सुख को इन्द्रियों से अतीत बताने का तात्पर्य है कि यह सुख राजस सुख से विलक्षण है। राजस सुख सांसारिक वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ , परिस्थिति आदि के सम्बन्ध से पैदा होता है और इन्द्रियों के द्वारा भोगा जाता है। वस्तु , व्यक्ति आदि का प्राप्त होना हमारे हाथ की बात नहीं है और प्राप्त होने पर उस सुख का भोग उस विषय (वस्तु , व्यक्ति आदि) के ही अधीन होता है। अतः राजस सुख में पराधीनता है परन्तु आत्यन्तिक सुख में पराधीनता नहीं है। कारण कि आत्यन्तिक सुख इन्द्रियों का विषय नहीं है। इन्द्रियों की तो बात ही क्या है , वहाँ मन की भी पहुँच नहीं है। यह सुख तो स्वयं के द्वारा ही अनुभव में आता है। अतः इस सुख को अतीन्द्रिय कहा है। ‘बुद्धिग्राह्यम्’ इस सुख को बुद्धिग्राह्य बताने का तात्पर्य है कि यह सुख तामस सुख से विलक्षण है। तामस सुख निद्रा , आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होता है। गाढ़ निद्रा (सुषुप्ति ) में सुख तो मिलता है पर उसमें बुद्धि लीन हो जाती है। आलस्य और प्रमाद में भी सुख होता है पर उसमें बुद्धि ठीक-ठीक जाग्रत् नहीं रहती तथा विवेकशक्ति भी लुप्त हो जाती है परन्तु इस आत्यन्तिक सुख में बुद्धि लीन नहीं होती और विवेक-शक्ति भी ठीक जाग्रत् रहती है पर इस आत्यन्तिक सुख को बुद्धि पकड़ नहीं सकती क्योंकि प्रकृति का कार्य बुद्धि प्रकृति से अतीत स्वरूपभूत सुख को पकड़ ही कैसे सकती है । यहाँ सुख को आत्यन्तिक अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य बताने का तात्पर्य है कि यह सुख सात्त्विक , राजस और तामस सुख से विलक्षण अर्थात् गुणातीत स्वरूपभूत है। ‘वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः’ ध्यानयोगी अपने द्वारा ही अपने आपके सुख का अनुभव करता है और इस सुख में स्थित हुआ वह कभी किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होता अर्थात् इस सुख की अखण्डता निरन्तर स्वतः बनी रहती है। जैसे मुसलमानों ने धोखे से शिवाजी के पुत्र संभाजी को कैद कर लिया और उनसे मुस्लिमधर्म स्वीकार करने के लिये कहा परन्तु जब संभाजी ने उसको स्वीकार नहीं किया तब मुसलमानों ने उनकी आँखें निकाल लीं , उनकी चमड़ी खींच ली , तो भी वे अपने हिन्दूधर्म से किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं हुए। तात्पर्य यह निकला कि मनुष्य जब तक अपनी मान्यता को स्वयं नहीं छोड़ता तब तक उसको दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता। जब अपनी मान्यता को भी कोई छुड़ा नहीं सकता तो फिर जिसको वास्तविक सुख प्राप्त हो गया है उस सुख को कोई कैसे छु़ड़ा सकता है और वह स्वयं भी उस सुख से कैसे विचलित हो सकता है , नहीं हो सकता। मनुष्य उस वास्तविक सुख से , ज्ञान से , आनन्द से कभी चलायमान नहीं होता । इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य सात्त्विक सुख से भी चलायमान होता है , उसका समाधि से भी व्युत्थान होता है परन्तु आत्यन्तिक सुख से अर्थात् तत्त्व से वह कभी विचलित और व्युत्थित नहीं होता क्योंकि उसमें उसकी दूरी , भेद , भिन्नता मिट गयी और अब केवल वह ही वह रह गया। अब वह विचलित और व्युत्थित कैसे हो ? विचलित और व्युत्थित तभी होता है जब जडता का किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध रहता है। जब तक जडता का सम्बन्ध रहता है तब तक वह एकरस नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति सदा ही क्रियाशील रहती है। ध्यानयोगी तत्त्व से चलायमान क्यों नहीं होता इसका कारण आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )