Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

Previous         Menu         Next

 

आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

37-47  योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा

 

 

bhagavad gita in hindi chapter 6योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ৷৷6.47৷৷

 

योगिनाम्-सभी योगियों में से; अपि-फिर भी; सर्वेषाम् समस्त प्रकार के; मत्-गतेन–मुझ में तल्लीन; अन्त:-आंतरिक; आत्मना-मन के साथ; श्रद्धावान्–पूर्ण विश्वास के साथ; भजतेभक्ति में लीन; य:-जो; माम् मेरे प्रति; स:-वह; मे-मेरे द्वारा; युक्त-तमः-परम योगी; मतः-माना जाता है।

 

सभी योगियों में से जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, जिनका मन सदैव मुझ में तल्लीन रहता है और जो अगाध श्रद्धा से मेरी भक्ति में लीन रहते हैं उन्हें मैं सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ ৷৷6.46৷৷

 

योगिनामपि सर्वेषाम् ‘ जिनमें जडता से सम्बन्ध-विच्छेद करने की मुख्यता है – जो कर्मयोग , सांख्ययोग , हठयोग , मन्त्रयोग , लययोग आदि साधनों के द्वारा अपने स्वरूप की प्राप्ति (अनुभव ) में ही लगे हुए हैं , वे योगी सकाम तपस्वियों , ज्ञानियों और कर्मियों से श्रेष्ठ हैं परन्तु उन सम्पूर्ण योगियों में भी केवल मेरे साथ सम्बन्ध जोड़ने वाला भक्तियोगी सर्वश्रेष्ठ है। ‘यः श्रद्धावान् ‘ जो मेरे पर श्रद्धा और विश्वास करता है अर्थात् जिसके भीतर मेरी ही सत्ता और महत्ता है , ऐसा वह श्रद्धावान् भक्त मेरे में लगे हुए मन से मेरा भजन करता है। ‘मद्गतेनान्तरात्मना मां भजते’ मैं भगवान का हूँ और भगवान् मेरे हैं । इस प्रकार जब स्वयं का भगवान में अपनापन हो जाता है , तब मन स्वतः ही भगवान में लग जाता है , तल्लीन हो जाता है। जैसे विवाह होने पर लड़की का मन स्वाभाविक ही ससुराल में लग जाता है , ऐसे ही भगवान में अपनापन होने पर भक्त का मन स्वाभाविक ही भगवान में लग जाता है , मन को लगाना नहीं पड़ता। फिर खाते-पीते , उठते-बैठते , चलते-फिरते , सोते-जागते आदि सभी क्रियाओं में मन भगवान का ही चिन्तन करता है , भगवान में ही लगा रहता है। जो केवल भगवान का ही हो जाता है , जिसका अपना व्यक्तिगत कुछ नहीं रहता , उसकी साधन-भजन , जप-कीर्तन , श्रवण-मनन आदि सभी पारमार्थिक क्रियाएँ , खाना-पीना , चलना-फिरना , सोना-जागना आदि सभी शारीरिक क्रियाएँ और खेती , व्यापार , नौकरी आदि जीविकासम्बन्धी क्रियाएँ भजन हो जाती हैं। अनन्य भक्त के भजन का स्वरूप भगवान ने 11वें अध्याय के 55वें श्लोक में बताया है कि वह भक्त मेरी प्रसन्नता के लिये ही सभी कर्म करता है , सदा मेरे ही परायण रहता है , केवल मेरा ही भक्त है , संसार का भक्त नहीं है संसार की आसक्ति को सर्वथा छोड़ देता है और सम्पूर्ण प्राणियों में वैरभाव से रहित हो जाता है। ‘स मे युक्ततमो मतः’ संसार से विमुख होकर अपना उद्धार करने में लगने वाले जितने योगी (साधक) हो सकते हैं वे सभी युक्त हैं। जो सगुण – निराकार की अर्थात् व्यापक रूप से सब में परिपूर्ण परमात्मा की शरण लेते हैं , वे सभी युक्ततर हैं परन्तु जो केवल मुझ सगुण भगवान के ही शरण होते हैं , वे मेरी मान्यता में युक्ततम हैं। वह भक्त युक्ततम तभी होगा जब कर्मयोग , ज्ञानयोग , भक्तियोग आदि सभी योग उसमें आ जायँगे।श्रद्धाविश्वासपूर्वक भगवान में तल्लीन हुए मन से भजन करने पर उसमें सभी योग आ जाते हैं। कारण कि भगवान् महायोगेश्वर हैं । सम्पूर्ण योगों के महान् ईश्वर हैं तो महायोगेश्वर के शरण होने पर शरणागत का कौन सा योग बाकी रहेगा ? वह तो सम्पूर्ण योगों से युक्त हो जाता है। इसलिये भगवान् उसको युक्ततम कहते हैं। युक्ततम भक्त कभी योगभ्रष्ट हो ही नहीं सकता। कारण कि उसका मन भगवान को नहीं छोड़ता तो भगवान् भी उसको नहीं छोड़ सकते। अन्त समय में वह पीड़ा , बेहोशी आदि के कारण भगवान को याद न कर सके तो भगवान् उसको याद करते हैं (टिप्पणी प0 385) अतः वह योगभ्रष्ट हो ही कैसे सकता है ? तात्पर्य है कि जो संसार से सर्वथा विमुख होकर भगवान के ही परायण हो गया है , जिसको अपने बल का , उद्योग का , साधन का , सहारा , विश्वास और अभिमान नहीं है , ऐसे भक्त को भगवान् योगभ्रष्ट नहीं होने देते क्योंकि वह भगवान पर ही निर्भर होता है। जिसके अन्तःकरण में संसार का महत्त्व है तथा जिसको अपने पुरुषार्थ का सहारा , विश्वास और अभिमान है , उसी के योगभ्रष्ट होने की सम्भावना रहती है। कारण कि अन्तःकरण में भोगों का महत्त्व होने पर परमात्मा का ध्यान करते हुए भी मन संसार में चला जाता है। इस प्रकार अगर प्राण छूटते समय मन संसारमें चला जाय तो वह योगभ्रष्ट हो जाता है। अगर अपने बल का सहारा विश्वास और अभिमान न हो तो मन संसारमें जानेपर भी वह योगभ्रष्ट नहीं होता। कारण कि ऐसी अवस्था आनेपर (मन संसारमें जानेपर) वह भगवान को पुकारता है। अतः ऐसे भगवान पर निर्भर भक्त का चिन्तन भगवान् स्वयं करते हैं जिससे वह योगभ्रष्ट नहीं होता बल्कि भगवान को प्राप्त हो जाता है। यहाँ भक्तियोगी को सर्वश्रेष्ठ बताने से यह सिद्ध होता है कि दूसरे जितने योगी हैं , उनकी पूर्णता में कुछ न कुछ कमी रहती होगी । संसार का सम्बन्ध-विच्छेद होने से सभी योगी बन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं , निर्विकार हो जाते हैं और परम सुख , परम शान्ति , परम आनन्द का अनुभव करते हैं । इस दृष्टि से तो किसी की भी पूर्णता में कोई कमी नहीं रहती परन्तु जो अन्तरात्मा से भगवान में लग जाता है । भगवान के साथ ही अपनापन कर लेता है उसमें भगवत प्रेम प्रकट हो जाता है। वह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है तथा सापेक्ष वृद्धि , क्षति और पूर्ति से रहित है। ऐसा प्रेम प्रकट होने से ही भगवान ने उसको सर्वश्रेष्ठ माना है। 5वें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने पूछा कि सांख्ययोग और योग इन दोनों में श्रेष्ठ कौन सा है ? तो भगवान ने अर्जुन के प्रश्न के अनुसार वहाँ पर कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया परन्तु अर्जुन के लिये कौन सा योग श्रेष्ठ है यह बात नहीं बतायी। उसके बाद सांख्ययोग और कर्मयोग की साधना कैसी चलती है । इसका विवेचन करके छठे अध्याय के आरम्भ में कर्मयोग की विशेष महिमा कही। जो तत्त्व (समता) कर्मयोग से प्राप्त होता है , वही तत्त्व ध्यानयोग से भी प्राप्त होता है इस बात को लेकर ध्यानयोग का वर्णन किया। ध्यानयोग में मन की चञ्चलता बाधक होती है । इस बात को लेकर अर्जुन ने मन के विषय में प्रश्न किया। इसका उत्तर भगवान ने संक्षेप से दे दिया। फिर अर्जुन ने पूछा कि योग का साधन करने वाला अगर अन्त समय में योग से विचलितमना हो जाय तो उसकी क्या दशा होती है इसके उत्तर में भगवान ने योगभ्रष्ट की गति का वर्णन किया और 46वें श्लोक में योगी की विशेष महिमा कहकर अर्जुन को योगी बनने के लिये स्पष्टरूप से आज्ञा दी परन्तु मेरी मान्यता में कौन सा योग श्रेष्ठ है ? यह बात भगवान ने यहाँ तक स्पष्टरूप से नहीं कही। अब यहाँ अन्तिम श्लोक में भगवान् अपनी मान्यता की बात अपनी ही तरफ से (अर्जुन के पूछे बिना ही) कहते हैं कि मैं तो भक्तियोगी को श्रेष्ठ मानता हूँ ‘स मे युक्ततमो मतः’ परन्तु ऐसा स्पष्टरूप से कहने पर भी अर्जुन भगवान की बात को पकड़ नहीं पाये। इसलिये अर्जुन आगे 12वें अध्याय के आरम्भ में पुनः प्रश्न करेंगे कि आपकी भक्ति करने वाले और अविनाशी निराकार की उपासना करने वालों में श्रेष्ठ कौन सा है तो उत्तर में भगवान् अपने भक्त को ही श्रेष्ठ बतायेंगे , जैसा कि यहाँ बताया है (टिप्पणी प0 386)। विशेष बात कर्मयोगी , ज्ञानयोगी आदि सभी युक्त हैं अर्थात् सभी संसारसे विमुख हैं और समता (चेतनतत्त्व) के सम्मुख हैं। उनमें भी भक्तियोगी (भक्त) को सर्वश्रेष्ठ बताने का तात्पर्य है कि यह जीव परमात्मा का अंश है पर संसार के साथ अपना सम्बन्ध मान कर यह बँध गया है। जब यह संसार शरीर के साथ माने हुए सम्बन्ध को छोड़ देता है तब यह स्वाधीन और सुखी हो जाता है। इस स्वाधीनता का भी एक भोग होता है। यद्यपि इस स्वाधीनता में पदार्थों , व्यक्तियों , क्रियाओं , परिस्थितियों आदि की कोई पराधीनता नहीं रहती तथापि इस स्वाधीनता को लेकर जो सुख होता है अर्थात् मेरे में दुःख नहीं है ,संताप नहीं है , लेशमात्र भी कोई इच्छा नहीं है । यह जो सुख का भोग होता है , यह स्वाधीनता में भी परिच्छिन्नता (पराधीनता) है। इसमें संसार के साथ सूक्ष्म सम्बन्ध बना हुआ है। इसलिये इसको ब्रह्मभूत अवस्था कहा गया है (गीता 18। 54)। जब तक सुख के अनुभव में स्वतन्त्रता मालूम देती है , तब तक सूक्ष्म अहंकार रहता है परन्तु इसी स्थिति में (ब्रह्मभूत अवस्था में) स्थित रहने से वह अहंकार भी मिट जाता है। कारण कि प्रकृति और उसके कार्य के साथ सम्बन्ध न रखने से प्रकृति का अंश अहम् अपने आप शान्त हो जाता है। तात्पर्य है कि कर्मयोगी , ज्ञानयोगी भी अन्त में समय पाकर अहंकार से रहित हो जाते हैं परन्तु भक्तियोगी तो आरम्भ से ही भगवान का हो जाता है। अतः उसका अहंकार आरम्भ में ही समाप्त हो जाता है । ऐसी बात गीता में भी देखने में आती है कि जहाँ सिद्ध कर्मयोगी , ज्ञानयोगी और भक्तियोगी के लक्षणों का वर्णन हुआ है , वहाँ कर्मयोगी और ज्ञानयोगी के लक्षणों में तो करुणा और कोमलता देखने में नहीं आती पर भक्तों के लक्षणों में देखने में आती है। इसलिये सिद्ध भक्तों के लक्षणों में तो ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ‘ (12। 13) ये पद आये हैं पर सिद्ध कर्मयोगी और ज्ञानयोगी के लक्षणों में ऐसे पद नहीं आये हैं। तात्पर्य है कि भक्त पहले से ही छोटा होकर चलता है (टिप्पणी प0 387) अतः उसमें नम्रता , कोमलता भगवान के विधान में प्रसन्नता आदि विलक्षण बातें साधनावस्था में ही आ जाती हैं और सिद्धावस्था में वे बातें विशेषता से आ जाती हैं। इसलिये भक्त में सूक्ष्म अहंकार भी नहीं रहता। इन्हीं कारणों से भगवान ने भक्त को सर्वश्रेष्ठ कहा है। शान्ति , स्वाधीनता आदि का रस चिन्मय होते हुए भी अखण्ड है परन्तु भक्तिरस चिन्यम होते हुए भी प्रतिक्षण वर्धमान है अर्थात् वह नित्य नवीनरूप से बढ़ता ही रहता है । कभी घटता नहीं , मिटता नहीं और पूरा होता नहीं। ऐसे रस की प्रेमानन्द की भूख भगवान को भी है। भगवान की इस भूख की पूर्ति भक्त ही करता है। इसलिये भगवान् भक्त को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। इसमें एक बात और समझने की है कि कर्मयोग और ज्ञानयोग इन दोनों में तो साधक की अपनी निष्ठा (स्थिति) होती है पर भक्त की अपनी कोई स्वतन्त्र निष्ठा नहीं होती। भक्त तो सर्वथा भगवान के ही आश्रित रहता है , भगवान पर ही निर्भर रहता है , भगवान की प्रसन्नता में ही प्रसन्न रहता है ‘तत्सुखे सुखित्वम्।’ उसको अपने उद्धार की भी चिन्ता नहीं होती। हमारा क्या होगा , इधर उसका ध्यान ही नहीं जाता। ऐसे भगवन्निष्ठ भक्त का सारा भार सारी देखभाल भगवान पर ही आती है ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्।’

इस प्रकाऱ ॐ तत् सत् इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें आत्मसंयमयोग नामका छठा अध्याय पूर्ण हुआ।।6।।

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥6॥

 

 

 

 

Be a part of this Spiritual family by visiting more spiritual articles on:

The Spiritual Talks

For more divine and soulful mantras, bhajan and hymns:

Subscribe on Youtube: The Spiritual Talks

For Spiritual quotes , Divine images and wallpapers  & Pinterest Stories:

Follow on Pinterest: The Spiritual Talks

For any query contact on:

E-mail id: thespiritualtalks01@gmail.com

 

 

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!