आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ৷৷6.29৷৷
सर्व-भूत-स्थम्-सभी प्राणियों में स्थित; आत्मानम्-परमात्मा; सर्व-सभी; भूतानि-जीवों को; च–भी; आत्मनि–भगवान में; ईक्षते-देखता है; योग-युक्त-आत्मा अपनी चेतना को भगवान के साथ जोड़ने वाला; सर्वत्र-सभी जगह; सम-दर्शनः-सम दृष्टि।
सच्चा योगी अपनी चेतना को भगवान के साथ एकीकृत कर समान दृष्टि से सभी जीवों में भगवान और भगवान को सभी जीवों में देखता है अर्थात सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है৷৷6.29৷৷
(‘ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः’ सब जगह एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। जैसे मनुष्य खाँड़ से बने हुए अनेक तरह के खिलौनों के नाम , रूप , आकृति आदि भिन्न-भिन्न होने पर भी उनमें समान रूप से एक खाँड़ को , लोहे से बने हुए अनेक तरह के अस्त्र-शस्त्रों में एक लोहे को , मिट्टी से बने हुए अनेक तरह के बर्तनों में एक मिट्टी को और सोने से बने हुए आभूषणों में एक सोने को ही देखता है । ऐसे ही ध्यानयोगी तरह-तरह की वस्तु , व्यक्ति आदि में समरूप से एक अपने स्वरूप को ही देखता है। ‘योगयुक्तात्मा’ इसका तात्पर्य है कि ध्यानयोग का अभ्यास करते-करते उस योगी का अन्तःकरण अपने स्वरूप में तल्लीन हो गया है। तल्लीन होने के बाद उसका अन्तःकरण से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है जिसका संकेत ‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि’ पदों से किया गया है। ‘सर्वभूतस्थमात्मानम्’ वह सम्पूर्ण प्राणियों में अपनी आत्मा को अपने सत् स्वरूप को स्थित देखता है। जैसे साधारण प्राणी सारे शरीर में अपने आपको देखता है अर्थात् शरीर के सभी अवयवों में , अंशों में ‘मैं’ को ही पूर्णरूप से देखता है , ऐसे ही समदर्शी पुरुष सब प्राणियों में अपने स्वरूप को ही स्थित देखता है। किसी को नींद में स्वप्न आये तो वह स्वप्न में स्थावरजङ्गम प्राणीपदार्थ देखता है। पर नींद खुलने पर वह स्वप्न की सृष्टि नहीं दिखती । अतः स्वप्न में स्थावरजङ्गम आदि सब कुछ स्वयं ही बना है। जाग्रत्अवस्था में किसी जड या चेतन प्राणीपदार्थ की याद आती है तो वह मन से दिखने लग जाता है और याद हटते ही वह सब दृश्य अदृश्य हो जाता है । अतः याद में सब कुछ अपना मन ही बना है। ऐसे ही ध्यानयोगी सम्पूर्ण प्राणियों में अपने स्वरूप को स्थित देखता है। स्थित देखने का तात्पर्य है कि सम्पूर्ण प्राणियों में सत्तारूप से अपना ही स्वरूप है। स्वरूप के सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं है क्योंकि संसार एक क्षण भी एकरूप नहीं रहता बल्कि प्रतिक्षण बदलता ही रहता है। संसार के किसी रूप को एक बार देखने पर अगर दुबारा उसको कोई देखना चाहे तो देख ही नहीं सकता क्योंकि वह पहला रूप बदल गया। ऐसे परिवर्तनशील वस्तु , व्यक्ति आदि में योगी सत्तारूप से अपरिवर्तनशील अपने स्वरूप को ही देखता है। ‘सर्वभूतानि चात्मनि’ वह सम्पूर्ण प्राणियों को अपने अन्तर्गत देखता है अर्थात् अपने सर्वगत , असीम सच्चिदानन्दघन स्वरूप में ही सभी प्राणियों को तथा सारे संसार को देखता है। जैसे एक प्रकाश के अन्तर्गत लाल , पीला , काला , नीला आदि जितने रंग दिखते हैं , वे सभी प्रकाश से ही बने हुए हैं और प्रकाश में ही दिखते हैं और जैसे जितनी वस्तुएँ दिखती हैं , वे सभी सूर्य से ही उत्पन्न हुई हैं और सूर्य के प्रकाश में ही दिखते हैं , ऐसे ही वह योगी सम्पूर्ण प्राणियों को अपने स्वरूप से ही पैदा हुए स्वरूप में ही लीन होते हुए और स्वरूप में ही स्थित देखता है। तात्पर्य है कि उसको जो कुछ दिखता है वह सब अपना स्वरूप ही दिखता है। इस श्लोक में प्राणियों में तो अपने को स्थित बताया है पर अपने में प्राणियों को स्थित नहीं बताया। ऐसा कहने का तात्पर्य है कि प्राणियों में तो अपनी सत्ता है पर अपने में प्राणियों की सत्ता नहीं है। कारण कि स्वरूप तो सदा एकरूप रहने वाला है पर प्राणी उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं। इस श्लोक का तात्पर्य यह हुआ कि व्यवहार में तो प्राणियों के साथ अलग-अलग बर्ताव होता है परन्तु अलग-अलग बर्ताव होने पर भी उस समदर्शी योगी की स्थिति में कोई फरक नहीं पड़ता। भगवान ने 14वें , 15वें श्लोकों में सगुण-साकार का ध्यान करने वाले जिस भक्तियोगी का वर्णन किया था उसके अनुभव की बात आगे के श्लोक में कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )