The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद

 

 

Moksha Sanyas Yog-Chapter 18 Bhagawad Gitaयया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।

अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।18.31।।

 

यया – जिसके द्वारा; धर्मम्-धर्म को; अधर्मम्-अधर्म को; च और; कार्यम्-उचित आचरण; च-और; अकार्यम्-अनुचित आचरण; एव–निश्चय ही; च-और; अयथावत्-विचलित; प्रजानाति-भेद करना; बुद्धिः-बुद्धि; सा-वह; पार्थ-पृथा पुत्र, अर्जुन; राजसी-रजोगुण।

 

हे पार्थ ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म – अधर्म तथा  कर्तव्य – अकर्तव्य अर्थात उचित और अनुचित आचरण को यथावत् नहीं जानता है, वह बुद्धि राजसी है।।18.31।।

 

यया धर्ममधर्मं च – शास्त्रों ने जो कुछ भी विधान किया है वह धर्म है अर्थात् शास्त्रों ने जिसकी आज्ञा दी है और जिससे परलोक में सद्गति होती है वह धर्म है। शास्त्रों ने जिसका निषेध किया है वह अधर्म है अर्थात् शास्त्रों ने जिसकी आज्ञा नहीं दी है और जिससे परलोक में दुर्गति होती है वह अधर्म है। जैसे अपने माता-पिता , बड़े-बूढ़ों की सेवा करने में , दूसरों को सुख पहुँचाने में , दूसरों का हित करने की चेष्टा में अपने तन , मन , धन , योग्यता , पद , अधिकार , सामर्थ्य आदि को लगा देना धर्म है। ऐसे ही कुआँ-बावड़ी खुदवाना , धर्मशाला , औषधालय बनवाना , प्याऊ-सदावर्त चलाना ; देश , ग्राम , मोहल्ले के अनाथ तथा गरीब बालकों की और समाज की उन्नति के लिये अपनी कहलाने वाली चीजों को आवश्यकतानुसार उनकी ही समझकर निष्कामभाव से उदारतापूर्वक खर्च करना धर्म है। इसके विपरीत अपने स्वार्थ , सुख , आराम के लिये दूसरों की धन-सम्पत्ति , हक , पद , अधिकार छीनना ; दूसरों का अपकार , अहित , हत्या आदि करना ; अपने तन , मन , धन , योग्यता , पद , अधिकार आदि के द्वारा दूसरों को दुःख देना अधर्म है। वास्तव में धर्म वह है जो जीव का कल्याण कर दे और अधर्म वह है जो जीव को बन्धन में डाल दे। कार्यं चाकार्यमेव च – वर्ण , आश्रम , देश , काल , लोकमर्यादा , परिस्थिति आदि के अनुसार शास्त्रों ने हमारे लिये जिस कर्म को करने की आज्ञा दी है वह कर्म हमारे लिये कर्तव्य है। अवसर पर प्राप्त हुए कर्तव्य का पालन न करना तथा न करने लायक काम को करना अकर्तव्य है। जैसे भिक्षा माँगना , यज्ञ, विवाह आदि कराना और उनमें दान-दक्षिणा लेना आदि कर्म ब्राह्मण के लिये तो कर्तव्य हैं पर क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र के लिये अकर्तव्य हैं। इसी प्रकार शास्त्रों ने जिन-जिन वर्ण और आश्रमों के लिये जो-जो कर्म बताये हैं वे सब उन-उन के लिये कर्तव्य हैं और जिनके लिये निषेध किया है उनके लिये वे सब अकर्तव्य हैं। जहाँ नौकरी करते हैं वहाँ ईमानदारी से अपना पूरा समय देना , कार्य को सुचारु रूप से करना , जिस तरह से मालिक का हित हो ऐसा काम करना – ये सब कर्मचारियों के लिये कर्तव्य हैं। अपने स्वार्थ , सुख और आराम में फँसकर कार्य में पूरा समय न लगाना , कार्य को तत्परता से न करना , थोड़ी सी घूस (रिश्वत) मिलने से मालिक का बड़ा नुकसान कर देना , दस-पाँच रुपयों के लिये मालिक का अहित कर देना – ये सब कर्मचारियों के लिये अकर्तव्य हैं। राजकीय जितने अफसर हैं उनको राज्य का प्रबन्ध करने के लिये , सबका हित करने के लिये ही ऊँचे पद पर रखा जाता है। इसीलिये अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके जिस प्रकार सब लोगों का हित हो सकता है ; सबको सुख , आराम , शान्ति मिल सकती है – ऐसे कामों को करना उनके लिये कर्तव्य है। अपने तुच्छ स्वार्थ में आकर राज्य का नुकसान कर देना , लोगों को दुःख देना आदि उनके लिये अकर्तव्य है। सात्त्विकी बुद्धि में कही हुई प्रवृत्ति-निवृत्ति , भय-अभय और बन्ध-मोक्ष को भी यहाँ ‘एव च’ पदों से ले लेना चाहिये। अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी – राग होने से राजसी बुद्धि में स्वार्थ , पक्षपात , विषमता आदि दोष आ जाते हैं। इन दोषों के रहते हुए बुद्धि धर्म-अधर्म , कार्य-अकार्य , भय-अभय , बन्ध-मोक्ष आदि के वास्तविक तत्त्व को ठीक-ठीक नहीं जान सकती। अतः किसी वर्ण-आश्रम के लिये किस परिस्थिति में कौन सा धर्म कहा जाता है और कौन सा अधर्म कहा जाता है ? वह धर्म किस वर्णआश्रम के लिये कर्तव्य हो जाता है और किसके लिये अकर्तव्य हो जाता है ? किससे भय होता है और किससे मनुष्य अभय हो जाता है ? इन बातों को जो बुद्धि ठीक-ठीक नहीं जान सकती वह बुद्धि राजसी है। जब सांसारिक वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति , क्रिया , पदार्थ आदि में राग (आसक्ति) हो जाता है तो वह राग दूसरों के प्रति द्वेष पैदा करने वाला हो जाता है। फिर जिसमें राग हो जाता है उसके दोषों को और जिसमें द्वेष हो जाता है उसके गुणों को मनुष्य नहीं देख सकता। राग और द्वेष – इन दोनों में संसार के साथ सम्बन्ध जुड़ता है। संसार के साथ सम्बन्ध जुड़ने पर मनुष्य संसार को नहीं जान सकता। ऐसे ही परमात्मा से अलग रहने पर मनुष्य परमात्मा को नहीं जान सकता। संसार से अलग होकर ही संसार को जान सकता है और परमात्मा से अभिन्न होकर ही परमात्मा को जान सकता है। वह अभिन्नता चाहे प्रेम से हो चाहे ज्ञान से हो। परमात्मा से अभिन्न होने में सात्त्विकी बुद्धि ही काम करती है क्योंकि सात्त्विकी बुद्धि में विवेकशक्ति जाग्रत् रहती है परन्तु राजसी बुद्धि में वह विवेकशक्ति राग के कारण धुँधली सी रहती है। जैसे जल में मिट्टी घुल जाने से जल में स्वच्छता , निर्मलता नहीं रहती। ऐसे ही बुद्धि में रजोगुण आ जाने से बुद्धि में उतनी स्वच्छता , निर्मलता नहीं रहती। इसलिये धर्म-अधर्म आदि को समझने में कठिनता पड़ती है। राजसी बुद्धि होने पर मनुष्य जिस-जिस विषय में प्रवेश करता है उसको उस विषय को समझने में कठिनता पड़ती है। उस विषय के गुण-दोषों को ठीक-ठीक समझे बिना वह ग्रहण और त्याग को अपने आचरण में नहीं ला सकता अर्थात् वह ग्राह्य वस्तु का ग्रहण नहीं कर सकता और त्याज्य वस्तु का त्याग नहीं कर सकता।  अब तामसी बुद्धि के लक्षण बताते हैं।

 

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