आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
37-47 योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ৷৷6.39৷৷
एतत्-यह; मे–मेरा; संशयम्-सन्देह; कृष्ण-कृष्ण; छेत्तुम् निवारण करना; अर्हसि तुम कर सकते हो; अशेषतः-पूर्णतया; त्वत्-आपकी अपेक्षा; अन्यः-दूसरा; संशयस्य-सन्देह का; अस्य-इस; छेत्ता-निवारण करने वाला; न-नहीं; हि-निश्चय ही; उपपद्यते-समर्थ होना।।
हे कृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है । कृपया मेरे इस सन्देह का पूर्ण निवारण करें ৷৷6.39৷৷
(‘एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः’ परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य होने से साधक पापकर्मों से तो सर्वथा रहित हो गया इसलिये वह नरकों में तो जा ही नहीं सकता और स्वर्ग का ध्येय न रहने से स्वर्ग में भी जा नहीं सकता। मनुष्ययोनि में आने का उसका उद्देश्य नहीं है , इसलिये वह उसमें भी नहीं आ सकता और परमात्मप्राप्ति के साधन से भी विचलित हो गया। ऐसा साधक क्या छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता , यह मेरा संशय है। ‘त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ‘ इस संशय का सर्वथा छेदन करने वाला अन्य कोई हो नहीं सकता। इसका तात्पर्य है कि शास्त्र की कोई गुत्थी हो , शास्त्र का कोई गहन विषय हो , कोई ऐसी कठिन पंक्ति हो जिसका अर्थ न लगता हो तो उसको शास्त्रों का ज्ञाता , कोई विद्वान् भी समझा सकता है परन्तु योगभ्रष्ट की क्या गति होती है ? इसका उत्तर वह नहीं दे सकता। हाँ योगी कुछ हद तक इसको जान सकता है पर वह सम्पूर्ण प्राणियों की गति-आगति को अर्थात् जाने और आने को नहीं जान सकता क्योंकि वह युञ्जान योगी है अर्थात् अभ्यास करके योगी बना है। अतः वह वहीं तक जान सकता है जहाँ तक उसकी जानने की हद है परन्तु आप तो युक्त योगी हैं अर्थात् आप बिना अभ्यास , परिश्रम के सर्वत्र सब कुछ जानने वाले हैं। आपके समान जानकार कोई हो सकता ही नहीं। आप साक्षात् भगवान् हैं और सम्पूर्ण प्राणियों की गति-आगति को जानने वाले हैं (टिप्पणी प0 375)। अतः इस योगभ्रष्ट के गतिविषयक प्रश्न का उत्तर आप ही दे सकते हैं। आप ही मेरे इस संशय को दूर कर सकते हैं। 38वें श्लोक में अर्जुन ने शङ्का की थी कि संसार से और साधन से च्युत हुए साधक का कहीं पतन तो नहीं हो जाता उसका समाधान करने के लिये भगवान् आगे का श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )