आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
33-36 मन के निग्रह का विषय
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ৷৷6.34৷৷
चञ्चलम्-बैचेन; हि-निश्चय ही; मनः-मन; कृष्ण-श्रीकृष्ण प्रमाथि–अशान्त; बल-वत्-बलवान्; दृढम् हठीला; तस्य-उसका; अहम्-मैं; निग्रहम् नियंत्रण में करना; मन्ये-विचार करना; वायोः-वायु की; इव-समान; सु-दुष्करम्-पालन में कठिनता।
हे कृष्ण! क्योंकि मन अति चंचल, अशांत, हठी और बलवान है। मुझे वायु की अपेक्षा मन को वश में करना अत्यंत कठिन लगता है ৷৷6.34৷৷
(‘चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्’ यहाँ भगवान को कृष्ण सम्बोधन देकर अर्जुन मानो यह कहे रहे हैं कि हे नाथ ! आप ही कृपा करके इस मन को खींचकर अपने में लगा लें तो यह मन लग सकता है। मेरे से तो इसका वश में होना बड़ा कठिन है क्योंकि यह मन बड़ा ही चञ्चल है। चञ्चलता के साथ-साथ यह प्रमाथि भी है अर्थात् यह साधक को अपनी स्थिति से विचलित कर देता है। यह बड़ा जिद्दी और बलवान् भी है। भगवान ने काम (कामना ) के रहने के पाँच स्थान बताये हैं इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , विषय और स्वयं (गीता 3। 40 3। 34 2। 59)। वास्तव में काम स्वयं में अर्थात् चिज्जड़ग्रन्थि में रहता है और इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि तथा विषयों में इसकी प्रतीति होती है। काम जब तक स्वयं से निवृत्त नहीं होता तब तक यह काम समय-समय पर इन्द्रियों आदि में प्रतीत होता रहता है। पर जब यह स्वयं से निवृत्त हो जाता है तब इन्द्रियों आदिमें भी यह नहीं रहता। इससे यह सिद्ध होता है कि जब तक स्वयं में काम रहता है तब तक मन साधक को व्यथित करता रहता है। अतः यहाँ मन को प्रमाथि बताया गया है। ऐसे ही स्वयं में काम रहने के कारण इन्द्रियाँ साधक के मन को व्यथित करती रहती हैं। इसलिये दूसरे अध्याय के 60वें श्लोक में इन्द्रियों को भी प्रमाथि बताया गया है – ‘इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।’ तात्पर्य यह हुआ कि जब कामना मन और इन्द्रियों में आती है तब वह साधक को महान् व्यथित कर देती है , जिससे साधक अपनी स्थिति पर नहीं रह पाता। उस काम के स्वयं में रहने के कारण मन का पदार्थों के प्रति गाढ़ खिंचाव रहता है। इससे मन किसी तरह भी उनकी ओर जाने को छोड़ता नहीं हठ कर लेता है । अतः मन को दृढ़ कहा है। मन की यह दृढ़ता बहुत बलवती होती है । अतः मन को बलवत् कहा है। तात्पर्य है कि मन बड़ा बलवान् है जो कि साधक को जबर्दस्ती विषयों में ले जाता है। शास्त्रों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि मन ही मनुष्यों के मोक्ष और बन्धन में कारण है – ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।’ परन्तु मन में यह प्रमथनशीलता दृढ़ता और बलवत्ता तभी तक रहती है , जब तक साधक अपने में से काम को सर्वथा निकाल नहीं देता। जब साधक स्वयं कामरहित हो जाता है , तब पदार्थों का विषयों का कितना ही संसर्ग होने पर साधक पर उनका कुछ भी असर नहीं पड़ता। फिर मन की प्रमथनशीलता आदि नष्ट हो जाती है। मन की चञ्चलता भी तभी तक बाधक होती है जब तक स्वयं में कुछ भी काम का अंश रहता है। काम का अंश सर्वथा निवृत्त होने पर मन की चञ्चलता किञ्चिन्मात्र भी बाधक नहीं होती। शास्त्रकारों ने कहा है – ‘देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि। यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः।।’ अर्थात् देहाभिमान (जड के साथ मैंपन) सर्वथा मिट जाने पर जब परमात्मतत्त्व का बोध हो जाता है तब जहाँ-जहाँ मन जाता है वहाँ-वहाँ परमात्मतत्त्व का अनुभव होता है अर्थात् उसकी अखण्ड समाधि (सहज समाधि) रहती है। ‘तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्’ इस चञ्चल , प्रमाथि , दृढ़ और बलवान् मन का निग्रह करना बड़ा कठिन है। जैसे आकाश में विचरण करते हुए वायु को कोई मुट्ठी में नहीं पकड़ सकता ऐसे ही इस मन को कोई पकड़ नहीं सकता। अतः इसका निग्रह करने को मैं महान् दुष्कर मानता हूँ। अब आगे के श्लोक में भगवान् अर्जुन की मान्यता का अनुमोदन करते हुए मन के निग्रह के उपाय बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )