मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
त्याग का विषय
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।।18.9।।
कार्यम्-कर्त्तव्य के रूप में; इति-इस प्रकार; एव-निःसन्देह; यत्-जो ; कर्म-कर्म; नियतम् – निश्चित ; क्रियते-किया जाता है; अर्जुन – हे अर्जुन; सङ्गं-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्याग कर; फलम्-फल; च-भी; एव-निश्चय ही; सः-वह; त्यागः-त्याग; सात्त्विकः-सत्वगुणी; मतः-मेरे मत से।
हे अर्जुन ! जब कोई मनुष्य कर्मों का निर्वाह कर्त्तव्य समझ कर और फल की आसक्ति से रहित होकर करता है तब उसका त्याग सत्वगुणी कहलाता है अर्थात ‘केवल कर्तव्य मात्र करना है’ अथवा “कर्म करना कर्तव्य है” – ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति और फलका त्याग करके किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है।।18.9।।
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन – यहाँ ‘कार्यम्’ पद के साथ ‘इति’ और ‘एव’ ये दो अव्यय लगाने से यह अर्थ निकलता है कि केवल कर्तव्यमात्र करना है। इसको करने में कोई फलासक्ति नहीं , कोई स्वार्थ नहीं और कोई क्रियाजन्य सुखभोग भी नहीं। इस प्रकार कर्तव्यमात्र करने से कर्ता का उस कर्म से सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। ऐसा होने से वह कर्म बन्धनकारक नहीं होता अर्थात् संसार के साथ सम्बन्ध नहीं जुड़ता। कर्म तथा उसके फल में आसक्त होने से ही बन्धन होता है – फले सक्तो निबध्यते (गीता 5। 12)।शास्त्रविहित कर्मों में भी देश , काल , वर्ण , आश्रम , परिस्थिति के अनुसार जिस-जिस कर्म में जिस-जिस की नियुक्ति की जाती है वे सब नियत कर्म कहलाते हैं । जैसे – साधु को ऐसा करना चाहिये , गृहस्थ को ऐसा करना चाहिये , ब्राह्मण को अमुक काम करना चाहिये , क्षत्रिय को अमुक काम करना चाहिये इत्यादि। उन कर्मों को प्रमाद , आलस्य , उपेक्षा , उदासीनता आदि दोषों से रहित होकर तत्परता और उत्साहपूर्वक करना चाहिये। इसीलिये भगवान कर्मयोग के प्रसङ्ग में जगह-जगह समाचर शब्द दिया है (गीता 3। 9? 19)। सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव – सङ्ग के त्याग का तात्पर्य है कि कर्म , कर्म करने के औजार (साधन) आदि में आसक्ति , प्रियता , ममता आदि न हो और फल के त्याग का तात्पर्य है कि कर्म के परिणाम के साथ सम्बन्ध न हो अर्थात् फल की इच्छा न हो। इन दोनों का तात्पर्य है कि कर्म और फल में आसक्ति तथा इच्छा का त्याग हो। स त्यागः सात्त्विको मतः (टिप्पणी प0 877) — कर्म और फलमें आसक्ति तथा कामनाका त्याग करके कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करनेसे वह त्याग सात्त्विक हो जाता है। राजस त्यागमें कायक्लेशके भयसे और,तामस त्यागमें मोहपूर्वक कर्मोंका स्वरुपसे त्याग किया जाता है परन्तु सात्त्विक त्यागमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं किया जाता? प्रत्युत कर्मोंको सावधानी एवं तत्परतासे? विधिपूर्वक? निष्कामभावसे किया जाता है। सात्त्विक त्यागसे कर्म और कर्मफलरूप शरीरसंसारसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। राजस और तामस त्यागमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेसे केवल बाहरसे कर्मों से सम्बन्धविच्छेद दिखता है परन्तु वास्तव में (भीतर से) सम्बन्धविच्छेद नहीं होता। इसका कारण यह है कि शरीर के कष्ट के भय से कर्मों का त्याग करने से कर्म तो छूट जाते हैं पर अपने सुख और आराम के साथ सम्बन्ध जुड़ा ही रहता है। ऐसे ही मोहपूर्वक कर्मों का त्याग करने से कर्म तो छूट जाते हैं पर मोह के साथ सम्बन्ध जुड़ा रहता है। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मों का स्वरूप से त्याग करने पर बन्धन होता है और कर्मों को तत्परता से विधिपूर्वक करने पर मुक्ति (सम्बन्धविच्छेद) होती है। छठे श्लोक में ‘एतानि’ और ‘अपि तु’ पदों से कहे गये यज्ञ , दान , तप आदि शास्त्रविहित कर्मों के करने में और शास्त्रनिषिद्ध तथा काम्य कर्मों का त्याग करने में क्या भाव होना चाहिये ? यह आगे के श्लोक में बताते हैं।