The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

भक्ति सहित कर्मयोग का विषय

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

 

सर्वधर्मान् – सभी प्रकार के धर्म; परित्यज्य-परित्याग कर; माम्-मेरी; एकम्-केवल; शरणम्-शरण में; व्रज-जाओ; अहम्-मैं; त्वाम्-मुमको; सर्व-समस्त; पापेभ्यः-पापों से; मोक्षयिष्यामि-मुक्त करूँगा; मा -मत; शुचः-डरो मत।

 

सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूंगा, डरो मत अर्थात सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर अथवा सब धर्मों का परित्याग करके तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।।18.66।।

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज – भगवान कहते हैं कि सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय , धर्म के निर्णय का विचार छोड़कर अर्थात् क्या करना है और क्या नहीं करना है ? इसको छोड़कर केवल एक मेरी ही शरणमें आ जा। स्वयं भगवान के शरणागत हो जाना – यह सम्पूर्ण साधनों का सार है। इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता।  जैसे – पतिव्रता का अपना कोई काम नहीं रहता। वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के नाते , पति के लिये ही करती है। वह घर , कुटुम्ब , वस्तु , पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले शरीर को भी अपना नहीं मानती प्रत्युत पतिदेव का ही मानती है। तात्पर्य यह हुआ कि जिस प्रकार पतिव्रता पति के परायण होकर पति के गोत्र में ही अपना गोत्र मिला देती है और पति के ही घर पर रहती है उसी प्रकार शरणागत भक्त भी शरीर को लेकर माने जाने वाले गोत्र , जाति , नाम आदि को भगवान के चरणों में अर्पण करके निर्भय , निःशोक , निश्चिन्त और निःशङ्क हो जाता है। गीता के अनुसार यहाँ धर्म शब्द कर्तव्यकर्म का वाचक है। कारण कि इसी अध्याय के 41वें से 44वें श्लोक तक स्वभावज कर्म शब्द आये हैं फिर 47वें श्लोक के पूर्वार्ध में स्वधर्म शब्द आया है। उसके बाद 47वें श्लोक के ही उत्तरार्ध में तथा (प्रकरण के अन्त में) 48वें श्लोक में कर्म शब्द आया है। तात्पर्य यह हुआ कि आदि और अन्त में कर्म शब्द आया है और बीच में स्वधर्म शब्द आया है तो इससे स्वतः ही धर्म शब्द कर्तव्यकर्म का वाचक सिद्ध हो जाता है। अब यहाँ प्रश्न यह होता है कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य’ पद से क्या धर्म अर्थात् कर्तव्यकर्म का स्वरूप से त्याग माना जाय ? इसका उत्तर यह है कि धर्म का स्वरूप से त्याग करना न तो गीता के अनुसार ठीक है और न यहाँ के प्रसङ्गके अनुसार ही ठीक है क्योंकि भगवान की यह बात सुनकर अर्जुन ने कर्तव्यकर्म का त्याग नहीं किया है प्रत्युत ‘करिष्ये वचनं तव’ (18। 73) कहकर भगवान की आज्ञा के अनुसार कर्तव्यकर्म का पालन करना स्वीकार किया है। केवल स्वीकार ही नहीं किया है प्रत्युत अपने क्षात्रधर्म के अनुसार युद्ध भी किया है। अतः उपर्युक्त पद में धर्म अर्थात् कर्तव्य का त्याग करने की बात नहीं है। भगवान भी कर्तव्य के त्याग की बात कैसे कह सकते हैं ? भगवान ने इसी अध्याय के छठे श्लोक में कहा है कि यज्ञ , दान , तप और अपने-अपने वर्ण-आश्रमों के जो कर्तव्य हैं उनका कभी त्याग नहीं करना चाहिये प्रत्युत उनको जरूर करना चाहिये (टिप्पणी प0 970.1)। गीता का पूरा अध्ययन करने से यह मालूम होता है कि मनुष्य को किसी भी हालत में कर्तव्यकर्म का त्याग नहीं करना चाहिये। अर्जुन तो युद्धरूप कर्तव्यकर्म छोड़कर भिक्षा माँगना श्रेष्ठ समझते थे (2। 5) परन्तु भगवान ने इसका निषेध किया (2। 3138)। इससे भी यही सिद्ध होता है कि यहाँ स्वरूप से धर्मों का त्याग नहीं है। अब विचार यह करना है कि यहाँ सम्पूर्ण धर्मों के त्याग से क्या लेना चाहिये ? गीता के अनुसार सम्पूर्ण धर्मों अर्थात् कर्मों को भगवान के अर्पण करना ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। इसमें सम्पूर्ण धर्मों के आश्रय का त्याग करना और केवल भगवान का  आश्रय लेना – दोनों बातें सिद्ध हो जाती हैं। धर्म का आश्रय लेने वाले बार-बार जन्म-मरणको प्राप्त होते हैं – एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते (गीता 9। 21)। इसलिये धर्म का आश्रय छोड़कर भगवान का ही आश्रय लेने पर फिर अपने धर्म का निर्णय करने की जरूरत नहीं रहती। आगे अर्जुन के जीवन में ऐसा हुआ भी है। अर्जुन का कर्ण के साथ युद्ध हो रहा था। इस बीच कर्ण के रथ का चक्का पृथ्वी में धँस गया। कर्ण रथ से नीचे उतरकर रथ के चक्के को निकालने का उद्योग करने लगा और अर्जुन से बोला कि जब तक मैं यह चक्का निकाल न लूँ तब तक तुम ठहर जाओ क्योंकि तुम रथ पर हो और मैं रथ से रहित हूँ और दूसरे कार्य में लगा हूआ हूँ। ऐसे समय रथी को उचित है कि उस पर बाण न छोड़े। तुम सहस्रार्जुन के समान शस्त्र और शास्त्र के ज्ञाता हो और धर्म को जानने वाले हो। इसलिये मेरे ऊपर प्रहार करना उचित नहीं है। कर्ण की बात सुनकर अर्जुन ने बाण नहीं चलाया। तब भगवान ने कर्ण से कहा कि तुम्हारे जैसे आततायी को किसी तरह से मार देना धर्म ही है पाप नहीं (टिप्पणी प0  970.2) और अभी-अभी तुम छः महारथियों ने मिलकर अकेले अभिमन्यु को घेरकर उसे मार डाला। अतः धर्म की दुहाई देने से कोई लाभ नहीं है। हाँ , यह सौभाग्यकी बात है कि इस समय तुम्हें धर्म की बात याद आ रही है पर जो स्वयं धर्म का पालन नहीं करता उसे धर्म की दुहाई देने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसा कहकर भगवान ने अर्जुन को बाण चलाने की आज्ञा दी तो अर्जुन ने बाण चलाना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार यदि अर्जुन अपनी बुद्धि से धर्म का निर्णय करते तो भूल कर बैठते । अतः उन्होंने धर्म का निर्णय भगवान पर ही रखा और भगवान ने धर्म का निर्णय किया भी। अर्जुन के मन में सन्देह था कि हम लोगों के लिये युद्ध करना श्रेष्ठ है अथवा युद्ध न करना श्रेष्ठ है (2। 6)। यदि हम युद्ध करते हैं तो अपने कुटुम्ब का नाश होता है और अपने कुटुम्ब का नाश करना बड़ा भारी पाप है। इससे तो अनर्थपरम्परा ही बढ़ेगी (2। 40 — 44)। दूसरी तरफ हम लोग देखते हैं तो क्षत्रिय के लिये युद्ध से बढ़कर श्रेय का कोई साधन नहीं है। अतः भगवान कहते हैं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है? क्या धर्म है और क्या अधर्म है? इस पचड़े में तू क्यों पड़ता है ? तू धर्म के निर्णय का भार मेरे  पर छोड़ दे। यही सर्वधर्मान्परित्यज्य का तात्पर्य है। मामेकं शरणं व्रज – इन पदों में एकम् पद माम् का विशेषण नहीं हो सकता । माम् (भगवान) एक ही हैं , अनेक नहीं। इसलिये एकम् पदका अर्थ अनन्य लेना ही ठीक बैठता है। दूसरी बात? अर्जुनने तदेकं वद निश्चित्य (3। 2) और यच्छ्रेय एतयोरेकम् (5। 1) पदोंमें भी एकम् पद से सांख्य और कर्मयोग के विषय में एक निश्चित श्रेय का साधन पूछा है। उसी ‘एकम्’ पद को लेकर भगवान यहाँ यह बताना चाहते हैं कि सांख्ययोग , कर्मयोग आदि जितने भी भगवत्प्राप्ति के साधन हैं उन सम्पूर्ण साधनों में मुख्य साधन एक अनन्य शरणागति ही है। गीता में अर्जुन ने अपने कल्याण के साधन के विषय में कई तरह के प्रश्न किये और भगवान ने उनके उत्तर भी दिये। वे सब साधन होते हुए भी गीता के पूर्वापर को देखने से यह बात स्पष्ट दिखती है कि सम्पूर्ण साधनों का सार और शिरोमणि साधन भगवान के अनन्यशरण होना ही है। भगवान ने गीता में जगह-जगह अनन्यभक्ति की बहुत महिमा गायी है। जैसे दुस्तर माया को सुगमता से तरने का उपाय अनन्य शरणागति ही है (टिप्पणी प0 971.1) (7। 14) , अनन्यचेता के लिये मैं सुलभ हूँ (टिप्पणी प0 971.2) (8। 14) , परम पुरुष की प्राप्ति अनन्य भक्ति से ही होती है (8। 22) , अनन्य भक्तों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ (9। 22) , अनन्य भक्ति से ही भगवान को  जाना , देखा तथा प्राप्त किया जा सकता है , (11। 54) अनन्य भक्तों का मैं बहुत जल्दी उद्धार करता हूँ , (12। 37) गुणातीत होने का उपाय अनन्यभक्ति ही है (14। 26)। इस प्रकार अनन्य भक्ति की महिमा गाकर भगवान यहाँ पूरी गीता का सार बताते हैं – मामेकं शरणं व्रज। तात्पर्य है कि उपाय और उपेय , साधन और साध्य मैं ही हूँ। मामेकं शरणं व्रज का तात्पर्य मन-बुद्धि के द्वारा शरणागति को स्वीकार करना नहीं है प्रत्युत स्वयं को भगवान की शरण में जाना है। कारण कि स्वयं के शरण होने पर मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ , शरीर आदि भी उसी में आ जाते हैं – अलग नहीं रहते। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः – यहाँ कोई ऐसा मान सकता है कि पहले अध्याय में अर्जुन ने जो युद्ध से पाप होने की बातें कही थीं , उन पापों से छुटकारा दिलाने का प्रलोभन भगवान ने दिया है परन्तु यह मान्यता यक्तिसंगत नहीं है क्योंकि जब अर्जुन सर्वथा भगवान के शरण हो गये हैं तब उनके पाप कैसे रह सकते हैं ? (टिप्पणी प0 971.3) और उनके लिये प्रलोभन कैसे दिया जा सकता है ? अर्थात् उनके लिये प्रलोभन देना बनता ही नहीं। हाँ , पापों से मुक्त करने का प्रलोभन देना हो तो वह शरणागत होने के पहले ही दिया जा सकता है , शरणागत होने के बाद नहीं। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा – इसका भाव यह है कि जब तू सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर मेरी शरण में आ गया और शरण होने के बाद भी तुम्हारे भावों , वृत्तियों , आचरणों आदि में फरक नहीं पड़ा अर्थात् उनमें सुधार नहीं हुआ ; भगवत्प्रेम , भगवद्दर्शन आदि नहीं हुए और अपने में अयोग्यता , अनधिकारिता , निर्बलता आदि मालूम होती है तो भी उनको लेकर तुम चिन्ता या भय मत करो। कारण कि जब तुम मेरी अनन्यशरण हो गये तो वह कमी तुम्हारी कमी कैसे रही ? उसका सुधार करना तुम्हारा काम कैसे रहा ? वह कमी मेरी कमी है। अब उस कमी को दूर करना , उसका सुधार करना मेरा काम रहा। तुम्हारा तो बस एक ही काम है । वह काम है – निर्भय , निःशोक , निश्चिन्त और निःशङ्क होकर मेरे चरणों में पड़े रहना (टिप्पणी प0 972.1) परन्तु अगर तेरे में भय , चिन्ता , वहम आदि दोष आ जायँगे तो वे शरणागति में बाधक हो जायँगे और सब भार तेरे पर आ जायगा। शरण होकर अपने पर भार लेना शरणागति में कलङ्क है। जैसे विभीषण भगवान राम के चरणों की शरण हो जाते है तो फिर विभीषण के दोष को भगवान अपना ही दोष मानते हैं। एक समय विभीषणजी समुद्र के इस पार आये। वहाँ विप्रघोष नामक गाँव में उनसे एक अज्ञात ब्रह्महत्या हो गयी। इस पर वहाँ के ब्राह्मणों ने इकट्ठे होकर विभीषण को खूब मारा-पीटा पर वे मरे नहीं। फिर ब्राह्मणों ने उन्हें जंजीरों से बाँधकर जमीन के भीतर एक गुफा में ले जाकर बंद कर दिया। रामजी को विभीषण के कैद होने का पता लगा तो वे पुष्पकविमान के द्वारा तत्काल विप्रघोष नामक गाँव में पहुँच गये और वहाँ विभीषण का पता लगाकर उनके पास गये। ब्राह्मणों ने रामजी का बहुत आदर-सत्कार किया और कहा कि महाराज इसने ब्रह्महत्या कर दी है। इसको हमने बहुत मारा पर यह मरा नहीं। भगवान राम ने कहा कि हे ब्राह्मणों ! विभीषण को मैंने कल्पतक की आयु और राज्य दे रखा है , वह कैसे मारा जा सकता है ? और उसको मारने की जरूरत ही क्या है ? वह तो मेरा भक्त है। भक्त के लिये मैं स्वयं मरने को तैयार हूँ। दास के अपराध की जिम्मेवारी वास्तव में उसके मालिक पर ही होती है अर्थात् मालिक ही उसके दण्ड का पात्र होता है। अतः विभीषण के बदले में आप लोग मेरे को ही दण्ड दें (टिप्पणी प0 972.2)। भगवान की यह शरणागतवत्सलता देखकर सब ब्राह्मण आश्यर्य करने लगे और उन सबने भगवान की  शरण ले ली। तात्पर्य यह हुआ कि मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं – इस अपनेपन के समान योग्यता , पात्रता , अधिकारिता आदि कुछ भी नहीं है। यह सम्पूर्ण साधनों का सार है। छोटा सा बच्चा भी अपनेपन के बल पर ही आधी रात में सारे घर को नचाता है अर्थात् जब वह रात में रोता है तो सारे घरवाले उठ जाते हैं और उसे राजी करते हैं। इसलिये शरणागत भक्त को अपनी योग्यता आदि की तरफ न देखकर भगवान के साथ अपनेपन की तरफ ही देखते रहना चाहिये। मा शुचः का तात्पर्य है – (1) मेरे शरण होकर तू चिन्ता करता है यह मेरे प्रति अपराध है । तेरा अभिमान है और शरणागति में कलङ्क है। मेरे शरण होकर भी मेरा पूरा विश्वास , भरोसा न रखना ही मेरे प्रति अपराध है। अपने दोषों को लेकर चिन्ता करना वास्तव में अपने बल का अभिमान है क्योंकि दोषों को मिटाने में अपनी सामर्थ्य मालूम देने से ही उनको मिटाने की चिन्ता होती है। हाँ , अगर दोषों को मिटाने में चिन्ता न होकर दुःख होता है तो दुःख होना इतना दोषी नहीं है। जैसे छोटे बालक  के पास कुत्ता आता है तो वह कुत्तेको देखकर रोता है , चिन्ता नहीं करता। ऐसे ही दोषों का न सुहाना दोष नहीं है प्रत्युत चिन्ता करना दोष है। चिन्ता करने का अर्थ यही होता है कि भीतर में अपने छिपे हुए बल का आश्रय है (टिप्पणी प0 972.3) और यही तेरा अभिमान है। मेरा भक्त होकर भी तू चिन्ता करता है तो तेरी चिन्ता दूर कहाँ होगी ? लोग भी देखेंगे तो यही कहेंगे कि यह भगवान का भक्त है और चिन्ता करता है। भगवान इसकी चिन्ता नहीं मिटाते । तू मेरा विश्वास न करके चिन्ता करता है तो विश्वास की कमी तो है तेरी और कलङ्क आता है मेरे पर , मेरी शरणागति पर। इसको तू छोड़ दे। (2) तेरे भाव , वृत्तियाँ , आचरण शुद्ध नहीं हुए हैं तो भी तू इनकी चिन्ता मत कर। इनकी चिन्ता मैं करूँगा। (3) दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में अर्जुन भगवान के शरण हो जाते हैं और फिर आठवें श्लोक में कहते हैं कि इस भूमण्डल का धन-धान्य से सम्पन्न निष्कण्टक राज्य मिलने पर अथवा देवताओं का आधिपत्य मिलने पर भी इन्द्रियों को सुखाने वाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता। भगवान मानो कह रहे हैं कि तेरा कहना ठीक ही है क्योंकि भौतिक नाशवान पदार्थों के सम्बन्ध  से किसीका शोक कभी दूर हुआ नहीं , हो सकता नहीं और होने की सम्भावना भी नहीं परन्तु मेरे शरण होकर जो तू शोक करता है यह तेरी बड़ी भारी गलती है। तू मेरे शरण होकर भी भार अपने सिर पर ले रहा है (4) शरणागत होने के बाद भक्त को लोक-परलोक , सद्गति-दुर्गति आदि किसी भी बात की चिन्ता नहीं करनी चाहिये। इस विषय में किसी भक्त ने कहा है – दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो नरके वा नरकान्तक प्रकामम्। अवधीरितशारदारविन्दौ चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि।। हे नरकासुर का अन्त करने वाले प्रभो ! आप मेरे को चाहे स्वर्ग में रखें , चाहे भूमण्डल पर रखें और चाहे यथेच्छ नरक में रखें अर्थात् आप जहाँ रखना चाहें वहाँ रखें। जो कुछ करना चाहें वह करें। इस विषय में मेरा कुछ भी कहना नहीं है। मेरी तो एक यही माँग है कि शरद् ऋतु के कमल की शोभा को तिरस्कृत करने वाले आपके अति सुन्दर चरणों का मृत्यु जैसी भयंकर अवस्था में भी चिन्तन करता रहूँ , आपके चरणों को भूलूँ नहीं। शरणागतिसम्बन्धी विशेष बात- शरणागत भक्त मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं – इस भाव को दृढ़ता से पकड़ लेता है , स्वीकार कर लेता है तो उसके भय , शोक , चिन्ता , शङ्का आदि दोषों की जड़ कट जाती है अर्थात् दोषों का आधार मिट जाता है। कारण कि भक्ति की दृष्टि से सभी दोष भगवान की विमुखता पर ही टिके रहते हैं। भगवान के सम्मुख होने पर भी संसार और शरीर के आश्रय के संस्कार रहते हैं जो भगवान के सम्बन्ध की दृढ़ता होने पर मिट जाते हैं (टिप्पणी 973.1)। उनके मिटने पर सब दोष भी मिट जाते हैं।सम्बन्ध का दृढ़ होना क्या है ? भय , शोक , चिन्ता , शङ्का , परीक्षा ओर विपरीत भावना का न होना ही सम्बन्ध का दृढ़ होना है। अब इन पर विचार करें। (1) निर्भय होना – आचरणों  की कमी होनेसे भीतर से भय पैदा होता है और साँप , बिच्छू , बाघ आदि से बाहर से भय पैदा होता है। शरणागत भक्त के ये दोनों ही प्रकार के भय मिट जाते हैं। इतना ही नहीं , पतञ्जलि महाराज ने जिस मृत्यु के भय को पाँचवाँ क्लेश माना है (टिप्पणी प0 973.2) और जो बड़े-बड़े विद्वानों को भी होता है (टिप्पणी प0 973.3) वह भय भी सर्वथा मिट जाता है (टिप्पणी प0 973.4)। अब मेरी वृत्तियाँ खराब हो जाएंगी – ऐसा भय का भाव भी साधक को भीतर से ही निकाल देना चाहिये क्योंकि मैं भगवान की कृपा में तरान्तर हो गया हूँ , अब मेरे को किसी बात का भय नहीं है। इन वृत्तियों को मेरी मानने से ही मैं इनको शुद्ध नहीं कर सका क्योंकि इनको मेरी मानना ही मलिनता है – ममता मल जरि जाइ (मानस 7। 117क)। अतः अब मैं कभी भी इनको मेरी नहीं मानूँगा। जब वृत्तियाँ मेरी हैं ही नहीं तो मेरे को भय किस बात का ? अब तो केवल भगवान की कृपा ही कृपा है । भगवान की कृपा ही सर्वत्र परिपूर्ण हो रही है । यह बड़ी खुशी की , बड़ी प्रसन्नता की बात है । कई ऐसी शङ्का करते हैं कि भगवान के शरण होकर उनका भजन करने से तो द्वैत हो जायगा अर्थात् भगवान और भक्त – ये दो हो जायँगे और दूसरे से भय होता है – द्वितीयाद्वै भयं भवति (बृहदारण्यक0 1। 4। 2)। पर यह शङ्का निराधार है। भय द्वितीय से तो होता है पर आत्मीय से भय नहीं होता अर्थात भय दूसरे से होता है अपने से नहीं। प्रकृति और प्रकृति का कार्य शरीरसंसार द्वितीय है इसलिये इनसे सम्बन्ध रखने पर ही भय होता है क्योंकि इनके साथ सदा सम्बन्ध रह ही नहीं सकता। कारण यह है कि प्रकृति और पुरुष का स्वभाव सर्वथा भिन्न-भिन्न है । जैसे एक जड है और एक चेतन , एक विकारी है और एक निर्विकारी , एक परिवर्तनशील है और एक अपरिवर्तनशील , एक प्रकाश्य है और एक प्रकाशक इत्यादि।भगवान द्वितीय नहीं हैं। वे तो आत्मीय हैं क्योंकि जीव उनका सनातन अंश है , उनका स्वरूप है। अतः भगवान के शरण होने पर उन से भय कैसे हो सकता है ? प्रत्युत उनके शरण होने  पर मनुष्य सदाके लिये अभय हो जाता है। स्थूल दृष्टि से देखा जाय तो बच्चे को माँ से दूर रहने पर भय होता है पर माँ की गोद में चले जाने पर उसका भय मिट जाता है क्योंकि माँ उसकी अपनी है। भगवान का भक्त इससे विलक्षण होता है। कारण कि बच्चे और माँ में तो भेदभाव दिखता है पर भक्त और भगवान में भेदभाव सम्भव ही नहीं। (2) निःशोक होना – जो बात बीत चुकी है उसको लेकर शोक होता है। बीती हुई बात को लेकर शोक करना बड़ी भारी भूल है क्योंकि जो हुआ है वह अवश्यम्भावी था और जो नहीं होने वाला है वह कभी हो ही नहीं सकता तथा अभी जो हो रहा है वह ठीक-ठीक (वास्तविक) होने वाला ही हो रहा है फिर उसमें शोक करने की कोई बात ही नहीं है (टिप्पणी प0 974.1)। प्रभु के इस मङ्गलमय विधान को जानकर शरणागत भक्त सदा निःशोक रहता है । शोक उसके पास कभी आता ही नहीं। (3) निश्चिन्त होना – जब भक्त अपनी मानी हुई वस्तुओं सहित अपने आप को भगवान के समर्पित कर देता है तब उसको लौकिक-पारलौकिक किञ्चिन्मात्र भी चिन्ता नहीं होती अर्थात् अभी जीवननिर्वाह कैसे होगा ? कहाँ रहना होगा ? मेरी क्या दशा होगी ? क्या गति होगी ? आदि चिन्ताएँ बिलकुल नहीं रहतीं (टिप्पणी प0 974.2)। भगवान के शरण होने पर शरणागत भक्त में यह एक बात आती है कि अगर मेरा जीवन प्रभु के लायक सुन्दर और शुद्ध नहीं बना तो भक्तों की बात मेरे आचरण में कहाँ आयी अर्थात् नहीं आयी क्योंकि मेरी वृत्तियाँ ठीक नहीं रहतीं। वास्तव में मेरी वृत्तियाँ है – ऐसा मानना ही दोष है , वृत्तियाँ उतनी दोषी नहीं हैं। मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ , शरीर आदि में जो मेरापन है – यही गलती है क्योंकि जब मैं भगवान के शरण हो गया और जब सब कुछ उनके अर्पण कर दिया तो फिर मन , बुद्धि आदि की अशुद्धि की चिन्ता कभी नहीं करनी चाहिये अर्थात् मेरी वृत्तियाँ ठीक नहीं हैं – ऐसा भाव कभी नहीं लाना चाहिये। किसी कारणवश अचानक ऐसी वृत्तियाँ आ भी जायँ तो आर्तभाव से हे मेरे नाथ ! हे मेरे प्रभो ! बचाओ , बचाओ , बचाओ । ऐसे प्रभु को पुकारना चाहिये क्योंकि वे मेरे स्वामी हैं , मेरे सर्वप्रथम प्रभु हैं तो अब मैं चिन्ता क्यों करूँ ? और भगवान ने भी कह दिया है कि तू चिन्ता मत कर (मा शुचः)। अतः निश्चिन्त होकर मन से भगवान के चरणों में गिर जाय और भगवान से कह दे – हे नाथ ! यह सब आपके हाथ की बात है , आप जानें। सर्वप्रथम प्रभु के शरण भी हो गये और चिन्ता भी करें – ये दोनों बातें बड़ी विरोधी हैं क्योंकि शरण हो गये तो चिन्ता कैसी ? और चिन्ता होती है तो शरणागति कैसी ? इसलिये शरणागत को ऐसा सोचना चाहिये कि जब भगवान यह कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण पापों से छुड़ा दूँगा तो क्या ऐसी वृत्तियों से छूटने के लिये मेरे को कुछ करना पड़ेगा ? मैं तो बस आपका हूँ। हे भगवन ! मेरे में वृत्तियों को अपना मानने का भाव कभी आये ही नहीं। हे नाथ ! शरीर , इन्द्रियाँ , प्राण , मन , बुद्धि – ये कभी मेरे दिखे ही नहीं परन्तु हे नाथ ! सब कुछ आपको देने पर भी ये शरीर आदि कभी-कभी मेरे दिख जाते हैं ।अब इस अपराध से मेरे को आप ही छुड़ाइये – ऐसा कहकर निश्चिन्त हो जाय। (4) निःशङ्क होना – भगवान के सम्बन्ध में कभी यह सन्देह न करे कि मैं भगवान का हुआ या नहीं। भगवान ने मुझे स्वीकार किया या नहीं प्रत्युत इस बात को देखे कि मैं तो अनादिकाल से भगवान का ही रहूँगा। मैंने ही अपनी मूर्खता से अपने को भगवान से अलग – विमुख मान लिया था परन्तु मैं अपने को भगवान से कितना ही अलग मान लूँ तो भी उनसे अलग हो सकता ही नहीं और होना सम्भव भी नहीं। अगर मैं भगवान से अलग होना भी चाहूँ तो भी अलग कैसे हो सकता हूँ ? क्योंकि भगवान ने कहा है कि यह जीव मेरा ही अंश है – मम एव अंशः (गीता 15। 7)। इस प्रकार मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं – इस वास्तविकता की स्मृति आते ही शङ्काएँ – सन्देह मिट जाते हैं। शङ्काओं – सन्देहों के लिये किञ्चिन्मात्र भी गुंजाइश नहीं रहती। (5) परीक्षा न करना – भगवान के शरण होकर ऐसी परीक्षा न करे कि जब मैं भगवान के शरण हो गया हूँ तो मेरे में ऐसे-ऐसे लक्षण घटने चाहिये। यदि ऐसे-ऐसे लक्षण मेरे में नहीं हैं तो मैं भगवान के शरण कहाँ हुआ ? प्रत्युत अद्वेष्टा आदि (गीता 12। 13 – 19) गुणों की अपने में कमी दिखे तो आश्चर्य करे कि मेरे में यह कमी कैसे रह गयी ? (टिप्पणी प0 975) ऐसा भाव आते ही यह कमी नहीं रहेगी , मिट जायगी। कारण कि यह उसका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पहले अद्वेष्टा आदि गुण जितने कम थे उतने कम अब नहीं हैं। शरणागत होने पर भक्तों के जितने भी लक्षण हैं वे सब बिना प्रयत्न किये जाते हैं।(6) विपरीत धारणा न करना – भगवान के शरणागत भक्त में यह विपरीत धारणा भी कैसे हो सकती है ? कि मैं भगवान का नहीं हूँ क्योंकि यह मेरे मानने अथवा न मानने पर निर्भर नहीं है। भगवान का और मेरा परस्पर जो सम्बन्ध है वह अटूट है , अखण्ड है , नित्य है। मैंने इस सम्बन्ध की तरफ खयाल नहीं किया यह मेरी गलती थी। अब वह गलती मिट गयी तो फिर विपरीत धारणा हो ही कैसे सकती है ? जो मनुष्य सच्चे हृदय से प्रभु की शरणागति को स्वीकार कर लेता है उसमें भय , शोक , चिन्ता आदि दोष नहीं रहते। उसका शरणभाव स्वतः ही दृढ़ होता चला जाता है । जैसे विवाह होने के बाद कन्या का अपने पिता के घर से सम्बन्धविच्छेद और पति के घर से सम्बन्ध स्वतः ही दृढ़ होता चला जाता है। वह सम्बन्ध यहाँ तक दृढ़ हो जाता है कि जब वह कन्या दादी-परदादी बन जाती है तब उसको स्वप्न में भी यह भाव नहीं आता कि मैं यहाँ की नहीं हूँ। उसके मन में यह भाव दृढ़ हो जाता है कि मैं तो यहाँ की ही हूँ और ये सब मेरे ही हैं। जब उसके पौत्र की स्त्री आती है और घर में उद्दण्डता करती है , खटपट मचाती है तो वह (दादी) कहती है कि इस परायी जायी छोकरी ने मेरा घर बिगाड़ दिया पर उस बूढ़ी दादी को यह बात याद ही नहीं आती कि मैं भी तो परायी जायी (पराये घर में जन्मी) हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि जब बनावटी सम्बन्ध में भी इतनी दृढ़ता हो सकती है तब भगवान के ही अंश इस प्राणी का भगवान के साथ जो नित्य सम्बन्ध है वह दृढ़ हो जाय – इसमें आश्चर्य ही क्या है ? वास्तव में भगवान के सम्बन्ध की दृढ़ता के लिये केवल संसार के माने हुए सम्बन्धों का त्याग करने की ही आवश्यकता है। सच्चे हृदय से प्रभु के चरणों की शरण होने पर उस शरणागत भक्त में यदि किसी भाव , आचरण आदि की किञ्चित कमी रह जाय , कभी विपरीत वृत्ति पैदा हो जाय अथवा किसी परिस्थिति में पड़कर (परवशता से) कभी किञ्चित् कोई दुष्कर्म हो जाय तो उसके हृदय में जलन पैदा हो जायगी। इसलिये उसके लिये अन्य कोई प्रायश्चित्त करने की आवश्यकता नहीं है। भगवान कृपा करके उसके उस पाप को सर्वथा नष्ट कर देते हैं (टिप्पणी प0 976.1)। भगवान भक्त के अपनेपन को ही देखते हैं , गुणों और अवगुणों को नहीं (टिप्पणी प0 976.2) अर्थात् भगवान को भक्त के दोष दिखते ही नहीं , उनको तो केवल भक्त के साथ जो अपनापन है वही दिखता है। कारण कि स्वरूप से भक्त सदा से ही भगवान का है। दोष आगन्तुक होने से आते-जाते रहते हैं और वह नित्य निरन्तर ज्यों का त्यों ही रहता है। इसलिये भगवान की दृष्टि सदा इस वास्तविकता पर ही जमी रहती है। जैसे कीचड़ आदि से सना हुआ बच्चा जब माँ के सामने आता है तब माँ की दृष्टि केवल अपने बच्चे की तरफ जाती है , बच्चे की मैले की तरफ नहीं जाती। बच्चे की दृष्टि भी मैले की तरफ नहीं जाती। माँ साफ करे या न करे पर बच्चे की दृष्टि में तो मैला है ही नहीं , उसकी दृष्टि में तो केवल माँ ही है। द्रौपदी के मनमें कितना द्वेष और क्रोध भरा हुआ था कि जब दुःशासन के खून से अपने केश धोऊँगी , तभी केशों को बाँधूँगी परन्तु द्रौपदी जब भी भगवान को पुकारती है भगवान चट आ चाते हैं क्योंकि भगवान के साथ द्रौपदी का गाढ़ अपनापन था। भगवान के साथ अपनापन होने में दो भाव रहते हैं – (1) भगवान मेरे हैं और (2) मैं भगवान का हूँ। इन दोनों में भगवान का सम्बन्ध समान रीति से रहते हुए भी भगवान मेरे हैं – इस भाव में भगवान से अपनी अनुकूलता की इच्छा है कि भगवान मेरे हैं तो मेरी इच्छा की पूर्ति क्यों नहीं करते ? परन्तु मैं भगवान का हूँ – इस भाव में भगवान से अपनी अनुकूलता की इच्छा नहीं हो सकती क्योंकि मैं भगवान का हूँ तो भगवान मेरे लिये जैसा ठीक समझें वैसा ही निःसंकोच होकर करें। इसलिये साधक को चाहिये कि वह भगवान की ही मरजी में सर्वथा अपनी मरजी मिला दे। भगवान पर अपना किञ्चित भी आधिपत्य न माने प्रत्युत अपने पर उनका पूरा आधिपत्य माने। कहीं भी भगवान हमारे मन की करें तो उसमें संकोच हो कि मेरे लिये भगवान को ऐसा करना पड़ा । यदि अपने मन की बात पूरी होने से संकोच नहीं होता प्रत्युत संतोष होता है तो यह शरणागति नहीं है। शरणागत भक्त शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि के प्रतिकूल परिस्थिति में भी भगवान की मरजी समझकर प्रसन्न रहता है। शरणागत भक्त को अपने लिये कभी किञ्चिन्मात्र भी कुछ करना शेष नहीं रहता क्योंकि उसने सम्पूर्ण ममता वाली वस्तुओं सहित अपने आपको भगवान के समर्पित कर दिया – जो वास्तव में प्रभु का ही था। अब करने , कराने आदि का सब काम भगवान का ही रह गया। ऐसी अवस्था में वह कठिन से कठिन और भयंकर से भंयकर घटना , परिस्थिति में भी अपने पर प्रभु की महान कृपा देखकर सदा प्रसन्न रहता है , मस्त रहता है। जैसे गरुडजी के पूछने पर काकभुशुण्डिजी ने अपने पूर्वजन्म के ब्राह्मणशरीर की कथा सुनायी जिसमें लोमश ऋषि ने शाप देकर उन्हें (ब्राह्मण को) पक्षियों में नीच चाण्डाल पक्षी (कौआ) बना दिया परन्तु काकभुशुण्डिजी के मन में न कुछ भय हुआ और न कुछ दीनता ही आयी। उन्होंने उसमें भगवान का शुद्ध विधान ही समझा। केवल समझा ही नहीं प्रत्युत मन ही मन बोल उठे – उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन (मानस 7। 113। 1)। ऐसा भयंकर शाप मिलने पर भी जब काकभुशुण्डिजी की प्रसन्नता में कोई कमी नहीं आयी तब लोमश ऋषि ने उनको भगवान का प्यारा भक्त समझकर अपने पास बुलाया और बालक रामजी का ध्यान बताया। फिर भगवान की कथा सुनायी और अत्यन्त प्रसन्न होकर काकभुशुण्डिजी के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया – मेरी कृपा से तुम्हारे हृदय में अबाध , अखण्ड रामभक्ति रहेगी। तुम रामजी के प्यारे हो जाओगे। तुम सम्पूर्ण गुणों की खान बन जाओगे। जिस रूप की इच्छा करोगे वह रूप धारण कर लोगे। जिस स्थान पर तुम रहोगे उसमें एक योजन पर्यन्त माया का कण्टक किञ्चिन्मात्र भी नहीं आयेगा आदि आदि। इस प्रकार बहुत से आशीर्वाद देते ही आकाशवाणी हुई कि हे ऋषे ! तुमने जो कुछ कहा वह सब सच्चा होगा। यह मन , वाणी , कर्म से मेरा भक्त है। इन्हीं बातों को लेकर भगवान के विधान में सदा प्रसन्न रहने वाले काकभुशुण्डिजी ने कहा है – भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महा रिषि साप। मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।। (मानस 7। 114 ख) यहाँ भजन प्रताप शब्दों का अर्थ है – भगवान के विधानमें हर समय प्रसन्न रहना। विपरीतसेविपरीत अवस्थामें भी प्रेमी भक्तकी प्रसन्नता अधिक से अधिक बढ़ती रहती है क्योंकि प्रेम का स्वरूप ही प्रतिक्षण वर्धमान है।यह नियम है कि जो चीज अपनी होती है , सदा ही अपने को प्यारी लगती है। भगवान सम्पूर्ण जीवों को अपना प्रिय मानते हैं – सब मम प्रिय सब मम उपजाए (मानस 7। 86। 2) और इस जीव को भी प्रभु स्वतः ही प्रिय लगते हैं। हाँ , यह बात दूसरी है कि यह जीव परिवर्तनशील संसार और शरीर को भूल से अपना मानकर अपने प्यारे प्रभु से विमुख हो जाता है। इसके विमुख होने पर भी भगवान ने अपनी तरफ से किसी भी जीव का त्याग नहीं किया है और न कभी त्याग कर ही सकते हैं। कारण कि जीव सदा से साक्षात भगवान का ही अंश है। इसलिये सम्पूर्ण जीवों के साथ भगवान की आत्मीयता अक्षुण्ण , अखणडित रूप से स्वाभाविक ही बनी हुई है। इसी से वे मात्र जीवों पर कृपा करने के लिये अर्थात् भक्तों की रक्षा , दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना – इन तीन बातों के लिये समय-समय पर अवतार लेते हैं (गीता 4। 8)। इन तीनों बातों में केवल भगवान की आत्मीयता ही टपक रही है नहीं तो भक्तों की रक्षा , दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना से भगवान का क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। भगवान तो ये तीनों ही काम केवल प्राणिमात्र के कल्याण के लिये ही करते हैं। इससे भी प्राणिमात्र के साथ भगवान की स्वाभाविक आत्मीयता , कृपालुता , प्रियता , हितैषिता , सुहृत्ता और निरपेक्ष उदारता ही सिद्ध होती है और यहाँ भी इसी दृष्टि से अर्जुन से कहते हैं – मद्भक्तो भव मन्मना भव मद्याजी भव मां नमस्कुरु। इन चारों बातों में भगवान का  तात्पर्य केवल जीव को अपने सम्मुख कराने में ही है  जिससे सम्पूर्ण जीव असत् पदार्थोंसे विमुख हो जाएं क्योंकि दुःख , संताप , बार-बार जन्मना-मरना , मात्र विपत्ति आदि में मुख्य कारण भगवान से विमुख होना ही है। भगवान जो कुछ भी विधान करते हैं वह संसारमात्र के सम्पूर्ण जीवों के कल्याण के लिये ही करते हैं – बस भगवान की इस कृपा की तरफ जीव की दृष्टि हो जाय तो फिर उसके लिये क्या करना बाकी रहा ? जीवों के हित के लिये भगवान के हृदय में एक तड़पन है इसीलिये भगवान ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ वाली अत्यन्त गोपनीय बात कह देते हैं। कारण कि भगवान जीवमात्र को अपना मित्र मानते हैं – सुहृदं सर्वभूतानाम् (5। 29) और उन्हें यह स्वतन्त्रता देते हैं कि वे कर्मयोग , ज्ञानयोग , भक्तियोग आदि जितने भी साधन हैं उनमें से किसी भी साधन के द्वारा सुगमतापूर्वक मेरी प्राप्ति कर सकते हैं और दुःख , संताप आदि को सदा के लिये समूल नष्ट कर सकते हैं। वास्तव में जीव का उद्धार केवल भगवत्कृपा से ही होता है। कर्मयोग , ज्ञानयोग , भक्तियोग , अष्टाङ्गयोग , लययोग , हठयोग , राजयोग , मन्त्रयोग आदि जितने भी साधन हैं वे सब के सब भगवान के द्वारा और भगवत्तत्त्व को जानने वाले महापुरुषों के द्वारा ही प्रकट किये गये हैं (टिप्पणी प0 977.1)। अतः इन सब साधनों में भगवत्कृपा ही ओत-प्रोत है। साधन करने में तो साधक निमित्तमात्र होता है पर साधन की सिद्धि में भगवत्कृपा ही मुख्य है। शरणागत भक्त को तो ऐसी चिन्ता भी कभी नहीं करनी चाहिये कि अभी भगवान के दर्शन नहीं हुए , भगवान के चरणों में प्रेम नहीं हुआ , अभी वृत्तियाँ शुद्ध नहीं हुईं आदि। इस प्रकार की चिन्ताएँ करना मानो बँदरी का बच्चा बनना है। बँदरी का बच्चा स्वयं ही बँदरी को पकड़े रहता है। बँदरी कूदे-फाँदे , किधर भी जाय , बच्चा स्वयं बँदरी से चिपका रहता है। भक्त को तो अपनी सब चिन्ताएँ भगवान पर ही छोड़ देनी चाहिये अर्थात् भगवान दर्शन दें या न दें , प्रेम दें या न दें , वृत्तियों को ठीक करें या न करें , हमें शुद्ध बनायें या न बनायें – यह सब भगवान की मरजी पर छोड़ देना चाहिये। उसे तो बिल्ली का बच्चा बनना चाहिये। बिल्ली का बच्चा अपनी माँ पर निर्भर रहता है। बिल्ली चाहे जहाँ रखे , चाहे जहाँ ले जाय। बिल्ली अपनी मरजी से बच्चे को उठाकर ले जाती है तो वह पैर समेट लेता है। ऐसे ही शरणागत भक्त संसार की तरफ से अपने हाथ-पैर समेटकर (टिप्पणी प0 977.2) केवल भगवान का चिन्तन , नामजप आदि करते हुए भगवान की तरफ ही देखता रहता है। भगवान का जो विधान है उसमें परम प्रसन्न रहता है , अपने मन की कुछ भी नहीं लगाता। जैसे कुम्हार पहले मिट्टी को सिर पर उठाकर लाता है तो कुम्हार की मरजी फिर उस मिट्टी को गीला करके उसे रौंदता है तो कुम्हार की मरजी फिर चक्के पर चढ़ा कर घुमाता है तो कुम्हार की मरजी। मिट्टी कभी कुछ नहीं कहती कि तुम घड़ा बनाओ , सकोरा , मटकी बनाओ। कुम्हार चाहे जो बनाये उसकी मरजी है। ऐसे ही शरणागत भक्त अपनी कुछ भी मरजी , मन की बात नहीं रखता। वह जितना अधिक निश्चिन्त और निर्भय होता है , भगवत्कृपा उसको अपने आप उतना ही अधिक अपने अनुकूल बना लेती है और जितनी वह चिन्ता करता है , अपना बल मानता है उतना ही वह आती हुई भगवत्कृपा में बाधा लगाता है अर्थात् शरणागत होने पर भगवान की ओर से जो विलक्षण , विचित्र , अखण्ड , अटूट कृपा आती है , अपनी चिन्ता करने से उस कृपा में बाधा लग जाती है । जैसे धीवर (मछुआ) मछलियों को पकड़ने के लिये नदी में जाल डालता है तो जाल के भीतर आने वाली सब मछलियाँ पकड़ी जाती हैं परन्तु जो मछली जाल डालने वाले मछुए के चरणों के पास आ जाती है वह नहीं पकड़ी जाती। ऐसे ही भगवान की माया (संसार) में ममता करके जीव फँस जाते हैं और जन्मते-मरते रहते हैं परन्तु जो जीव मायापति भगवान के चरणों की शरण हो जाते हैं वे माया को तर जाते हैं – मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते (गीता 7। 