The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

फल सहित वर्ण धर्म का विषय

 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।18.47।।

 

श्रेयान् – श्रेष्ठ; स्वधर्मः-अपने निश्चित व्यवसायी कार्य; विगुणः-त्रुटिपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना; परधार्मात्-दूसरों की अपेक्षा; सु-अनुष्ठितात्-कुशलतापूर्वक; स्वभावनियतम्-जन्म जात स्वभाव के अनुसार; कर्मकुर्वन् – करने से; न – कभी नहीं; आप्नोति-प्राप्त करता है; किल्बिषम्- पाप को।

 

 अपने धर्म का पालन त्रुटिपूर्ण ढंग से करना अन्य के कार्यों को उपयुक्त ढंग से करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वाभाविक कर्तव्यों का पालन करने से मनुष्य पाप अर्जित नहीं करता अर्थात स्वभाव से नियत किये गये कर्म को करते हुए मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त करता।।18.47।।

 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् – यहाँ स्वधर्म शब्द से वर्णधर्म ही मुख्यता से लिया गया है। परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य वाला मनुष्य स्व को अर्थात् अपने को जा मानता है । उसका धर्म (कर्तव्य) स्वधर्म है। जैसे कोई अपने को मनुष्य मानता है तो मनुष्यता का पालन करना उसके लिये स्वधर्म है। ऐसे ही कर्मों के अनुसार अपने को कोई विद्यार्थी या अध्यापक मानता है तो पढ़ना या पढ़ाना उसका स्वधर्म हो जायगा। कोई अपने को साधक मानता है तो साधन करना उसका स्वधर्म हो जायगा। कोई अपने को भक्त , जिज्ञासु और सेवक मानता है तो भक्ति , जिज्ञासा और सेवा उसका स्वधर्म हो जायगा। इस प्रकार जिसकी जिस कार्य में नियुक्ति हुई है और जिसने जिस कार्य को स्वीकार किया है उसके लिये उस कार्य को साङ्गोपाङ्ग करना स्वधर्म है। ऐसे ही मनुष्य जन्म और कर्म के अनुसार अपने को जिस वर्ण और आश्रम का मानता है उसके लिये उसी वर्ण और आश्रम का धर्म स्वधर्म हो जायगा। ब्राह्मणवर्ण में उत्पन्न हुआ अपने को ब्राह्मण मानता है तो यज्ञ कराना , दान लेना , पढ़ाना आदि जीविकासम्बन्धी कर्म उसके लिये स्वधर्म हैं। क्षत्रिय के लिये युद्ध करना , ईश्वरभाव आदि ; वैश्य के लिये कृषि , गौरक्षा , व्यापार आदि और शूद्र के लिये सेवा – ये जीविकासम्बन्धी कर्म स्वधर्म हैं। ऐसा अपना स्वधर्म अगर दूसरों के धर्म की अपेक्षा गुणरहित है अर्थात् अपने स्वधर्म में गुणों की कमी है। उसका अनुष्ठान करने में कमी रहती है तथा उसको कठिनता से किया जाता है परन्तु दूसरे का धर्म गुणों से परिपूर्ण है , दूसरे के धर्म का अनुष्ठान साङ्गोपाङ्ग है और करने में बहुत सुगम है तो भी अपने स्वधर्म का पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ है। शास्त्र ने जिस वर्ण के लिये जिन कर्मों का विधान किया है उस वर्ण के लिये वे कर्म स्वधर्म हैं और उन्हीं कर्मों का जिस वर्ण के लिये निषेध किया है उस वर्ण के लिये वे कर्म परधर्म हैं। जैसे यज्ञ कराना , दान लेना आदि कर्म ब्राह्मण के लिये शास्त्र की आज्ञा होने में स्वधर्म हैं परन्तु वे ही कर्म क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र के लिये शास्त्र का निषेध होने से परधर्म हैं परन्तु आपातकाल को लेकर शास्त्रों ने जीविकासम्बन्धी जिन कर्मों का निषेध नहीं किया है वे कर्म सभी वर्णों के लिये स्वधर्म हो जाते हैं। जैसे आपातकाल में अर्थात् आपत्ति के समय वैश्य के खेती , व्यापार आदि जीविकासम्बन्धी कर्म ब्राह्मण के लिये भी स्वधर्म हो जाते हैं (टिप्पणी प0 941)। ब्राह्मण के शम , दम आदि जितने भी स्वभावज कर्म हैं वे सामान्य धर्म होने से चारों वर्णों के लिये स्वधर्म हैं। कारण कि उनका पालन करने के लिये सभी को शास्त्र की आज्ञा है। उनका किसी के लिये भी निषेध नहीं है। मनुष्यशरीर केवल परमात्मप्राप्ति के लिये ही मिला है। इस दृष्टि से मनुष्य मात्र साधक है। अतः दैवीसम्पत्ति के जितने भी सद्गुण-सदाचार हैं वे सभी के अपने होने से मनुष्यमात्र के लिये स्वधर्म हैं परन्तु आसुरीसम्पत्ति के जितने भी दुर्गुण-दुराचार हैं वे मनुष्यमात्र के लिये न तो स्वधर्म हैं और न परधर्म ही हैं । वे तो सभी के लिये निषिद्ध हैं , त्याज्य हैं क्योंकि वे अधर्म हैं। दैवीसम्पत्ति के गुणों को धारण करने में और आसुरीसम्पत्ति के पापकर्मों का त्याग करने में सभी स्वतन्त्र हैं , सभी सबल हैं , सभी अधिकारी हैं । कोई भी परतन्त्र , निर्बल तथा अनधिकारी नहीं है। हाँ , यह बात अलग है कि कोई सद्गुण किसी के स्वभाव के अनुकूल पड़ता है और कोई सद्गुण किसी के स्वभाव के अनुकूल पड़ता है। जैसे किसी के स्वभाव में दया मुख्य होती है और किसी के स्वभाव में उपेक्षा मुख्य होती है , किसी का स्वभाव स्वतः क्षमा करने का होता है और किसी का स्वभाव माँगने पर क्षमा करने का होता है , किसी के स्वभाव में उदारता स्वाभाविक होती है और किसी के स्वभाव में उदारता विचारपूर्वक होती है आदि। ऐसा भेद रह सकता है। स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् – शास्त्रों में विहित और निषिद्ध – दो तरह के वचन आते हैं। उनमें विहित कर्म करने की आज्ञा है और निषिद्ध कर्म करने का निषेध है। उन विहित कर्मों में भी शास्त्रों ने जिस वर्ण , आश्रम , देश , काल , घटना , परिस्थिति , वस्तु , संयोग , वियोग आदि को लेकर अलग-अलग जो कर्म नियुक्त किये हैं उस वर्ण , आश्रम आदि के लिये वे नियत कर्म कहलाते हैं। सत्त्व , रज और तम – इन तीनों गुणों को लेकर जो स्वभाव बनता है उस स्वभाव के अनुसार जो कर्म नियत किये जाते हैं वे स्वभावनियत कर्म कहलाते हैं। उन्हीं को स्वभावप्रभव , स्वभावज , स्वधर्म , स्वकर्म और सहज कर्म कहा है। तात्पर्य यह है कि जिस वर्ण , जाति में जन्म लेने से पहले इस जीव के जैसे गुण और कर्म रहे हैं , उन्हीं गुणों और कर्मों के अनुसार उस वर्ण में उसका जन्म हुआ है। कर्म तो करने पर समाप्त हो जाते हैं पर गुणरूप से उनके संस्कार रहते हैं। जन्म होने पर उन गुणों के अनुसार ही उसमें गुण और पालनीय आचरण स्वाभाविक ही उत्पन्न होते हैं अर्थात् उनको न तो कहीं से लाना पड़ता है और न उनके लिये परिश्रम ही करना पड़ता है। इसलिये उनको स्वभावज और स्वभावनियत कहा है। यद्यपि सर्वारम्भा ही दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः (गीता 18। 48) के अनुसार कर्ममात्र में दोष आता ही है तथापि स्वभाव के अनुसार शास्त्र ने जिस वर्ण के लिये जिन कर्मों की आज्ञा दी है उन कर्मों को अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके केवल दूसरों के हित की दृष्टि से किया जाय तो उस वर्ण के व्यक्ति को उन कर्मों का दोष (पाप) नहीं लगता। ऐसे ही जो केवल शरीरनिर्वाह के लिये कर्म करता है उसको भी पाप नहीं लगता – शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् (गीता 4। 21)। विशेष बात- यहाँ एक बड़ी भारी शङ्का पैदा होती है कि एक आदमी कसाई के घर पैदा होता है तो उसके लिये कसाई का कर्म सहज (साथ ही पैदा हुआ) है , स्वाभाविक है। स्वभावनियत कर्म करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता तो क्या कसाई के कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये ? अगर उसको कसाई के कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये तो फिर निषिद्ध आचरण कैसे छूटेगा ? कल्याण कैसे होगा ? इसका समाधान है कि स्वभावनियत कर्म वह होता है जो विहित हो , किसी रीति से निषिद्ध नहीं हो अर्थात् उससे किसी का भी अहित न होता हो। जो कर्म किसी के लिये भी अहितकारक होते हैं वे सहज कर्म में नहीं लिये जाते। वे कर्म आसक्ति , कामना के कारण पैदा होते हैं। निषिद्ध कर्म चाहे इस जन्म में बना हो चाहे पूर्वजन्म में बना हो है वह दोषवाला ही। दोषभाग त्याज्य होता है क्योंकि दोष आसुरीसम्पत्ति है और गुण दैवीसम्पत्ति है। पहले जन्म के संस्कारों से भी दुर्गुण- दुराचारों में रुचि हो सकती है पर वह रुचि दुर्गुण-दुराचार करने में बाध्य नहीं करती। विवेक , सद्विचार , सत्सङ्ग , शास्त्र आदि के द्वारा उस रुचि को मिटाया जा सकता है। युक्ति से भी देखा जाय तो कोई भी प्राणी अपना अहित नहीं चाहता , अपनी हत्या नहीं चाहता। अतः किसी का अहित करने का , हत्या करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। मनुष्य अपने लिये अच्छा काम चाहता है तो उसे दूसरों के लिये भी अच्छा काम करना चाहिये। शास्त्रों में भी देखा जाय तो यही बात है कि जिसमें दोष होते हैं , पाप होते हैं , अन्याय होते हैं वे कर्म वैकृत हैं , प्राकृत नहीं हैं अर्थात् वे विकार से पैदा हुए हैं स्वभावसे नहीं। तीसरे अध्याय में अर्जुन ने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पापकर्म करता है तो भगवान ने कहा कि कामना के वश में होकर भी मनुष्य पाप करता है (3। 36 — 37)। कामना को लेकर , क्रोध को लेकर , स्वार्थ और अभिमान को लेकर जो कर्म किये जाते हैं वे कर्म शुद्ध नहीं होते अशुद्ध होते हैं। परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य से जो कर्म किये जाते हैं उन कर्मों में भिन्नता तो रहती है पर वे दोषी नहीं होते। ब्राह्मण के घर जन्म होगा तो ब्राह्मणोचित कर्म होंगे , शूद्र के घर जन्म होगा तो शूद्रोचित कर्म होंगे पर दोषीभाग किसी में भी नहीं होगा। दोषीभाग सहज नहीं है , स्वभावनियत नहीं है। दोषयुक्त कर्म स्वाभाविक हो सकते हैं पर स्वभावनियत नहीं हो सकते। एक ब्राह्मण को परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाय तो प्राप्ति होने के बाद भी वह वैसी ही पवित्रता से भोजन बनायेगा जैसी पवित्रता से ब्राह्मण को रहना चाहिये , वैसी ही पवित्रता से रहेगा। ऐसे ही एक अन्त्यज को परमात्मा की प्राप्ति हो जाय तो वह जूठन भी खा लेगा जैसे पहले रहता था , वैसे ही रहेगा परन्तु ब्राह्मण ऐसा नहीं करेगा क्योंकि पवित्रता से भोजन करना उसका स्वभावनियत कर्म है जबकि अन्त्यज के लिये जूठन खाना दोषी नहीं बताया गया है। इसलिये सिद्ध महापुरुषों में एक-एक से विचित्र कर्म होते हैं पर वे दोषी नहीं होते। उनका स्वभाव राग-द्वेष से रहित होने के कारण शुद्ध होता है।पहले के किसी पापकर्म से कसाई के घर जन्म हो गया तो वह जन्म पाप का फल भोगने के लिये हुआ है पाप करने के लिये नहीं। पाप का फल जाति , आयु और भोग बताया गया है नया कर्म नहीं बताया गया – सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः। (योगदर्शन 2। 13)। कर्म करने में वह स्वतन्त्र है। यदि उसका चित्त शुद्ध हो जाय तो वह कसाई आदि का कर्म कर नहीं सकेगा। एक सन्त से किसी ने कहा कि अगर कोई अपना धर्म पशुओं को मारना ही मानता है तो वह क्या करे ? तो उन सन्त ने बड़ी दृढ़ता से कहा कि यदि वह अपने धर्म के अनुसार ही लगातार तीन वर्ष तक पवित्रतापूर्वक भगवान के नाम का , अपने इष्ट के नाम का जप करे तो फिर वह मार नहीं सकेगा। कारण कि उसका पूर्वजन्म का अथवा यहाँ का जो स्वभाव पड़ा हुआ है वह स्वभाव दोषी है। यदि सच्चे हृदय से ठीक परमात्मतत्त्व की प्राप्ति चाहेगा तो वह कसाई का काम नहीं कर सकेगा। उससे अपने आप ग्लानि होगी , उपरति होगी। बिना कहे-सुने उसमें सद्गुण स्वाभाविक आयेंगे। रामचरितमानस में शबरी के प्रसङ्ग में आता है – भगवान राम ने शबरी से कहा – नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।। (3। 35। 4)। फिर नौ प्रकार की भक्ति कहकर अन्त में भगवान ने कहा – सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें (3। 36। 4)। तात्पर्य यह है कि भक्ति नौ प्रकार की होती है। इसका शबरी को पता ही नहीं है परन्तु शबरी में सब प्रकार की भक्ति स्वाभाविक ही थी। सत्सङ्ग , भजन , ध्यान आदि करने से जिन गुणों का हमें ज्ञान नहीं है वे गुण भी आ जाते हैं। जो केवल दूसरों को सुनाने के लिये याद करते हैं वे दूसरों को तो बता देंगे पर आचरण में वे गुण तभी आयेंगे जब अपना स्वभाव शुद्ध करके परमात्मा की तरफ चलेंगे। इसलिये मनुष्य को अपना स्वभाव और अपने कर्म शुद्ध , निर्मल बनाने चाहिये। इसमें कोई परतन्त्र नहीं है , कोई निर्बल नहीं है , कोई अयोग्य नहीं है , कोई अपात्र नहीं है। मनुष्य के मन में ऐसा आता है कि मैं कर्तव्य का पालन करने में और सद्गुणों को लाने में असमर्थ हूँ परन्तु वास्तव में वह असमर्थ नहीं है। सांसारिक भोगों की आदत और पदार्थों के संग्रह की रुचि होने से ही असमर्थता का अनुभव होता है। उद्धार के योग्य समझकर ही भगवान ने मनुष्यशरीर दिया है। इसलिये अपने स्वभाव का सुधार करके अपना उद्धार करने में प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्र है , सबल है , योग्य है , समर्थ है। स्वभाव का सुधार करना असम्भव तो है ही नहीं , कठिन भी नहीं है। मनुष्य को मुक्ति का द्वार कहा गया है – साधन धाम मोच्छ कर द्वारा (मानस 7। 43। 4)। यदि स्वभाव का सुधार करना असम्भव होता तो इसे मुक्ति का द्वार कैसे कहा जा सकता ? अगर मनुष्य अपने स्वभाव का सुधार न कर सके तो फिर मनुष्यजीवन की सार्थकता क्या हुई ?

 

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