आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ৷৷6.28৷৷
युञ्जन्–स्वयं को भगवान में एकीकृत करना; एवम्-इस प्रकार; सदा-सदैव; आत्मानम्-आत्मा; योगी-योगी; विगत-मुक्त रहना; कल्मषः-पाप से; सुखेन-सहजता से; ब्रह्म-संस्पर्शम् निरन्तर ब्रह्म के सम्पर्क में रहकर; अत्यन्तम्-परम; सुखम्-आनन्द; अश्नुते—प्राप्त करना।
इस प्रकार आत्म संयमी योगी आत्मा को भगवान में एकीकृत कर भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है और निरन्तर परमेश्वर में तल्लीन होकर उसकी दिव्य प्रेममयी भक्ति में परम सुख प्राप्त करता है अर्थात वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है ৷৷6.28৷৷
(‘युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः’ अपनी स्थिति के लिये जो (मन को बार-बार लगाना आदि ) अभ्यास किया जाता है वह अभ्यास यहाँ नहीं है। यहाँ तो अनभ्यास ही अभ्यास है अर्थात् अपने स्वरूप में अपने आपको दृढ़ रखना ही अभ्यास है। इस अभ्यास में अभ्यासवृत्ति नहीं है। ऐसे अभ्यास से वह योगी अहंता – ममता रहित हो जाता है। अहंता और ममता से रहित होना ही पापों से रहित होना है क्योंकि संसार के साथ अहंताममतापूर्वक सम्बन्ध रखना ही पाप है। 15वें श्लोक में ‘युञ्जन्नेवम् ‘ पद सगुण के ध्यान के लिये आया है और यहाँ ‘युञ्जन्नेवम् ‘ पद निर्गुण के ध्यान के लिये आया है। ऐसे ही 15वें श्लोक में ‘नियतमानसः’ आया है और यहाँ ‘विगतकल्मषः’ आया है क्योंकि वहाँ परमात्मा में मन लगाने की मुख्यता है और यहाँ जडता का त्याग करने की मुख्यता है। वहाँ तो परमात्मा का चिन्तन करते-करते मन सगुण परमात्मा में तल्लीन हो गया तो संसार स्वतः ही छूट गया और यहाँ अंहता-ममतारूप कल्मष से अर्थात् संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने ध्येय परमात्मा में स्थित हो गया। इस प्रकार दोनों का तात्पर्य एक ही हुआ अर्थात् वहाँ परमात्मा में लगने से संसार छूट गया और यहाँ संसार को छोड़कर परमात्मा में स्थित हो गया। ‘सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते’ उसकी ब्रह्म के साथ जो अभिन्नता होती है उसमें मैंपन का संस्कार भी नहीं रहता , सत्ता भी नहीं रहती। यही सुखपूर्वक ब्रह्म का संस्पर्श करना है। जिस सुख में अनुभव करने वाला और अनुभव में आने वाला ये दोनों ही नहीं रहते वह अत्यन्त सुख है। इस सुख को योगी प्राप्त कर लेता है। यह अत्यन्त सुख , अक्षय सुख (5। 21) और आत्यन्तिक सुख (6। 21) ये एक ही परमात्मतत्त्वरूप आनन्दके वाचक हैं। 18वें से 23वें श्लोक तक स्वरूप का ध्यान करने वाले जिस सांख्ययोगी का वर्णन हुआ है उसके अनुभव का वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )