The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन

 

 

The Bhagavad Gita Chapter 18अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।18.14।।

 

अधिष्ठानम्-शरीर; तथा-भी; कर्ता – करने वाला (जीवात्मा); करणम् – इन्द्रियाँ; च – और; पृथग्विधम् ( पृथक्-विधाम् ) – विभिन्न प्रकार के; विविधाः-अनेक; च-और; पृथक-अलग; चेष्टा:-प्रयास; दैवम्-भगवान का विधान; चैवात्र ( च-एव- अत्र ) – निश्चित रूप से ये (कारक); पञ्चमम् – पाँचवा।

 

( कर्मों की सिद्धि में अथवा कर्म को पूर्ण करने में ) शरीर , कर्ता या जीवात्मा , विभिन्न इन्द्रियां , अलग-अलग चेष्टाएँ और विधि का विधान अर्थात भगवान – निश्चित रूप से ये पाँच कर्म के कारक हैं।।18.14।।

 

अधिष्ठानम् – शरीर और जिस देश में यह शरीर स्थित है वह देश – ये दोनों अधिष्ठान हैं। कर्ता – सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृति और प्रकृति के कार्यों के द्वारा ही होती हैं। वे क्रियाएँ चाहे समष्टि हों , चाहे व्यष्टि हों परन्तु उन क्रियाओं का कर्ता स्वयं नहीं है। केवल अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला अर्थात् जिसको चेतन और जड का ज्ञान नहीं है – ऐसा अविवेक की पुरुष ही जब प्रकृति से होने वाली क्रियाओं को अपनी मान लेता है तब वह कर्ता बन जाता है (टिप्पणी प0 896)। ऐसा कर्ता ही कर्मों की सिद्धि में कारण बनता है। करणं च पृथग्विधम् – कुल तेरह करण हैं। पाणि , पाद , वाक् , उपस्थ और पायु – ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ और श्रोत्र , चक्षु , त्वक् , रसना और घ्राण – ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ – ये दस बहिःकरण हैं तथा मन , बुद्धि और अहंकार – ये तीन अन्तःकरण हैं। विविधाश्च पृथक्चेष्टाः – उपर्युक्त तेरह करणों की अलग-अलग चेष्टाएँ होती हैं जैसे – पाणि (हाथ) – आदान-प्रदान करना ; पाद (पैर) – आना-जाना , चलना-फिरना ; वाक् – बोलना ; उपस्थ – मूत्र का त्याग करना ; पायु (गुदा) – मल का त्याग करना ; श्रोत्र – सुनना ; चक्षु – देखना ; त्वक् – स्पर्श करना ; रसना – चखना ; घ्राण – सूँघना ; मन – मनन करना ; बुद्धि – निश्चय करना और अहंकार – मैं ऐसा हूँ आदि अभिमान करना। दैवं चैवात्र पञ्चमम् – कर्मों की सिद्धि में पाँचवें कारण का नाम दैव है। यहाँ दैव नाम संस्कारों का है। मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही संस्कार उसके अन्तःकरण पर पड़ता है। शुभकर्म का शुभ संस्कार पड़ता है और अशुभकर्म का अशुभ संस्कार पड़ता है। वे ही संस्कार आगे कर्म करने की स्फुरणा पैदा करते हैं। जिसमें जिस कर्म का संस्कार जितना अधिक होता है उस कर्म में वह उतनी ही सुगमता से लग सकता है और जिस कर्म का विशेष संस्कार नहीं है उसको करने में उसे कुछ परिश्रम पड़ सकता है। इसी प्रकार मनुष्य सुनता है , पुस्तकें पढ़ता है और विचार भी करता है तो वे भी अपने-अपने संस्कारों के अनुसार ही करता है। तात्पर्य है कि मनुष्य के अन्तःकरण में शुभ और अशुभ – जैसे संस्कार होते हैं उन्हीं के अनुसार कर्म करने की स्फुरणा होती है। इस श्लोक में कर्मों की सिद्धि में पाँच हेतु बताये गये हैं – अधिष्ठान , कर्ता , करण , चेष्टा और दैव। इसका कारण यह है कि आधार के बिना कोई भी काम कहाँ किया जायगा ? इसलिये अधिष्ठान पद आया है। कर्ता के बिना क्रिया कौन करेगा ? इसलिये कर्ता पद आया है। क्रिया करने के साधन (करण) होने से ही तो कर्ता क्रिया करेगा इसलिये करण पद आया है। करने के साधन होने पर भी क्रिया नहीं की जायगी तो कर्मसिद्धि कैसे होगी ? इसलिये चेष्टा पद आया है। कर्ता अपने-अपने संस्कारों के अनुसार ही क्रिया करेगा , संस्कारों के विरुद्ध अथवा संस्कारों के बिना क्रिया नहीं कर सकेगा इसलिये दैव पद आया है। इस प्रकार इन पाँचों के होने से ही कर्मसिद्धि होती है।

 

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