आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
37-47 योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ৷৷6.43৷৷
तत्र-वहाँ; तम्-उस; बुद्धि-संयोगम्-विवेक जागृत होना; लभते–प्राप्त होता है; पौर्व-देहिकम्-पूर्व जन्मों के; यतते-प्रयास करता है; च-भी; ततः-तत्पश्चात; भूयः-पुनः; संसिद्धौ–सिद्धि के लिए; कुरुनन्दन-कुरुपुत्र, अर्जुन।
हे कुरुवंशी! ऐसा जन्म लेकर वे अपने पूर्व जन्म के ज्ञान और दैवी चेतना को पुनः जागृत करते हैं और योग में पूर्णता और सफलता के लिए और अधिक कड़ा परिश्रम कर के उन्नति करने का प्रयास करते हैं । ऐसे योगी पूर्व जन्म के शरीर के द्वारा संग्रह किए हुए दिव्य ज्ञान और चेतना को तथा यौगिक संस्कारों को जाग्रत कर के अर्थात वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात समबुद्धिरूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो कर उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करते हैं ৷৷6.43৷৷
(‘तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ‘ तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों के कुल में जन्म होने के बाद उस वैराग्यवान् साधक की क्या दशा होती है इस बात को बताने के लिये यहाँ ‘तत्र’ पद आया है। ‘पौर्वदेहिकम् ‘ तथा ‘बुद्धिसंयोगम्’ पदों का तात्पर्य है कि संसार से विरक्त उस साधक को स्वर्ग आदि लोकों में नहीं जाना पड़ता उसका तो सीधे योगियों के कुल में जन्म होता है। वहाँ उसको अनायास ही पूर्वजन्म की साधनसामग्री मिल जाती है। जैसे किसी को रास्ते पर चलते-चलते नींद आने लगी और वह वहीं किनारे पर सो गया। अब जब वह सोकर उठेगा तो उतना रास्ता उसका तय किया हुआ ही रहेगा अथवा किसी ने व्याकरण का प्रकरण पढ़ा और बीच में कई वर्ष पढ़ना छूट गया। जब वह फिर से पढ़ने लगता है तो उसका पहले पढ़ा हुआ प्रकरण बहुत जल्दी तैयार हो जाता है , याद हो जाता है। ऐसे ही पूर्वजन्म में उसका जितना साधन हो चुका है , जितने अच्छे संस्कार पड़ चुके हैं वे सभी इस जन्म में प्राप्त हो जाते हैं , जाग्रत् हो जाते हैं। ‘यतते च ततो भूयः संसिद्धौ ‘ एक तो वहाँ उसको पूर्वजन्मकृत बुद्धिसंयोग मिल जाता है और वहाँ का सङ्ग अच्छा होने से साधन की अच्छी बातें मिल जाती हैं साधन की युक्तियाँ मिल जाती हैं। ज्यों-ज्यों नयी युक्तियाँ मिलती हैं , त्यों-त्यों उसका साधन में उत्साह बढ़ता है। इस तरह वह सिद्धि के लिये विशेष तत्परता से यत्न करता है। अगर इस प्रकरण का अर्थ ऐसा लिया जाय कि ये दोनों ही प्रकार के योगभ्रष्ट पहले स्वर्गादि लोकों में जाते हैं। उनमें से जिसमें भोगों की वासना रही है , वह तो शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेता है और जिसमें भोगों की वासना नहीं है वह योगियों के कुलमें जन्म लेता है तो प्रकरण के पदों पर विचार करने से यह बात ठीक नहीं बैठती। कारण कि ऐसा अर्थ लेने से योगियों के कुल में जन्म लेने वाले को पौर्वदेहिक बुद्धिसंयोग अर्थात् पूर्वजन्मकृत साधनसामग्री मिल जाती है , यह कहना नहीं बनेगा। यहाँ पौर्वदेहिक कहना तभी बनेगा , जब बीच में दूसरे शरीर का व्यवधान न हो। अगर ऐसा मानें कि स्वर्गादि लोकों में जाकर फिर वह योगियों के कुल में जन्म लेता है तो उसका पूर्वाभ्यास कह सकते हैं (जैसा कि श्रीमानों के घर जन्म लेने वाले योगभ्रष्ट के लिये आगे के श्लोक में कहा है) पर पौर्वदेहिक नहीं कह सकते। कारण कि उसमें स्वर्गादि का व्यवधान पड़ जायगा और स्वर्गादि लोकों के देह को पौर्वदेहिक बुद्धिसंयोग नहीं कह सकते क्योंकि उन लोकों में भोगसामग्री की बहुलता होने से वहाँ साधन बनने का प्रश्न ही नहीं है। अतः वे दोनों योगभ्रष्ट स्वर्गादि में जाकर आते हैं , यह कहना प्रकरणके अनुसार ठीक नहीं बैठता। दूसरी बात जिसमें भोगों की वासना है उसका तो स्वर्ग आदि में जाना ठीक है परन्तु जिसमें भोगोंकी वासना नहीं है और जो अन्त समय में किसी कारणवश साधन से विचलित हो गया है , ऐसे साधक को स्वर्ग आदि में भेजना तो उसको दण्ड देना है जो कि सर्वथा अनुचित है। पूर्वश्लोक में भगवान ने यह बताया कि तत्त्वज्ञ योगियों के कुल में जन्म लेने वाले को पूर्वजन्मकृत बुद्धिसंयोग प्राप्त हो जाता है और वह साधन में तत्परतासे लग जाता है। अब शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाले योगभ्रष्ट की क्या दशा होती है ? इसका वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )