The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

फल सहित वर्ण धर्म का विषय

 

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।18.44।।

 

कृषि-खेतीबाडी; गौरक्ष्य-गोपालन और दुग्ध उत्पादन; वाणिज्यम्-व्यापार; वैश्य-व्यापारी और कृषक वर्ग; कर्म-कार्य; स्वभावजम्-जन्म के अन्तर्निहित गुण; परिचर्या- सेवा ; आत्मकम्-स्वाभाविक; कर्म-कर्त्तव्य; शूद्रस्य-कर्मचारी वर्ग; अपि-भी; स्वभावजम्-जन्म के अन्तर्निहित गुण;।

 

कृषि या खेती – बाड़ी , गोपालन अथवा गायों की रक्षा करना , दुग्ध उत्पादन तथा वाणिज्य या शुद्ध व्यापार करना – ये सब वैश्यों के या वैश्य गुणों से संपन्न लोगों के स्वाभाविक कार्य या कर्म हैं या जन्म से ही उनमें अन्तर्निहित गुण हैं वहीं शूद्र अथवा शूद्रता के गुणों से युक्त लोगो का स्वाभाविक कर्म या जन्मजात गुण हैं – परिश्रम पूर्वक चारों वर्णों की सेवा सुश्रुषा करना ।।18.44।।

 

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् – खेती करना , गायों की रक्षा करना , उनकी वंशवृद्धि करना और शुद्ध व्यापार करना – ये कर्म वैश्य में स्वाभाविक होते हैं। शुद्ध व्यापार करने का तात्पर्य है – जिस देश में , जिस समय , जिस वस्तु की आवश्यकता हो , लोगों के हित की भावना से उस वस्तु को (जहाँ वह मिलती हो वहाँ से ला करके) उसी देश में पहुँचाना , प्रजा की आवश्यक वस्तुओं के अभाव की पूर्ति कैसे हो? वस्तुओं के अभाव में कोई कष्ट न पाये – इस भाव से सच्चाई के साथ वस्तुओं का वितरण करना। भगवान श्रीकृष्ण (नन्दबाबा को लेकर) अपने को वैश्य ही मानते हैं (टिप्पणी प0 929)। इसलिये उन्होंने स्वयं गायों और बछड़ों को चराया। मनु महाराज ने वैश्यवृत्ति में पशूनां रक्षणम् (मनुस्मृति 1। 90) (पशुओं की रक्षा करना) कहा है पर यहाँ भगवान (उपर्युक्त पदों से) अपने जातिभाईयों से मानो यह कहते हैं कि तुम लोग सब पशुओं का पालन , उनकी रक्षा न कर सको तो कम से कम गायों का पालन और उनकी रक्षा जरूर करना। गायों की वृद्धि न कर सको तो कोई बात नहीं परन्तु उनकी रक्षा जरूर करना जिससे हमारा गोधन घट न जाय। इसलिये वैश्यसमाज को चाहिये कि वह गायों की रक्षा में अपना तन-मन-धन लगा दे , उनकी रक्षा करने में अपनी शक्ति बचाकर न रखे। गोरक्षासम्बन्धी विशेष बात- मनुष्यों के लिये गाय सब दृष्टियों में पालनीय है। गाय से अर्थ , धर्म , काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों की सिद्धि होती है। आज के अर्थप्रधान युग में तो गाय अत्यन्त ही उपयोगी है। गोपालन से गाय के दूध , घी , गोबर आदि से धन की वृद्धि होती है। हमारा देश कृषिप्रधान है। अतः यहाँ खेती में जितनी प्रधानता बैलों की है उतनी प्रधानता अन्य किसी की भी नहीं है। भैंसे के द्वारा भी खेती की जाती है पर खेतीं में जितना काम बैल कर सकता है उतना भैंसा नहीं कर सकता। भैंसा बलवान तो होता है पर वह धूप सहन नहीं कर सकता। धूप में चलने से वह जीभ निकाल देता है जब कि बैल धूप में भी चलता रहता है। कारण कि भैंसे में सात्त्विक बल नहीं होता जबकि बैल में सात्त्विक बल होता है। बैलों की अपेक्षा भैंसे कम भी होते हैं। ऐसे ही ऊँट से भी खेती की जाती है पर ऊँट भैंसे से भी कम होते हैं और बहुत महँगे होते हैं। खेती करने वाला हरेक आदमी ऊँट नहीं खरीद सकता। आजकल अच्छे-अच्छे जवान बैल मारे जाने के कारण बैल भी महँगे हो गये हैं तो भी वे ऊँट जितने महँगे नहीं हैं। यदि घरों में गायें रखी जायँ तो बैल घरों में ही पैदा हो जाते हैं खरीदने नहीं पड़ते। विदेशी गायों के जो बैल होते हैं वे खेती में काम नहीं आ सकते क्योंकि उनके कन्धे न होने से उन पर जुआ नहीं रखा जा सकता। गाय पवित्र होती है। उसके शरीर का स्पर्श करने वाली हवा भी पवित्र होती है। गाय के गोबर-गोमूत्र भी पवित्र होते हैं। गोबर से लिपे हुए घरों में प्लेग , हैजा आदि भयंकर बीमारियाँ नहीं आतीं। इसके सिवाय युद्ध के समय गोब रसे लिपे हुए मकानों पर बम का उतना असर नहीं होता जितना सीमेण्ट आदि से बने हुए मकानों पर होता है। गोबर में जहर खींचने की विशेष शक्ति होती है। काशी में कोई व्यक्ति साँप काटनेसे मर गया। लोग उसकी दाहक्रिया करने के लिये उसको गङ्गा के किनारे ले गये। वहाँ पर एक साधु रहते थे। उन्होंने पूछा कि इस व्यक्ति को क्या हुआ ? लोगों ने कहा कि यह साँप काटने से मरा है। साधु ने कहा कि यह मरा नहीं है। तुम लोग गाय का गोबर ले आओ। गोबर लाया गया। साधु ने उस व्यक्ति की नासिका को छोड़कर उसके पूरे शरीर में (नीचे-ऊपर) गोबर का लेप कर दिया। आधे घण्टे के बाद गोबर का फिर दूसरा लेप किया। इससे उस व्यक्ति के श्वास चलने लगे और वह जी उठा। हृदय के रोगों को दूर करने के लिये गोमूत्र बहुत उपयोगी है। छोटी बछड़ी का गोमूत्र रोज तोला दो तोला पीने से पेट के रोग दूर हो जाते हैं। एक सन्त को दमा की शिकायत थी उनको गोमूत्र सेवन से बहुत फायदा हुआ है। आजकल तो गोबर और गोमूत्र से अनेक रोगों की दवाइयाँ बनायी जा रही हैं। गोबर से गैस भी बनने लगी है। खेतों में गोबर-गोमूत्र की खाद से जो अन्न पैदा होता है वह भी पवित्र होता है। खेतों में गायों के रहने से , गोबर और गोमूत्र से जमीन की जैसी पुष्टि होती है वैसी पुष्टि विदेशी रासायनिक खादों से नहीं होती। जैसे एक बार अंगूर की खेती करने वाले ने बताया कि गोबर की खाद डालने से अंगूर के गुच्छे जितने बड़े-बड़े होते हैं उतने विदेशी खाद डालने से नहीं होते। विदेशी खाद डालने से कुछ ही वर्षों में जमीन खराब हो जाती है अर्थात् उसकी उपजाऊशक्ति नष्ट हो जाती है परन्तु गोबर-गोमूत्र से जमीन की उपजाऊशक्ति ज्यों की त्यों बनी रहती है। विदेशों में रासायनिक खाद से बहुत से खेत खराब हो गये हैं जिन्हें उपजाऊ बनाने के लिये वे लोग भारत से गोबर मँगवा रहे हैं और भारत से गोबर के जहाज भरकर विदेशों में जा रहे हैं। हमारे देश की गायें सौम्य और सात्त्विक होती हैं। अतः उनका दूध भी सात्त्विक होता है जिसको पीने से बुद्धि तीक्ष्ण होती है और स्वभाव शान्त , सौम्य होता है। विदेशी गायों का दूध तो ज्यादा होता है पर उन गायों में गुस्सा बहुत होता है। अतः उनका दूध पीने से मनुष्य का स्वभाव क्रूर होता है। भैंस का दूध भी ज्यादा होता है पर वह दूध सात्त्विक नहीं होता। उससे सात्त्विक बल नहीं आता। सैनिकों के घोड़ों को गाय का दूध पिलाया जाता है जिससे वे घोड़े बहुत तेज होते हैं। एक बार सैनिकों ने परीक्षा के लिये कुछ घोड़ों को भैंस का दूध पिलाया जिससे घोड़े खूब मोटे हो गये। परन्तु जब नदी पार करने का काम पड़ा तो वे घोड़े पानी में बैठ गये। भैंस पानी में बैठा करती है । अतः वही स्वभाव घोड़ों में भी आ गया। ऊँटनी का दूध भी निकलता है पर उस दूध का दही , मक्खन होता ही नहीं। उसका दूध तामसी होने से दुर्गति देने वाला होता है। स्मृतियों में ऊँट , कुत्ता , गधा आदि को अस्पृश्य बताया गया है। सम्पूर्ण धार्मिक कार्यों में गाय की मुख्यता है। जातकर्म , चूड़ाकर्म , उपनयन आदि सोलह संस्कारों में गाय का , उसके दूध , घी , गोबर आदि का विशेष सम्बन्ध रहता है। गाय के घी से ही यज्ञ किया जाता है। स्थानशुद्धि के लिये गोबर का ही चौका लगाया जाता है। श्राद्धकर्म में गाय के दूध की खीर बनायी जाती है। नरकों से बचने के लिये गोदान किया जाता है। धार्मिक कृत्यों में पञ्चगव्य काम में लाया जाता है जो गाय के दूध , दही , घी , गोबर और गोमूत्र – इन पाँचों से बनता है। कामनापूर्ति के लिये किये जाने वाले यज्ञों में गाय का घी आदि काम में आता है। रघुवंश के चलने में गाय की ही प्रधानता थी। पौष्टिक , वीर्यवर्धक चीजों में भी गाय के दूध और घी का मुख्य स्थान है। निष्कामभाव से गाय की सेवा करने से मुक्ति होती है। गाय की सेवा करने मात्र से अन्तःकरण निर्मल होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी बिना जूती के गोचारण की लीला की थी इसलिये उनका नाम गोपाल पड़ा। प्राचीनकाल में ऋषिलोग वन में रहते हुए अपने पास गाय रखा करते थे। गाय के दूध , घी से उनकी बुद्धि प्रखर , विलक्षण होती थी जिससे वे बड़े-बड़े ग्रन्थों की रचना किया करते थे। आजकल तो उन ग्रन्थों को ठीक-ठीक समझने वाले भी कम हैं। गाय के दूध-घी से वे दीर्घायु होते थे। इसलिये गाय के घी का एक नाम आयु भी है। बड़े-बड़े राजा लोग भी उन ऋषियों के पास आते थे और उनकी सलाह से राज्य चलाते थे। गोरक्षा के लिये बलिदान करने वालों की कथाओं से इतिहास , पुराण भरे पड़े हैं। बड़े भारी दुःख की बात है कि आज हमारे देश में पैसों के लोभ से रोजाना हजारों की संख्या में गायों की हत्या की जा रही है अगर इसी तरह गोहत्या चलती रही तो एक समय गोवंश समाप्त हो जायगा। जब गायें नहीं रहेंगी तब क्या दशा होगी ? कितनी आफतें आयेंगी ? इसका अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। जब गायें खत्म हो जायेंगी तब गोबर नहीं रहेगा और गोबर की खाद न रहने से जमीन भी उपजाऊ नहीं रहेगी। जमीन के उपजाऊ न रहने से खेती कैसे होगी ? खेती न होने से अन्न तथा वस्त्र (कपास) कैसे मिलेगा ? लोगों को शरीरनिर्वाह के लिये अन्न-जल और वस्त्र भी मिलना मुश्किल हो जायगा। गाय और उसके दूध , घी , गोबर आदि के न रहने से प्रजा बहुत दुःखी हो जायगी। गोधन के अभाव में देश पराधीन और दुर्बल हो जायगा। वर्तमान में भी अकाल , अनावृष्टि , भूकम्प , आपसी कलह आदि के होने में गायों की हत्या मुख्य कारण है। अतः अपनी पूरी शक्ति लगाकर हर हालत में गायों की रक्षा करना , उनको कत्लखानों में जाने से रोकना , हमारा परम कर्तव्य है। गायों की रक्षा के लिये भाई-बहनों को चाहिये कि वे गायों का पालन करें , उनको अपने घरों में रखें। गाय का ही दूध-घी खायें , भैंस आदि का नहीं। घरों में गोबरगैस का प्रयोग किया जाय। गायों की रक्षा के उद्देश्य से ही गोशालाएँ बनायी जाएँ , दूध के उद्देश्य से नहीं। जितनी गोचरभूमियाँ हैं उनकी रक्षा की जाय तथा सरकार से और गोचरभूमियाँ छुड़ाई जायँ। सरकार की गोहत्या नीति का विरोध किया जाय और सरकार से अनुरोध किया जाय कि वह देश की रक्षा के लिये पूरे देश में तत्काल पूर्णरूप से गोहत्या बन्द करे।परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् – चारों वर्णों की सेवा करना , सेवा की सामग्री तैयार करना और चारों वर्णों के कार्यों में कोई बाधा , अड़चन न आये , सबको सुख-आराम हो – इस भाव से अपनी बुद्धि , योग्यता , बल के द्वारा सबकी सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। यहाँ एक शङ्का पैदा होती है कि भगवान ने चारों वर्णों की उत्पत्ति में सत्त्व , रज और तम – इन तीन गुणों को कारण बताया। उसमें तमोगुण की प्रधानता से शूद्र की उत्पत्ति बतायी और गीता में जहाँ तमोगुण का वर्णन हुआ है वहाँ पर उसके अज्ञान , प्रमाद , आलस्य , निद्रा , अप्रकाश , अप्रवृत्ति और मोह – ये सात अवगुण बताये हैं (गीता 14। 8 13। 17)। अतः ऐसे तमोगुण की प्रधानता वाले शूद्र से सेवा कैसे होगी क्योंकि वह आलस्य , प्रमाद आदि में पड़ा रहेगा तो सेवा कैसे कर सकेगा ? सेवा बहुत ऊँचे दर्जे की चीज है। ऐसे ऊँचे कर्म का भगवान ने शूद्र के लिये कैसे विधान किया ? यदि इस शङ्का पर गुणों की दृष्टिसे विचार किया जाय तो गीता में आया है कि सत्त्वगुण वाले ऊँचे लोकों में जाते हैं , रजोगुण वाले मरकर पीछे मध्यलोक अर्थात् मृत्युलोक में जाते हैं और तमोगुण वाले अधोगति में जाते हैं (गीता 14। 18)। इसमें भी वास्तव में देखा जाय तो रजोगुण के बढ़ने पर जो मरता है वह कर्मप्रधान मनुष्ययोनि में जन्म लेता है – रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते (गीता 14। 15)। इन सबका तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्यमात्र रजःप्रधान (रजोगुण की प्रधानता वाला) है। रजःप्रधान वालों में जो सात्त्विक , राजस और तामस – तीन गुण होते हैं। उन तीनों गुणों से ही चारों वर्णों की रचना की गयी है। इसलिये कर्म करना सबमें मुख्य होता है और इसी को लेकर मनुष्यों को कर्मयोनि कहा गया है तथा गीता में भी चारों वर्णों के कर्मों के लिये स्वभावज कर्म , स्वभावनियत कर्म आदि पद आये हैं। अतः शूद्र का परिचर्या अर्थात् सेवा करना स्वभावज कर्म है जिसमें उसे परिश्रम नहीं होता। मनुष्यमात्र कर्मयोनि होने पर भी ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य में विवेकविचार का विशेष तारतम्य रहता है और शुद्धि भी रहती है परन्तु शूद्र में मोह की प्रधानता रहने से उसमें विवेक बहुत दब जाता है। इस दृष्टि से शूद्र के सेवाकर्म में विवेक की प्रधानता न होकर आज्ञापालन की प्रधानता रहती है – अग्या सम न सुसाहिब सेवा (मानस 2। 