मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
श्री गीताजी का माहात्म्य
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।18.68।।
यः-जो; इदम्-इस; परमम्-अत्यन्त; गुह्यम्-गूढ़ ज्ञान को; मत्भक्तेषु – मेरे भक्तों में; अभिधास्यति-सिखाता है; भक्तिम्-प्रेम भक्ति का महान कार्य; मयि-मेरी; परम्-अलौकिक; कृत्वा-करके; माम्-मुझको; एव-निश्चय ही; एष्यति-प्राप्त होता है; असंशयः-नि:संदेह।
वे जो इस अति गुह्य ज्ञान को मेरे भक्तों को सिखाते हैं, वे अति प्रिय कार्य करते हैं। वे निःसंदेह मेरे धाम में आएंगे अर्थात जो मुझसे परम प्रेम या मेरे में परा भक्ति करके इस परम गुह्य ज्ञान अथवा परम गोपनीय संवाद (गीता-ग्रन्थ) का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है इसमें कोई संदेह नहीं है।।18.68।।
भक्तिं मयि परां कृत्वा – जो मेरे में पराभक्ति करके इस गीता को कहता है। इसका तात्पर्य है कि जो रुपये , मान-बड़ाई , भेंटपूजा , आदर-सत्कार आदि किसी भी वस्तु के लिये नहीं कहता प्रत्युत भगवान में भक्ति हो जाये , भगवद्भावों का मनन हो जाय , इन भावों का प्रचार हो जाय , इनकी आवृत्ति हो जाये , सुनकर लोगों का दुःख , जलन , सन्ताप आदि दूर हो जाये , सन्ताप आदि दूर हो जाये , सबका कल्याण हो जाये – ऐसे उद्देश्य से कहता है। इस प्रकार भगवान की भक्ति का उद्देश्य रखकर कहना ही परम भक्ति करते कहना है। इसी अध्याय के 54वें श्लोक में कही गयी पराभक्ति में अन्तर है। वहाँ ‘मदभक्तिं लभते पराम्’ पदों से कहा गया है कि ब्रह्मभूत होने के बाद सांख्ययोगी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है अर्थात् भगवान से जो अनादिकाल का सम्बन्ध है , उसकी स्मृति हो जाती है परन्तु यहाँ सांसारिक मान-बड़ाई आदि किसी की भी किञ्चिन्मात्र कामना न रखकर केवल भगवद्भक्ति की , भगवत्प्रेम की अभिलाषा रखना पराभक्ति है। इसलिये यहाँ ‘भक्तिं मयि परां कृत्वा ‘ मेरे में पराभक्ति करके – ऐसा कहा गया है। य इदं परमं गुह्यम् – इन पदों से पूरी गीता का परमगुह्य संवाद लेना चाहिये जो कि गीताग्रन्थ कहलाता है। परमं गुह्यम् पदों में ही गुह्य , गुह्यतर , गुह्यतम और सर्वगुह्यतम – ये सब बातें आ जाती हैं। मद्भक्तेष्वभिधास्यति – जिसकी भगवान और उनके वचनों में पूज्यबुद्धि है , आदरबुद्धि है , श्रद्धा-विश्वास है और सुनना चाहता है – वह भक्त हो गया। ऐसे मेरे भक्तों में जो इस संवाद को कहेगा वह मेरे को प्राप्त होगा। पीछे के श्लोक में ‘नाभक्ताय’ पद में एकवचन दिया और यहाँ भद्भक्तेषु पद में बहुवचन दिया। इसका तात्पर्य है कि जहाँ बहुत से श्रोता सुनते हों वहाँ पहले बताये दोषों वाला कोई व्यक्ति बैठा हो तो वक्ता के लिये पहले कहा निषेध लागू नहीं पड़ेगा क्योंकि वक्ता केवल उस (दोषी) व्यक्ति को गीता सुनाता ही नहीं। जैसे कोई कबूतरों को अनाज के दाने डालता है और कबूतर दाने चुगते हैं। यदि उनमें कोई कौआ आकर दाने चुगने लग जाये तो उसको उड़ाया थोड़े ही जा सकता है क्योंकि दाना डालने वाले का लक्ष्य कबूतरों को दाना डालना ही रहता है , कौओं को नहीं । ऐसे ही कोई गीता का प्रवचन कर रहा है और उस प्रवचन को सुनने के लिये बीच में कोई नया व्यक्ति आ जाये अथवा कोई उठकर चल दे तो वक्ता का ध्यान उसकी तरफ नहीं रहता। वक्ता का ध्यान तो सुनने वाले लोगों की तरफ होता है और उन्हीं को वह सुनाता है।मामेवैष्यत्यसंशयः — अगर गीता सुनानेवालेका केवल मेरा ही उद्देश्य होगा तो वह मेरेको प्राप्त हो जायगा? इसमें कोई सन्देहकी बात नहीं है। कारण कि गीता की यह एक विचित्र कला है कि मनुष्य अपने स्वाभाविक कर्मों से भी परमात्मा का निष्कामभावपूर्वक पूजन करता हुआ परमात्मा को प्राप्त हो जाता है (18। 46) और जो खाना-पीना , शौच-स्नान आदि शारीरिक कार्यों को भी भगवान के अर्पण कर देता है वह भी शुभ-अशुभ फलरूप कर्मबन्धन से मुक्त होकर भगवान को प्राप्त हो जाता है (9। 2728)। तो फिर जो केवल भगवान की भक्ति का लक्ष्य करके गीता का प्रचार करता है वह भगवान को प्राप्त हो जाये इसमें कहना ही क्या है?