आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ৷৷6.27৷৷
प्रशान्त-शान्तिप्रियः मनसम्–मन; हि-निश्चय ही; एनम् यह; योगिनम्-योगी; सुखम्-उत्तमम्-परम आनन्द; उपैति-प्राप्त करता है; शान्त-रजसम्–जिसकी कामनाएँ शान्त हो चुकी हैं; ब्रह्म-भूतम्-भगवद् अनुभूति से युक्त; अकल्मषम्-पाप रहित।
जिस योगी का मन शांत हो जाता है और जिसकी वासनाएँ वश में हो जाती हैं अर्थात जिसका रजोगुण शांत हो गया है एवं जो निष्पाप है तथा जो प्रत्येक वस्तु का संबंध भगवान के साथ जोड़कर देखता है, ऐसे सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कर्मों के फल से निवृत्त हो जाता है ৷৷6.27৷৷
(‘प्रशान्तमनसं ह्येनं ৷৷. ब्रह्मभूतमकल्मषम् ‘ जिसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गये हैं अर्थात् तमोगुण और तमोगुण की अप्रकाश , अप्रवृत्ति , प्रमाद और मोह (गीता 14। 13) ये वृत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं , ऐसे योगी को यहाँ ‘अकल्मषम्’ कहा गया है। जिसका रजोगुण और रजोगुण की लोभ प्रवृत्ति जैसे – नये-नये कर्मों में लगना , अशान्ति और स्पृहा (गीता 14। 12) ये वृत्तियाँ शान्त हो गयी हैं , ऐसे योगी को यहाँ ‘शान्तरजसम्’ बताया गया है। तमोगुम , रजोगुण तथा उनकी वृत्तियाँ शान्त होने से जिसका मन स्वाभाविक शान्त हो गया है अर्थात् जिसकी मात्र प्राकृत पदार्थों से तथा संकल्पविकल्पों से भी उपरति हो गयी है , ऐसे स्वाभाविक शान्त मन वाले योगी को यहाँ ‘प्रशान्तमनसम्’ कहा गया है। प्रशान्त कहने का तात्पर्य है कि ध्यानयोगी जब तक मन को अपना मानता है तब तक मन अभ्यास से शान्त तो हो सकता है पर प्रशान्त अर्थात् सर्वथा शान्त नहीं हो सकता परन्तु जब ध्यानयोगी मन से भी उपराम हो जाता है अर्थात् मन को भी अपना नहीं मानता , मन से भी सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है तब मन में राग-द्वेष न होने से उसका मन स्वाभाविक ही शान्त हो जाता है। 25वें श्लोक में जिसकी उपरामता का वर्णन किया गया है , वही (उपराम होने से) पापरहित , शान्त , रजोगुणवाला और प्रशान्त मनवाला हुआ है। अतः उस योगी के लिये यहाँ ‘एनम्’ पद आया है। ऐसे ब्रह्मस्वरूप ध्यानयोगी को स्वाभाविक ही उत्तम सुख अर्थात् सात्त्विक सुख प्राप्त होता है। पहले 23वें श्लोक के उत्तरार्ध में जिस योग का निश्चयपूर्वक अभ्यास करने की आज्ञा दी गयी थी ‘स निश्चयेन योक्तव्यः’ उस योग का अभ्यास करने वाले योगी को निश्चित ही उत्तम सुख की प्राप्ति हो जायगी , इसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं है। इस निःसन्दिग्धता को बताने के लिये यहाँ ‘हि’ पद का प्रयोग हुआ है। ‘सुखमुपैति’ कहने का तात्पर्य है कि जो योगी सबसे उपराम हो गया है उसको उत्तम सुख की खोज नहीं करनी पड़ती । उस सुख की प्राप्ति के लिये उद्योग , परिश्रम आदि नहीं करने पड़ते बल्कि वह उत्तम सुख , उसको स्वतःस्वाभाविक ही प्राप्त हो जाता है – स्वामी रामसुखदास जी )