301। 2)। इसलिये चारों वर्णों की आज्ञा के अनुसार सेवा करना , सुख-सुविधा जुटा देना शूद्र के लिये स्वाभाविक होता है। शुद्रों के कर्म परिचर्यात्मक अर्थात् सेवास्वरूप होते हैं। उनके शारीरिक , सामाजिक , नागरिक , ग्रामणिक आदि सब के सब कर्म ठीक तरह से सम्पन्न होते हैं जिनसे चारों ही वर्णों के जीवननिर्वाह के लिये सुख-सुविधा , अनुकूलता और आवश्यकता की पूर्ति होती है। स्वाभाविक कर्मों का तात्पर्य चेतन जीवात्मा और जड प्रकृति – दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है। चेतन स्वाभाविक ही निर्विकार अर्थात् परिवर्तनरहित है और प्रकृति स्वाभाविक ही विकारी अर्थात् परिवर्तनशील है। अतः इन दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न होने से इनका सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं है किंतु चेतन ने प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध मानकर उस सम्बन्ध की सद्भावना कर ली है अर्थात् सम्बन्ध है ऐसा मान लिया है। इसी को गुणों का सङ्ग कहते हैं जो जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है – कारणं गुणसङ्गोस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21)। इस सङ्ग के कारण गुणों के तारतम्य से जीव का ब्राह्मणादि वर्ण में जन्म होता है। गुणों के तारतम्य से जिस वर्ण में जन्म होता है उन गुणों के अनुसार ही उस वर्ण के कर्म स्वाभाविक , सहज होते हैं जैसे – ब्राह्मणके लिये शम – दम आदि , क्षत्रिय के लिये शौर्य – तेज आदि , वैश्य के लिये खेती – गौरक्षा आदि और शूद्र के लिये सेवा – ये कर्म स्वतःस्वाभाविक होते हैं। तात्पर्य है कि चारों वर्णों को इन कर्मों को करने में परिश्रम नहीं होता क्योंकि गुणों के अनुसार स्वभाव और स्वभाव के अनुसार उनके लिये कर्मों का विधान है। इसलिये इन कर्मों में उनकी स्वाभाविक ही रुचि होती है। मनुष्य इन स्वाभाविक कर्मों को जब अपने लिये अर्थात् अपने स्वार्थ , भोग और आराम के लिये करता है तब वह उन कर्मों से बँध जाता है। जब उन्हीं कर्मों को स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके निष्कामभावपूर्वक संसार के हित के लिये करता है तब कर्मयोग हो जाता है और उन्हीं कर्मों से सब संसार में व्यापक परमात्मा का पूजन करता है अथवा भगवत्परायण होकर केवल भगवत्सम्बन्धी कर्म (जप , ध्यान , सत्सङ्ग , स्वाध्याय आदि) करता है तब वह भक्तियोग हो जाता है। फिर प्रकृति के गुणों का सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाने पर केवल एक परमात्मतत्त्व ही रह जाता है जिसमें सिद्ध महापुरुष के स्वरूप की स्वतःसिद्ध स्वतन्त्रता , अखण्डता , निर्विकारता की अनुभूति रह जाती है। ऐसा होने पर भी उसके शरीर , मन , बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा अपने-अपने वर्ण , आश्रम की मर्यादा के अनुसार निर्लिप्ततापूर्वक शास्त्रविहित कर्म स्वाभाविक होते हैं जो कि संसारमात्र के लिये आदर्श होते हैं। प्रभु की तरफ आकृष्ट होने से प्रतिक्षण प्रेम बढ़ता रहता है जो अनन्त आनन्दस्वरूप है। जाति जन्म से मानी जाय या कर्म से ऊँच-नीच योनियों में जितने भी शरीर मिलते हैं वे सब गुण और कर्म के अनुसार ही मिलते हैं। गुण और कर्म के अनुसार ही मनुष्य का जन्म होता है इसलिये मनुष्य की जाति जन्म से ही मानी जाती है। अतः स्थूलशरीर की दृष्टि से विवाह , भोजन आदि कर्म जन्म की प्रधानता से ही करने चाहिये अर्थात् अपनी जाति या वर्ण के अनुसार ही भोजन , विवाह आदि कर्म होने चाहिये। दूसरी बात जिस प्राणी का सांसारिक भोग , धन , मान , आराम , सुख आदि का उद्देश्य रहता है उसके लिये वर्ण के अनुसार कर्तव्यकर्म करना और वर्ण की मर्यादा में चलना आवश्यक हो जाता है। यदि वह वर्ण की मर्यादा में नहीं चलता तो उसका पतन हो जाता है (टिप्पणी प0 932) परन्तु जिसका उद्देश्य केवल परमात्मा ही है संसार के भोग आदि नहीं उसके लिये सत्सङ्ग , स्वाध्याय , जप , ध्यान , कथा , कीर्तन , परस्पर विचार-विनिमय आदि भगवत्सम्बन्धी काम मुख्य होते हैं। तात्पर्य है कि परमात्मा की प्राप्ति में प्राणी के पारमार्थिक भाव , आचरण आदि की मुख्यता है जाति या वर्ण की नहीं। तीसरी बात – जिसका उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति का है वह भगवत्सम्बन्धी कार्यों को मुख्यता से करते हुए भी वर्णआश्रम के अनुसार अपने कर्तव्यकर्मों को पूजनबुद्धि से केवल भगवत्प्रीत्यर्थ ही करता है। आगे 46वें श्लोक में भगवान ने बड़ी श्रेष्ठ बात बतायी है कि जिससे सम्पूर्ण संसार पैदा हुआ है और जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है उस परमात्मा का ही लक्ष्य रखकर उसके प्रीत्यर्थ ही पूजनरूप से अपने-अपने वर्ण के अनुसार कर्म किये जायँ। इसमें मनुष्यमात्र का अधिकार है। देवता , असुर , पशु , पक्षी आदि का स्वतः अधिकार नहीं है परन्तु उनके लिये भी परमात्मा की तरफ से निषेध नहीं है। कारण कि सभी परमात्मा का अंश होने से परमात्मा की प्राप्ति के सभी अधिकारी हैं। प्राणिमात्र का भगवान पर पूरा अधिकार है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि आपस के व्यवहार में अर्थात् रोटी , बेटी और शरीर आदि के साथ बर्ताव करने में तो जन्म की प्रधानता है और परमात्मा की प्राप्ति में भाव , विवेक और कर्म की प्रधानता है। इसी आशय को लेकर भागवतकार ने कहा है कि जिस मनुष्य के वर्ण को बताने वाला जो लक्षण कहा गया है वह यदि दूसरे वर्ण वाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझ लेना चाहिये (टिप्पणी प0 933.1)। अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण के शम-दम आदि जितने लक्षण हैं वे लक्षण या गुण स्वाभाविक ही किसी में हों तो जन्ममात्र से नीचा होने पर भी उसको नीचा नहीं मानना चाहिये। ऐसे ही महाभारत में युधिष्ठिर और नहुष के संवाद में आया है कि जो शूद्र आचरणों में श्रेष्ठ है उस शूद्र को शूद्र नहीं मानना चाहिये और जो ब्राह्मण ब्राह्मणोचित कर्मों से रहित है उस ब्राह्मण को ब्राह्मण नहीं मानना चाहिये (टिप्पणी प0 933.2) अर्थात् वहाँ कर्मों की ही प्रधानता ली गयी है जन्म की नहीं। शास्त्रों में जो ऐसे वचन आते हैं उन सबका तात्पर्य है कि कोई भी नीच वर्ण वाला साधारण से साधारण मनुष्य अपनी पारमार्थिक उन्नति कर सकता है इसमें संदेह की कोई बात नहीं है। इतना ही नहीं वह उसी वर्ण में रहता हुआ शम – दम आदि जो सामान्य धर्म हैं उनका साङ्गोपाङ्ग पालन करता हुआ अपनी श्रेष्ठता को प्रकट कर सकता है। जन्म तो पूर्वकर्मों के अनुसार हुआ है इसमें वह बेचारा क्या कर सकता है ? परन्तु वहीं (नीच वर्ण में) रहकर भी वह अपनी नयी उन्नति कर सकता है। उस नयी उन्नति  में प्रोत्साहित करनेके लिये ही शास्त्रवचनों का आशय मालूम देता है कि नीच वर्ण वाला भी नयी उन्नति करने में हिम्मत न हारे। जो ऊँचे वर्ण वाला होकर भी वर्णोचित काम नहीं करता उसको भी अपने वर्णोचित काम करने के लिये शास्त्रों में प्रोत्साहित किया है जैसे – ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते। (श्रीमद्भा0 11। 17। 42) जिन ब्राह्मणों का खान-पान , आचरण सर्वथा भ्रष्ट है उन ब्राह्मणों का वचनमात्र से भी आदर नहीं करना चाहिये – ऐसा स्मृति में आया है (मनु0 4। 30। 192) परन्तु जिनके आचरण श्रेष्ठ हैं जो भगवान के भक्त हैं उन ब्राह्मणों की भागवत आदि पुराणों में और महाभारत , रामायण आदि इतिहासग्रन्थों में बहुत महिमा गायी गयी है। भगवान का  भक्त चाहे कितनी ही नीची जातिका क्यों न हो वह भक्तिहीन विद्वान् ब्राह्मण से श्रेष्ठ है (टिप्पणी प0 933.3)। ब्राह्मण को विराट रूप भगवान का मुख , क्षत्रिय को हाथ , वैश्य को ऊरु (मध्यभाग) और शूद्र को पैर बताया गया है। ब्राह्मण को मुख बताने का तात्पर्य है कि उनके पास ज्ञान का संग्रह है इसलिये चारों वर्णों को पढ़ाना , अच्छी शिक्षा देना और उपदेश सुनाना – यह मुख का ही काम है। इस दृष्टि से ब्राह्मण ऊँचे माने गये। क्षत्रिय को हाथ बताने का तात्पर्य है कि वे चारों वर्णों की शत्रुओं से रक्षा करते हैं। रक्षा करना मुख्य रूप से हाथों का ही काम है जैसे – शरीर में फोड़ा-फुंसी आदि हो जाय तो हाथों से ही रक्षा की जाती है , शरीर पर चोट आती हो तो रक्षा के लिये हाथ ही आड़ देते हैं और अपनी रक्षा के लिये दूसरों पर हाथों से ही चोट पहुँचायी जाती है , आदमी कहीं गिरता है तो पहले हाथ ही टिकते हैं। इसलिये क्षत्रिय हाथ हो गये। अराजकता फैल जाने पर तो जन , धन आदि की रक्षा करना चारों वर्णों का धर्म हो जाता है। वैश्य को मध्यभाग कहने का तात्पर्य है कि जैसे पेट में अन्न , जल , औषध आदि डाले जाते हैं तो उनसे शरीर के सम्पूर्ण अवयवों को खुराक मिलती है और सभी अवयव पुष्ट होते हैं । ऐसे ही वस्तुओं का संग्रह करना , उनका यातायात करना , जहाँ जिस चीज की कमी हो वहाँ पहुँचाना , प्रजा को किसी चीज का अभाव न होने देना वैश्य का काम है। पेट में अन्न-जल का संग्रह सब शरीर के लिये होता है और साथ में पेट को भी पुष्टि मिल जाती है क्योंकि मनुष्य केवल पेट के लिये पेट नहीं भरता। ऐसे ही वैश्य केवल दूसरों के लिये ही संग्रह करे केवल अपने लिये नहीं। वह ब्राह्मण आदि को दान देता है , क्षत्रियों को टैक्स देता है , अपना पालन करता है और शूद्रों को मेहनताना देता है। इस प्रकार वह सबका पालन करता है। यदि वह संग्रह नहीं करेगा ; कृषि , गौरक्ष्य और वाणिज्य नहीं करेगा तो क्या देगा ? शूद्र को चरण बताने का तात्पर्य है कि जैसे चरण सारे शरीर को उठाये फिरते हैं और पूरे शरीर की सेवा चरणों से ही होती है । ऐसे ही सेवा के आधार पर ही चारों वर्ण चलते हैं। शूद्र अपने सेवाकर्म के द्वारा सबके आवश्यक कार्यों की पूर्ति करता है। उपर्युक्त विवेचन में एक ध्यान देने की बात है कि गीता में चारों वर्णों के उन स्वाभाविक कर्मों का वर्णन है जो कर्म स्वतः होते हैं अर्थात् उनको करने में अधिक परिश्रम नहीं पड़ता। चारों वर्णों के लिये और भी दूसरे कर्म का विधान है उनको स्मृतिग्रन्थों में देखना चाहिये और उनके अनुसार अपने आचरण बनाने चाहिये (गीता 16। 24)। वर्तमान में चारों वर्णों में गड़बड़ी आ जाने पर भी यदि चारों वर्णों के समुदायों को इकट्ठा करके अलग-अलग समुदाय में देखा जाय तो ब्राह्मणसमुदाय में शम , दम आदि गुण जितने अधिक मिलेंगे उतने क्षत्रिय , वैश्य और शूद्रसमुदाय में नहीं मिलेंगे। क्षत्रियसमुदाय में शौर्य , तेज आदि गुण जितने अधिक मिलेंगे उतने ब्राह्मण , वैश्य और शूद्रसमुदाय में नहीं मिलेंगे। वैश्यसमुदाय में व्यापार करना , धन का उपार्जन करना , धन को पचाना (धन का भभका ऊपर से न दिखने देना) आदि गुण जितने अधिक मिलेंगे उतने ब्राह्मण , क्षत्रिय और शूद्रसमुदाय में नहीं मिलेंगे। शूद्रसमुदाय में सेवा करने की प्रवृत्ति जितनी अधिक मिलेगी उतनी ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्यसमुदाय में नहीं मिलेगी। तात्पर्य यह है कि आज सभी वर्ण मर्यादारहित और उच्छृङ्खल होने पर भी उनके स्वभावज कर्म उनके समुदायों में विशेषता से देखने में आते हैं अर्थात् यह चीज व्यक्तिगत न दिख कर समुदायगत देखने में आती है। जो लोग शास्त्र के गहरे रहस्य को नहीं जानते वे कह देते हैं कि ब्राह्मणों के हाथ में कलम रही , इसलिये उन्होंने ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ है – ऐसा लिखकर ब्राह्मणोंको सर्वोच्च कह दिया। जिनके पास राज्य था उन्होंने ब्राह्मणों से कहा – क्यों महाराज हम लोग कुछ नहीं हैं क्या ? तो ब्राह्मणों ने कह दिया – नहीं-नहीं , ऐसी बात नहीं। आप लोग भी हैं , आप लोग दो नम्बर में हैं। वैश्यों ने ब्राह्मणों से कहा – क्यों महाराज हमारे बिना कैसे जीविका चलेगी आपकी ? ब्राह्मणों ने कहा – हाँ , हाँ , आप लोग तीसरे नम्बर में हैं। जिनके पास न राज्य था , न धन था वे ऊँचे उठने लगे तो ब्राह्मणों ने कह दिया – आपके भाग्य में राज्य और धन लिखा नहीं है। आप लोग तो इन ब्राह्मणों , क्षत्रियों और वैश्यों की सेवा करो। इसलिये चौथे नम्बर में आप लोग हैं। इस तरह सबको भुलावे में डालकर विद्या , राज्य और धन के प्रभाव से अपनी एकता करके चौथे वर्ण को पददलित कर दिया – यह लिखने वालों का अपना स्वार्थ और अभिमान ही है। इसका समाधान यह है कि ब्राह्मणों ने कहीं भी अपने ब्राह्मणधर्म के लिये ऐसा नहीं लिखा है कि ब्राह्मण सर्वोपरि हैं इसलिये उनको बड़े आराम से रहना चाहिये , धनसम्पत्ति से युक्त होकर मौज करनी चाहिये इत्यादि प्रत्युत ब्राह्मणों के लिये ऐसा लिखा है कि उनको त्याग करना चाहिये , कष्ट सहना चाहिये तपश्चर्या करनी चाहिये। गृहस्थ में रहते हुए भी उनको धनसंग्रह नहीं करना चाहिये , अन्न का संग्रह भी थोड़ा ही होना चाहिये – कुम्भीधान्य अर्थात् एक घड़ा भरा हुआ अनाज हो , लौकिक भोगों में आसक्ति नहीं होनी चाहिये और जीवननिर्वाह के लिये किसी से दान भी लिया जाय तो उसका काम करके अर्थात् यज्ञ , होम , जप , पाठ आदि करके ही लेना चाहिये। गोदान आदि लिया जाय तो उसका प्रायश्चित्त करना चाहिये। यदि कोई ब्राह्मण को श्राद्ध का निमन्त्रण देना चाहे तो वह श्राद्ध के पहले दिन दे जिससे ब्राह्मण उसके पितरों का अपने में आवाहन करके रात्रि में ब्रह्मचर्य और संयमपूर्वक रह सके। दूसरे दिन वह यजमान के पितरों का पिण्डदान , तर्पण ठीक विधि-विधान से करवाये। उसके बाद वहाँ भोजन करे। निमन्त्रण भी एक ही यजमान का स्वीकार करे और भोजन भी एक ही घर का करे। श्राद्ध का अन्न खाने के बाद गायत्रीजप आदि करके शुद्ध होना चाहिये। दान लेना , श्राद्ध का भोजन करना ब्राह्मण के लिये ऊँचा दर्जा नहीं है। ब्राह्मण का ऊँचा दर्जा त्याग में है। वे केवल यजमान के पितरों का कल्याण भावना से ही श्राद्ध का भोजन और दक्षिणा स्वीकार करते हैं स्वार्थ की भावनासे नहीं । अतः यह भी उनका त्याग ही है। ब्राह्मणों ने अपनी जीविका के लिये ऋत , अमृत , मृत , सत्यानृत और प्रमृत – ये पाँच वृत्तियाँ बतायी हैं (टिप्पणी प0 935.1) – (1) ऋतवृत्ति सर्वोच्च वृत्ति मानी गयी है। इसको शिलोञ्छ या कपोतवृत्ति भी कहते हैं। खेती करने वाले खेत में से धान काटकर ले जाएं उसके बाद वहाँ जो अन्न (ऊमी , सिट्टा आदि) पृथ्वी पर गिरा पड़ा हो वह भूदेवों (ब्राह्मणों) का होता है । अतः उनको चुनकर अपना निर्वाह करना शिलोञ्छवृत्ति है अथवा धान्यमण्डी में जहाँ धान्य तौला जाता है वहाँ पृथ्वी पर गिरे हुए दाने भूदेवों के होते हैं । अतः उनको चुनकर जीवननिर्वाह करना कपोतवृत्ति है। (2) बिना याचना किये और बिना इशारा किये कोई यजमान आकर देता है तो निर्वाहमात्रकी वस्तु लेना अमृतवृत्ति है। इसको अयाचितवृत्ति भी कहते हैं। (3) सुबह भिक्षा के लिये गाँव में जाना और लोगों को वार , तिथि , मुहूर्त आदि बताकर (इस रूपमें काम करके) भिक्षा में जो कुछ मिल जाय? उसीसे अपना जीवननिर्वाह करना मृतवृत्ति है।(4) व्यापार करके जीवननिर्वाह करना सत्यानृतवृत्ति है। (5) उपर्युक्त चारों वृत्तियों से जीवननिर्वाह न हो तो खेती करे पर वह भी कठोर विधिविधान से करे जैसे – एक बैल से हल न चलाये , धूप के समय हल न चलाये आदि यह प्रमृतवृत्ति है। उपर्युक्त वृत्तियों में से किसी भी वृत्ति से निर्वाह किया जाय उसमें पञ्चमहायज्ञ , अतिथिसेवा करके यज्ञशेष भोजन करना चाहिये (टिप्पणी प0 935.2)। श्रीमद्भगवद्गीतापर विचार करते हैं तो ब्राह्मण के लिये पालनीय जो नौ स्वाभाविक धर्म बताये गये हैं उनमें जीविका पैदा करने वाला एक भी धर्म नहीं है। क्षत्रिय के लिये सात स्वाभाविक धर्म बताये हैं। उनमें युद्ध करना और शासन करना – ये दो धर्म कुछ जीविका पैदा करने वाले हैं। वैश्य के लिये तीन धर्म बताये हैं – खेती , गोरक्षा और व्यापार ये तीनों ही जीविका पैदा करने वाले हैं। शूद्र के लिये एक सेवा ही धर्म बताया है जिसमें पैदा ही पैदा होती है। शूद्र के लिये खान-पान , जीवननिर्वाह आदि में भी बहुत छूट दी गयी है। भगवान ने स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः (गीता 18। 