आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
01-04 कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ के लक्षण, काम-संकल्प-त्याग का महत्व
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ৷৷6.2৷৷
यम्-जिसे; संन्यासम्-वैराग्य; इति–इस प्रकार; प्राहुः-वे कहते हैं; योगम् -योग; तम्-उसे; विद्धि-जानो; पाण्डव-पाण्डुपुत्र, अर्जुन; न कभी नहीं; हि-निश्चय ही; असंन्यस्त-त्याग किए बिना; सङ्कल्पः-इच्छा; योगी-योगी; भवति–होता है; कश्चन-कोई;
हे अर्जुन! जिसे संन्यास के रूप में जाना जाता है अर्थात जिसको संन्यास कहते हैं उसी को तू योग जान । कोई भी सांसारिक कामनाओं का त्याग किए बिना निश्चित रूप से योगी या संन्यासी नहीं बन सकता ৷৷6.2৷৷
(‘ यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव’ पाँचवें अध्याय के आरम्भ में भगवान ने बताया था कि संन्यास (सांख्ययोग) और योग (कर्मयोग) ये दोनों ही स्वतन्त्रता से कल्याण करने वाले हैं (5। 2) तथा दोनों का फल भी एक ही है (5। 5) अर्थात् संन्यास और योग दो नहीं हैं एक ही हैं। वही बात भगवान यहाँ कहते हैं कि जैसे संन्यासी सर्वथा त्यागी होता है , ऐसे ही कर्मयोगी भी सर्वथा त्यागी होता है। 18वें अध्याय के 9वें श्लोक में भगवान ने कहा है कि फल और आसक्ति का सर्वथा त्याग करके जो नियत कर्तव्यकर्म केवल कर्तव्यमात्र समझकर किया जाता है वह सात्त्विक त्याग है जिससे पदार्थों और क्रियाओं से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और मनुष्य त्यागी अर्थात् योगी हो जाता है। इसी तरह संन्यासी भी कर्तृत्वाभिमान का त्यागी होता है। अतः दोनों ही त्यागी हैं। तात्पर्य है कि योगी और संन्यासी में कोई भेद नहीं है। भेद न रहने से ही भगवान ने 5वें अध्याय के तीसरे श्लोक में कहा है कि राग-द्वेष का त्याग करने वाला योगी संन्यासी ही है। ‘न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन’ मन में जो स्फुरणाएँ होती हैं अर्थात् तरह-तरह की बातें याद आती हैं उनमें से जिस स्फुरणा (बात) के साथ मन चिपक जाता है , जिस स्फुरणा के प्रति प्रियता-अप्रियता पैदा हो जाती है वह संकल्प हो जाता है। उस संकल्प का त्याग किये बिना मनुष्य कोई सा भी योगी नहीं होता बल्कि भोगी होता है। कारण कि परमात्मा के साथ सम्बन्ध का नाम योग है और जिसकी भीतर से ही पदार्थों में महत्त्व सुन्दर तथा सुख-बुद्धि है वह (भीतर से पदार्थों के साथ सम्बन्ध मानने से) भोगी ही होगा योगी हो ही नहीं सकता। वह योगी तो तब होता है जब उसकी असत् पदार्थों में महत्त्व सुन्दर तथा सुख-बुद्धि नहीं रहती और तभी वह सम्पूर्ण संकल्पों का त्यागी होता है तथा उसको भगवान के साथ अपने नित्य सम्बन्ध का अनुभव होता है। यहाँ ‘कश्चन’ पद से यह अर्थ भी लिया जा सकता है कि संकल्प का त्याग किये बिना मनुष्य कोई सा भी योगी अर्थात् कर्मयोगी , ज्ञानयोगी , भक्तियोगी , हठयोगी , लययोगी आदि नहीं होता। कारण कि उसका सम्बन्ध उत्पन्न और नष्ट होने वाले जड पदार्थों के साथ है अतः वह योगी कैसे होगा वह तो भोगी ही होगा। ऐसे भोगी केवल मनुष्य ही नहीं हैं बल्कि पशु-पक्षी आदि भी भोगी हैं क्योंकि उन्होंने भी संकल्पों का त्याग नहीं किया है।तात्पर्य यह निकला कि जब तक असत् पदार्थों के साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध रहेगा अर्थात् अपने आपको कुछ न कुछ मानेगा तब तक मनुष्य कोई सा भी योगी नहीं हो सकता अर्थात् असत् पदार्थों के साथ सम्बन्ध रखते हुए वह कितना हा अभ्यास कर ले समाधि लगा ले गिरि-कन्दराओं में चला जाय तो भी गीता के सिद्धान्त के अनुसार वह योगी नहीं कहा जा सकता। ऐसे तो संन्यास और योग की साधना अलग-अलग है पर संकल्पों के त्याग में दोनों साधन एक हैं। पूर्वश्लोक में जिस योग की प्रशंसा की गयी है उस योग की प्राप्ति का उपाय आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )