मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।18.35।।
यया-जिससे; स्वप्नम्-स्वप्न; भयम्-भय; शोकम् – शोक; विषादम्-दुख; मदम्-मोह; एव – वास्तव में; च-और; न – कभी नहीं; विमुञ्चति-त्यागती है; दुर्मेधा-दुर्बुद्धि;धृतिः – संकल्प; सा-वह; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; तामसी-तमोगुणी।
जिस धृति या दर्बद्धिपूर्ण संकल्प के द्वारा मनुष्य स्वप्न , निद्रा , भय , त्रास , शोक , दुःख और मद को नहीं छोड़ता अर्थात् विषय सेवन को ही अपने लिये बहुत बड़ा पुरुषार्थ मानकर उन्मत्त या पागल की भाँति मद या मोह को ही मन में सदा कर्तव्य रूप से समझता हुआ जो दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य इन सबको नहीं छोड़ता यानी धारण ही किये रहता है उसकी जो धृति है वह तामसी मानी गयी है।।18.35।।
यया स्वप्नं भयं ৷৷. सा पार्थ तामसी – तामसी धारणशक्ति के द्वारा मनुष्य ज्यादा निद्रा , बाहर और भीतर का भय , चिन्ता , दुःख और घमण्ड – इनका त्याग नहीं करता प्रत्युत इन सबमें रचा-पचा रहता है। वह कभी ज्यादा नींद में पड़ा रहता है ; कभी मृत्यु , बीमारी , अपयश , अपमान , स्वास्थ्य , धन आदि के भय से भयभीत होता रहता है , कभी शोक-चिन्ता में डूबा रहता है , कभी दुःख में मग्न रहता है और कभी अनुकूल पदार्थों के मिलने से घमण्ड में चूर रहता है। निद्रा , भय , शोक आदि के सिवाय प्रमाद , अभिमान , दम्भ , द्वेष , ईर्ष्या आदि दुर्गुणों को तथा हिंसा , दूसरों का अपकार करना , उनको कष्ट देना , उनके धन का किसी तरह से अपहरण करना आदि दुराचरणों को भी ‘एव च’ पदों से मान लेना चाहिये। इस प्रकार निद्रा , भय आदि को और दुर्गुण-दुराचारों को पकड़े रहने वाली अर्थात् उनको न छोड़ने वाली धृति तामसी होती है। भगवान ने 33वें – 34वें श्लोकों में ‘धारयते’ पद से सात्त्विक और राजस मनुष्य के द्वारा क्रमशः सात्त्विकी और राजसी धृति को धारण करने की बात कही है परन्तु यहाँ तामस मनुष्य के द्वारा तामसी धृति को धारण करने की बात नहीं कही। कारण यह है कि जिसकी बुद्धि बहुत ही दुष्टा है ; जिसकी बुद्धि में अज्ञता , मूढता भरी हुई है ऐसा मिलन अन्तःकरण वाला तामस मनुष्य निद्रा , भय , शोक आदि भावों को छोड़ता ही नहीं। वह उनमें स्वाभाविक ही रचा-पचा रहता है। सात्त्विकी , राजसी और तामसी – इन तीनों धृतियों के वर्णन में राजसी और तामसी धृति में तो क्रमशः ‘फलाकाङ्क्षी’ और ‘दुर्मेधाः’ पद से कर्ता का उल्लेख किया है पर सात्त्विकी धृति में कर्ता का उल्लेख किया ही नहीं। इसका कारण यह है कि सात्त्विकी धृति में कर्ता निर्लिप्त रहता है अर्थात् उसमें कर्तृत्व का लेप नहीं होता परन्तु राजसी और तामसी धृति में कर्ता लिप्त होता है। विशेष बात – मानवशरीर विवेकप्रधान है। मनुष्य जो कुछ करता है उसे वह विचारपूर्वक ही करता है। वह ज्यों ही विचारपूर्वक काम करता है त्यों ही विवेक ज्यादा स्पष्ट प्रकट होता है। सात्त्विक मनुष्य की धृति (धारणशक्ति) में यह विवेक साफ-साफ प्रकट होता है कि मुझे तो केवल परमात्मा की तरफ ही चलना है। राजस मनुष्य की धृति में संसार के पदार्थों और भोगों में राग की प्रधानता होने के कारण विवेक वैसा स्पष्ट नहीं होता फिर भी इस लोक में सुख-आराम , मान-आदर मिले और परलोक में अच्छी गति मिले , भोग मिले – इस विषय में विवेक काम करता है और आचरण भी मर्यादा के अनुसार ही होता है परन्तु तामस मनुष्य की धृति में विवेक बिलकुल ही दब जाता है। तामस भावों में उसकी इतनी दृढ़ता हो जाती है कि उसे उन भावों को धारण करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। वह तो निद्रा , भय आदि तामस भावों में ही रचापचा रहता है।पारमार्थिक मार्गमें क्रिया इतना काम नहीं करती जितना अपना उद्देश्य काम करता है। स्थूल क्रिया की प्रधानता स्थूलशरीर में चिन्तन की प्रधानता सूक्ष्मशरीर में और स्थिरता की प्रधानता कारणशरीर में होती है यह सब क्रिया ही है। क्रिया तो शरीरों में होती है पर मेरे को तो केवल पारमार्थिक मार्ग पर ही चलना है – ऐसा उद्देश्य या लक्ष्य स्वयं (चेतनस्वरूप) में ही रहता है। स्वयं में जैसा लक्ष्य होता है उसके अनुसार स्वतः क्रियाएँ होती हैं। जो चीज स्वयं में रहती है वह कभी बदलती नहीं। उस लक्ष्य की दृढ़ता के लिये सात्त्विकी बुद्धि की आवश्यकता है और बुद्धि के निश्चय को अटल रखने के लिये सात्त्विकी धृति की आवश्यकता है। इसलिये यहाँ 30वें से 35वें श्लोक तक कुल छः श्लोकों में छः बार पार्थ सम्बोधन का प्रयोग करके भगवान साधकमात्र के प्रतिनिधि अर्जुन को चेताते हैं कि पृथानन्दन लौकिक वस्तुओं और व्यक्तियों के लिये चिन्ता न करके तुम अपने लक्ष्य को दृढ़ता से धारण किये रहो। अपने में कभी भी राजस-तामस भाव न आने पायें – इसके लिये निरन्तर सजग रहो। मनुष्यों की कर्मों में प्रवृत्ति सुख के लोभ से ही होती है अर्थात् सुखकर्मसंग्रह में कारण है। अतः आगे के चार श्लोकों में सुख के भेद बताते हैं।