45) पदों से कितनी विचित्र बात बतायी है कि शम , दम आदि नौ धर्मों के पालन से ब्राह्मण का जो कल्याण होता है वही कल्याण , शौर्य , तेज आदि सात धर्मों के पालन से क्षत्रिय का होता है। वही कल्याण खेती , गोरक्षा और व्यापार के पालन से वैश्य होता है और वही कल्याण केवल सेवा करने से शूद्र का हो जाता है। आगे भगवान ने एक विलक्षण बात बतायी है कि ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र अपने-अपने वर्णोचित कर्मों के द्वारा उस परमात्मा का पूजन करके परम सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं – स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः (18। 46)। वास्तव में कल्याण वर्णोचित कर्मों से नहीं होता प्रत्युत निष्कामभावपूर्वक पूजन से ही होता है। शूद्र का तो स्वाभाविक कर्म ही परिचर्यात्मक अर्थात् पूजनरूप है । अतः उसका पूजन के द्वारा पूजन होता है अर्थात् उसके द्वारा दुगुनी पूजा होती है इसलिये उसका कल्याण जितनी जल्दी होगा उतनी जल्दी ब्राह्मण आदि का नहीं होगा। शास्त्रकारों ने उद्धार करने में छोटे को ज्यादा प्यार दिया है क्योंकि छोटा प्या रका पात्र होता है और बड़ा अधिकार का पात्र होता है। बड़े पर चिन्ता-फिक्र ज्यादा रहती है छोटे पर कुछ भी भार नहीं रहता। शूद्र को भाररहित करके उसकी जीविका बतायी गयी है और प्यार भी दिया गया है। वास्तव में देखा जाय तो जो वर्णआश्रम में जितना ऊँचा होता है उसके लिये शास्त्रों के अनुसार उतने ही कठिन नियम होते हैं। उन नियमों का साङ्गोपाङ्ग पालन करने में कठिनता अधिक मालूम देती है परन्तु जो वर्णआश्रम में नीचा होता है उसका कल्याण सुगमता से हो जाता है। इस विषय में विष्णुपुराण में एक कथा आती है – एक बार बहुत से ऋषि-मुनि मिलकर श्रेष्ठता का निर्णय करने के लिये भगवान वेदव्यासजी के पास गये। व्यासजी ने सबको आदरपूर्वक बिठाया और स्वयं गङ्गा में स्नान करने चले गये। गङ्गा में स्नान करते हुए उन्होंने कहा – कलियुग ! तुम धन्य हो ,  स्त्रियों ! तुम धन्य हो , शूद्रों ! तुम धन्य हो । जब व्यासजी स्नान करके ऋषियों के पास आये तो ऋषियों ने कहा – महाराज आपने कलियुग , स्त्रियों और शूद्रों को धन्यवाद कैसे दिया ? तो उन्होंने कहा कि कलियुग में अपने धर्म का पालन करने से स्त्रियाँ और शूद्रों का कल्याण जल्दी और सुगमतापूर्वक हो जाता है। यहाँ एक और बात सोचने की है कि जो अपने स्वार्थका काम करता है वह समाज में और संसार में आदर का पात्र नहीं होता। समाज में ही नहीं , घर में भी जो व्यक्ति पेटू और चट्टू होता है उसकी दूसरे निन्दा करते हैं। ब्राह्मणों ने स्वार्थदृष्टि से अपने ही मुँह से अपनी (ब्राह्मणों की) प्रशंसा , श्रेष्ठता की बात नहीं कही है। उन्होंने ब्राह्मणों के लिये त्याग ही बताया है। सात्त्विक मनुष्य अपनी प्रशंसा नहीं करते प्रत्युत दूसरों की प्रशंसा , दूसरोंका आदर करते हैं। तात्पर्य है कि ब्राह्मणों ने कभी अपने स्वार्थ और अभिमान की बात नहीं कही। यदि वे स्वार्थ और अभिमान की बात कहते तो वे इतने आदरणीय नहीं होते , संसार में और शास्त्रों में आदर न पाते। वे जो आदर पाते हैं वह त्याग से ही पाते हैं। इस प्रकार मनुष्य को शास्त्रों का गहरा अध्ययन करके उपर्युक्त सभी बातों को समझना चाहिये और ऋषि-मुनियों पर , शास्त्रकारों पर झूठा आक्षेप नहीं करना चाहिये। ऊँच-नीच वर्णों में प्राणियों का जन्म मुख्यरूप से गुणों और कर्मों के अनुसार होता है – चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः (गीता 4। 13) परन्तु ऋणानुबन्ध , शाप , वरदान , सङ्ग आदि किसी कारणविशेष से भी ऊँच-नीच वर्णों में जन्म हो जाता है। उन वर्णों में जन्म होने पर भी वे अपने पूर्वस्वभाव के अनुसार ही आचरण करते हैं। यही कारण है कि ऊँचे वर्ण में उत्पन्न होने पर भी उनके नीच आचरण देखे जाते हैं जैसे धुन्धुकारी आदि और नीच वर्ण में उत्पन्न होने पर भी वे महापुरुष होते हैं जैसे विदुर , कबीर , रैदास आदि। आज जिस समुदाय में जातिगत , कुलपरम्परागत , समाजगत और व्यक्तिगत जो भी शास्त्रविपरीत दोष आये हैं उनको अपने विवेक-विचार , सत्सङ्ग , स्वाध्याय आदि के द्वारा दूर करके अपने में स्वच्छता , निर्मलता , पवित्रता लानी चाहिये जिससे अपने मनुष्यजन्म का ध्येय सिद्ध हो सके। स्वभावज कर्मों का वर्णन करने का प्रयोजन क्या है ? इसको अब आगे के दो श्लोकों में बताते हैं।

 

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