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The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

ज्ञाननिष्ठा का विषय

 

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।18.50।।

 

सिद्धिम् – पूर्णता को प्राप्त करना; यथा-कैसे; ब्रह्म-ब्रह्म; तथा – भी; आप्नोति-प्राप्त करता है; निबोध-सुनो; मे-मुझसे; समासेन-संक्षेप में; एव-वास्तव में; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; निष्ठा-दृढ़ता से स्थित; ज्ञानस्य-ज्ञान की; या-जो; परा-दिव्य।

 

हे कौन्तेय ! अब मुझसे संक्षेप में सुनो कि जो सिद्धि या पूर्णता को प्राप्त कर चुका है वह भी दृढ़ता से दिव्य ज्ञान में स्थित होकर कैसे ब्रह्म को भी पा सकता है अर्थात अन्तःकरण की शुद्धि को प्राप्त हुआ साधक ब्रह्म को, जो कि ज्ञान की पराकाष्ठा है, किस प्रकार से प्राप्त होता है, उस प्रकार को तुम मुझसे संक्षेपमें ही समझो।।18.50।।

 

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे – यहाँ सिद्धि नाम अन्तःकरण की शुद्धि का है जिसका वर्णन पूर्वश्लोक में आये असक्तबुद्धिः , जितात्मा और विगतस्पृहः पदों से हुआ है। जिसका अन्तःकरण इतना शुद्ध हो गया है कि उसमें किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकार की कामना , ममता और आसक्ति नहीं रही उसके लिये कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि की जरूरत नहीं पड़ती अर्थात् उसके लिये कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता। इसलिये इसको सिद्धि कहा है। लोक में तो ऐसा कहा जाता है कि मनचाही चीज मिल गयी तो सिद्धि हो गयी , अणिमादि सिद्धियाँ मिल गयीं तो सिद्धि हो गयी पर वास्तव में यह सिद्धि नहीं है क्योंकि इसमें पराधीनता होती है , किसी बात की कमी रहती है और किसी वस्तु , परिस्थिति आदि की जरूरत पड़ती है। अतः जिस सिद्धि में किञ्चिन्मात्र भी कामना पैदा न हो वही वास्तव में सिद्धि है। जिस सिद्धि के मिलने पर कामना बढ़ती रहे वह सिद्धि वास्तव में सिद्धि नहीं है प्रत्युत एक बन्धन ही है। अन्तःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ साधक ही ब्रह्म को प्राप्त होता है। वह जिस क्रम से ब्रह्म को प्राप्त होता है उसको मुझसे समझ – निबोध मे। कारण कि सांख्ययोग की जो सार-सार बातें हैं वे सांख्ययोगी के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं और उन बातों को समझने की बहुत जरूरत है। निबोध पद का तात्पर्य है कि सांख्ययोग में क्रिया और सामग्री की प्रधानता नहीं है किन्तु उस तत्त्व को समझने की प्रधानता है। इसी अध्याय के तेरहवें श्लोक में भी सांख्ययोगी के विषय में निबोध पद आया है। समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा – सांख्ययोगी की जो आखिरी स्थिति है जिससे बढ़कर साधक की कोई स्थिति नहीं हो सकती वही ज्ञान की परा निष्ठा कही जाती है। उस परा निष्ठा को अर्थात् ब्रह्म को सांख्ययोग का साधक जिस प्रकार से प्राप्त होता है उसको मैं संक्षेप से कहूँगा अर्थात् उसकी सार-सार बातें कहूँगा। ज्ञान की परा निष्ठा प्राप्त करने के लिये साधनसामग्री की आवश्यकता है उसको आगे के तीन श्लोकों में बताते हैं।

 

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