आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
37-47 योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ৷৷6.38৷৷
कच्चित्-क्या; न-नहीं; उभय-दोनों; विभ्रष्ट:-पथ भ्रष्ट; छिन्न-टूटना; अभ्रम्-बादल; इव-सदृश; नश्यति-नष्ट होना; अप्रतिष्ठ:-बिना किसी सहायता के; महा-बाहो-बलिष्ठ भुजाओं वाले श्रीकृष्ण; विमूढ़ः-मोहित; ब्रह्मणः-भगवद्प्राप्ति; पथि–मार्ग पर चलने वाला।
हे महाबाहु कृष्ण! क्या योग से पथ भ्रष्ट और भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित ऐसा व्यक्ति भौतिक एवं आध्यात्मिक सफलताओं से वंचित नहीं होता और छिन्न-भिन्न बादलों की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता? जिसके परिणामस्वरूप वह किसी भी लोक में स्थान नहीं पाता? ৷৷6.38৷৷
(अर्जुन ने पूर्वोक्त श्लोक में ‘कां गतिं कृष्ण गच्छति’ कह कर जो बात पूछी थी , उसी का इस श्लोक में खुलासा पूछते हैं। ‘अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि’ वह सांसारिक प्रतिष्ठा (स्थिति) से तो जानकर रहित हुआ है अर्थात् उसने संसार के सुख-आराम , आदर-सत्कार , यश-प्रतिष्ठा आदि की कामना छोड़ दी है । इनको प्राप्त करने का उसका उद्देश्य ही नहीं रहा है। इस तरह संसार का आश्रय छोड़कर वह परमात्मप्राप्ति के मार्ग पर चला पर जीवित अवस्था में परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई और अन्त समय में साधन से विचलित हो गया अर्थात् परमात्मा की स्मृति नहीं रही। ‘कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति’ ऐसा वह दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ अर्थात् सांसारिक और पारमार्थिक दोनों उन्नतियों से रहित हुआ साधक छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता । तात्पर्य है कि जैसे किसी बादल के टुकड़े ने अपने बादल को तो छोड़ दिया और दूसरे बादल तक वह पहुँचा नहीं । वायु के कारण बीच में ही छिन्नभिन्न हो गया। ऐसे ही साधक ने संसार के आश्रय को तो छोड़ दिया और अन्त समय में परमात्मा की स्मृति नहीं रही । फिर वह नष्ट तो नहीं हो जाता । उसका पतन तो नहीं हो जाता । बादल का दृष्टान्त यहाँ पूरा नहीं बैठता। कारण कि वह बादल का टुकड़ा जिस बादल से चला वह बादल और जिसके पास जा रहा था वह बादल तथा वह स्वयं (बादल का टुकड़ा) ये तीनों एक ही जाति के हैं अर्थात् तीनों ही जड़ हैं परन्तु जिस साधक ने संसार को छोड़ा , वह संसार और जिसकी प्राप्ति के लिये चला , वह परमात्मा तथा वह स्वयं (साधक) ये तीनों एक जाति के नहीं हैं। इन तीनों में संसार जड़ है और परमात्मा तथा स्वयं चेतन हैं। इसलिये पहला आश्रय छोड़ दिया और दूसरा प्राप्त नहीं हुआ इस विषय में ही उपर्युक्त दृष्टान्त ठीक बैठता है। इस श्लोक में अर्जुन के प्रश्न का आशय यह है कि साक्षात् परमात्मा का अंश होने से जीव का अभाव तो कभी हो ही नहीं सकता। अगर इसके भीतर संसार का उद्देश्य होता , संसार का आश्रय होता तो यह स्वर्ग आदि लोकों में अथवा नरकों में तथा पशु-पक्षी आदि आसुरी योनियों में चला जाता पर रहता तो संसार में ही है। उसने संसार का आश्रय छोड़ दिया और उसका उद्देश्य केवल परमात्मप्राप्ति हो गया पर प्राणों के रहते-रहते परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई और अन्तकाल में किसी कारण से उस उद्देश्य के अनुसार साधन में स्थिति भी नहीं रही , परमात्मचिन्तन भी नहीं रहा तो वह वहाँ से भी भ्रष्ट हो गया। ऐसा साधक किस गति को जायगा ? विशेष बात – अगर इस श्लोक में परमात्मा की प्राप्ति से और साधन से भ्रष्ट (च्युत) हुआ ऐसा अर्थ लिया जाय तो ऐसा कहना यहाँ बन ही नहीं सकता। कारण कि आगे जो बादल का दृष्टान्त दिया है वह उपर्युक्त अर्थ के साथ ठीक नहीं बैठता। बादल का टुकड़ा एक बादल को छोड़कर दूसरे बादल की तरफ चला पर दूसरे बादल तक पहुँचने से पहले बीच में ही वायुसे छिन्न-भिन्न हो गया। इस दृष्टान्त में स्वयं बादल के टुकड़े ने ही पहले बादल को छोड़ा है अर्थात् अपनी पहली स्थिति को छोड़ा है और आगे दूसरे बादल तक पहुँचा नहीं तभी वह उभयभ्रष्ट हुआ है परन्तु साधक को तो अभी परमात्मा की प्राप्ति हुई ही नहीं फिर उसको परमात्मा की प्राप्ति से भ्रष्ट (च्युत) होना कैसे कहा जाय ? दूसरी बात साध्य की प्राप्ति होने पर साधक साध्य से कभी च्युत हो ही नहीं सकता अर्थात् किसी भी परिस्थिति में वह साध्य से अलग नहीं हो सकता , उसको छोड़ नहीं सकता। अतः उसको साध्य से च्युत कहना बनता ही नहीं। हाँ , अन्त समय में स्थिति न रहने से , परमात्मा की स्मृति न रहने से उसको साधनभ्रष्ट तो कह सकते हैं पर उभयभ्रष्ट नहीं कह सकते। अतः यहाँ बादल के दृष्टान्त के अनुसार वही उभयभ्रष्ट लेना युक्तिसंगत बैठता है , जिसने संसार के आश्रयको जानकर ही अपनी ओर से छोड़ दिया और परमात्मा की प्राप्ति के लिये चला पर अन्त समय में किसी कारण से परमात्मा की याद नहीं रही , साधन से विचलितमना हो गया। इस तरह संसार और साधन दोनों में उसकी स्थिति न रहने से ही वह उभयभ्रष्ट हुआ है। अर्जुन ने भी 37वें श्लोक में ‘योगाच्चलितमानसः’ कहा है और इस (38वें) श्लोक में ‘अप्रतिष्ठः विमूढो ब्रह्मणः पथि’ और ‘छिन्नाभ्रमिव ‘ कहा है। इसका तात्पर्य यही है कि उसने संसार को छोड़ दिया और परमात्मा की प्राप्ति के साधन से विचलित हो गया मोहित हो गया। पूर्वोक्त सन्देह को दूर करने के लिये अर्जुन आगे के श्लोक में भगवान से प्रार्थना करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )