मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
ज्ञाननिष्ठा का विषय
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।18.54।।
ब्रह्मभूतः – ब्रह्म में स्थित ; प्रसन्नात्मा (प्रसन्न-आत्मा) – मानसिक रूप से शांत; न – न तो; शोचति-शोक करना; न-न ही; काङ्क्षति-कामना करता है; समः-समभाव से; सर्वेषु-सब के प्रति; भूतेषु-जीवों पर; मद्भक्तिं ( मत्-भक्तिम् ) – मेरी भक्ति को; लभते-प्राप्त करता है; पराम्-परम।
परम ब्रह्म की अनुभूति में स्थित मनुष्य मानसिक शांति प्राप्त करता है, वह न तो शोक करता है और न ही कोई कामना करता है। क्योंकि वह सभी के प्रति समभाव रखता है, ऐसा परम योगी मेरी भक्ति को प्राप्त करता है अर्थात वह ब्रह्मभूत-अवस्था को प्राप्त , प्रसन्न मन वाला साधक न तो किसी के लिये शोक करता है और न किसी की इच्छा करता है। ऐसा सम्पूर्ण प्राणियों में समभाव वाला साधक मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है।।18.54।।
ब्रह्मभूतः – जब अन्तःकरण में विनाशशील वस्तुओं का महत्त्व मिट जाता है तब अन्तःकरण की अहंकार , घमंड आदि वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं अर्थात् उनका त्याग हो जाता है। फिर अपने पास जो वस्तुएँ हैं उनमें भी ममता नहीं रहती। ममता न रहने से सुख और भोगबुद्धि से वस्तुओं का संग्रह नहीं होता। जब सुख और भोगबुद्धि मिट जाती है तब अन्तःकरण में स्वतः स्वाभाविक ही शान्ति आ जाती है। इस प्रकार साधक जब असत से ऊपर उठ जाता है तब वह ब्रह्मप्राप्ति का पात्र बन जाता है। पात्र बनने पर उसकी ब्रह्मभूत अवस्था अपने आप हो जाती है। इसके लिये उसको कुछ करना नहीं पड़ता। इस अवस्था में मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ और ब्रह्म मेरा स्वरूप है । ऐसा उसको अपनी दृष्टि से अनुभव हो जाता है। इसी अवस्था को यहाँ (और गीता 5। 24 में भी) ‘ब्रह्मभूतः’ पद से कहा गया है। प्रसन्नात्मा – जब अन्तःकरण में असत वस्तुओं का महत्त्व हो जाता है तब उन वस्तुओं को प्राप्त करने की कामना पैदा हो जाती है और अशान्ति (हलचल) पैदा हो जाती है परन्तु जब असत् वस्तुओं का महत्त्व मिट जाता है तब साधक के चित्त में स्वाभाविक ही प्रसन्नता रहती है। अप्रसन्नता का कारण मिट जाने से फिर कभी अप्रसन्नता होती ही नहीं। कारण कि सांख्ययोगी साधक के अन्तःकरण में अपने सहित संसार का अभाव और परमात्मतत्त्व का भाव अटल रहता है। न शोचति न काङ्क्षति – उस प्रसन्नता की पहचान यह है कि वह शोक-चिन्ता नहीं करता। सांसारिक कितनी ही बड़ी हानि हो जाय तो भी वह शोक नहीं करता और अमुक परिस्थिति प्राप्त हो जाय – ऐसी इच्छा भी नहीं करता। तात्पर्य है कि उत्पन्न और नष्ट होने वाली तथा आने-जाने वाली परिवर्तनशील परिस्थिति , वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ आदि के बनने-बिगड़ने से उस पर कोई असर ही नहीं पड़ता। जो परमात्मा में अटलरूप से स्थित है उस पर आने-जाने वाली परिस्थितियों का असर हो ही कैसे सकता है ? समः सर्वेषु भूतेषु – जब तक साधक में किञ्चिन्मात्र भी हर्ष-शोक , राग-द्वेष आदि द्वन्द्व रहते हैं तब तक वह सर्वत्र व्याप्त परमात्मा के साथ अभिन्नता का अनुभव नहीं कर सकता। अभिन्नता का अनुभव न होने से वह अपने को सम्पूर्ण भूतों में सम नहीं देख सकता परन्तु जब साधक हर्षशोकादि द्वन्द्वों से सर्वथा रहित हो जाता है तब परमात्मा के साथ स्वतः स्वाभाविक अभिन्नता (जो कि सदा से ही थी) का अनुभव हो जाता है। परमात्मा के साथ अभिन्नता होने से अपना कोई व्यक्तित्व (टिप्पणी प0 948) (व्यक्तित्व उसे कहते हैं जिसमें मनुष्य अपनी सत्ता अलग मानता है और जिससे बन्धन होता है) न रहने से अर्थात् मैं हूँ इस रूप से अपनी कोई अलग सत्ता न रहने से वह सम्पूर्ण प्राणियों में सम है – समोऽहं सर्वभूतेषु (गीता 9। 29) ऐसे ही वह भी सम्पूर्ण प्राणियों में सम हो जाता है। वह सम्पूर्ण प्राणियों में सम किस प्रकार होता है ? जैसे – मनोराज्य और स्वप्न में जो नाना सृष्टि होती है उसमें मन ही अनेक रूप धारण करता है अर्थात् वह सृष्टि मनोमयी होती है। मनोमयी होने से जैसे सब सृष्टि में मन है और मनमें सब सृष्टि है? ऐसे ही सब प्राणियों में (आत्मरूप से) वह है और उसमें सम्पूर्ण प्राणी हैं (गीता 6। 29)। इसीको यहाँ समः सर्वेषु भूतेषु कहा है। मद्भक्तिं लभते पराम् – जब समरूप परमात्मा के साथ अभिन्नता का अनुभव होने से साधक का सर्वत्र समभाव हो जाता है तब उसका परमात्मा में प्रतिक्षण वर्धमान एक विलक्षण आकर्षण , खिंचाव , अनुराग हो जाता है। उसी को यहाँ पराभक्ति कहा है। पाँचवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में जैसे ब्रह्मभूत अवस्था के बाद ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति बतायी है – स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ऐसे ही यहाँ ब्रह्मभूत अवस्था के बाद पराभक्ति की प्राप्ति बतायी है। अब आगे के श्लोक में पराभक्ति का फल बताते हैं।