14)। इस दृष्टान्त का एक ही अंश ग्रहण करना चाहिये क्योंकि धीवर का तो मछलियों को जाल में फँसाने का भाव होता है परन्तु भगवान का जीवों को माया में फँसाने का किञ्चिन्मात्र भी भाव नहीं होता। भगवान का भाव तो जीवों को मायाजाल से मुक्त करके अपने शरण लेने का होता है तभी तो वे कहते हैं – मामेकं शरणं व्रज। जीव संयोगजन्य सुख की लोलुपता से खुद ही माया से फँस जाते हैं। जैसे चलती हुई चक्की के भीतर आने वाले सभी दाने पिस जाते हैं (टिप्पणी प0 978) परन्तु जिसके आधार पर चक्की चलती है उस कील के आस-पास रहने वाले दाने ज्यों के त्यों साबूत रह जाते हैं। ऐसे ही जन्म-मरण रूप संसार की चलती हुई चक्की में पड़े हुए सब के सब जीव पिस जाते हैं अर्थात् दुःख पाते हैं परन्तु जिसके आधार पर संसारचक्र चलता है उन भगवान के चरणों का सहारा लेने वाला जीव पिसने से बच जाता है – कोई हरिजन ऊबरे कील माकड़ी पास परन्तु यह दृष्टान्त भी पूरा नहीं घटता क्योंकि दाने तो स्वाभाविक ही कील के पास रह जाते हैं। वे बचने का कोई उपाय नहीं करते परन्तु भगवान के भक्त संसार से विमुख होकर प्रभु के चरणों का आश्रय लेते हैं। तात्पर्य यह है कि जो भगवान का अंश होकर भी संसार को अपना मानता है अथवा संसार से कुछ चाहता है वही जन्म-मरण रूप चक्र में पड़कर दुःख भोगता है। संसार और भगवान – इन दोनों का सम्बन्ध दो तरह का होता है। संसार का सम्बन्ध केवल माना हुआ है और भगवान का सम्बन्ध वास्तविक है। संसार का सम्बन्ध तो मनुष्य को पराधीन बनाता है , गुलाम बनाता है पर भगवान का सम्बन्ध मनुष्य को स्वाधीन बनाता है , चिन्मय बनाता है और बनाता है भगवान का भी मालिक । किसी बात को लेकर अपने में कुछ भी विशेषता दिखती है यही वास्तव में पराधीनता है। यदि मनुष्य विद्या , बुद्धि , धन-सम्पत्ति , त्याग , वैराग्य आदि किसी बात को लेकर अपनी विशेषता मानता है तो यह उस विद्या आदि की पराधीनता , दासता ही है। जैसे कोई धन को लेकर अपने में विशेषता मानता है तो यह विशेषता वास्तव में धन की ही हुई , खुद की नहीं। वह अपने को धन का मालिक मानता है पर वास्तव में वह धन का गुलाम है। संसार का यह कायदा है कि सांसारिक पदार्थों को लेकर जो अपने में कुछ विशेषता मानता है उसको ये सांसारिक पदार्थ तुच्छ बना देते हैं , पद-दलित कर देते हैं परन्तु जो भगवान के आश्रित होकर सदा भगवान पर ही निर्भर रहता है उसको अपनी कुछ विशेषता दिखती ही नहीं प्रत्युत भगवान की ही अलौकिकता , विलक्षणता , विचित्रता दिखती है। भगवान चाहे उसको अपना मुकुटमणि बना लें और चाहे अपना मालिक बना लें तो भी उसको अपने में कुछ भी विशेषता नहीं दिखती। प्रभु का यह कायदा है कि जिस भक्त को अपने में कुछ भी विशेषता नहीं दिखती ,  अपने में किसी बात का अभिमान नहीं होता उस भक्त में भगवान की विलक्षणता उतर आती है। किसी-किसी में यहाँ तक विलक्षणता उतर आती है कि उसके शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थ भी चिन्मय बन जाते हैं। उनमें जडता का अत्यन्त अभाव हो जाता है। ऐसे भगवान के कई प्रेमी भक्त भगवान में ही समा गये , अन्त में उनके शरीर नहीं मिले। जैसे मीराबाई शरीर सहित भगवान के श्रीविग्रह में लीन हो गयीं। केवल पहचान के लिये उनकी साड़ी का छोटा सा छोर श्रीविग्रह के मुख में रह गया और कुछ नहीं बचा। ऐसे ही सन्त श्रीतुकारामजी शरीर सहित वैकुण्ठ चले गये। ज्ञानमार्ग में शरीर चिन्मय नहीं होता क्योंकि ज्ञानी असत से सम्बन्ध-विच्छेद करके , असत से अलग होकर स्वयं चिन्मय तत्त्व में स्थित हो जाता है परन्तु जब भक्त भगवान के सम्मुख होता है तब उसके शरीर , इन्द्रियाँ , मन , प्राण आदि सभी भगवान के सम्मुख हो जाते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जिनकी दृष्टि केवल चिन्मय तत्त्व पर ही है अर्थात् जिनकी दृष्टि में चिन्मय तत्त्व से भिन्न जडता की स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं होती तो वह चिन्मयता उनके शरीर आदि में भी उतर आती है और वे शरीर आदि चिन्मय हो जाते हैं। हाँ , लोगों की दृष्टि में तो उनके शरीर में जडता दिखती है पर वास्तव में उनके शरीर चिन्मय ही होते हैं। भगवान के  सर्वथा शरण हो जाने पर शरणागत के लिये भगवान की कृपा तो विशेषता से प्रकट होती ही है पर मात्र संसार का स्नेहपूर्वक पालन करने वाली और भगवान से अभिन्न रहने वाली वात्सल्यमयी माता लक्ष्मी का प्रभु-शरणागत पर कितना अधिक स्नेह होता है , वे कितना अधिक प्यार करती हैं इसका कोई भी वर्णन नहीं कर सकता। लौकिक व्यवहार में भी देखने में आता है कि पतिव्रता स्त्री को पितृभक्त पुत्र बहुत प्यारा लगता है। दूसरी बात – प्रेमभाव से परिपूरित प्रभु जब अपने भक्त को देखने के लिये गरुड पर बैठकर पधारते हैं तब माता लक्ष्मी भी प्रभु के साथ गरुड पर बैठकर आती हैं , जिस गरुड की पाँखों से सामवेद के मन्त्रों का गान होता रहता है परन्तु कोई भगवान को न चाहकर केवल माता लक्ष्मी को ही चाहता है तो उसके स्नेह के कारण माता लक्ष्मी आ तो जाती हैं पर उनका वाहन दिवान्ध उल्लू होता है। ऐसे वाहन वाली लक्ष्मी को प्राप्त करके मनुष्य भी मदान्ध हो जाता है। अगर उस माँ को कोई भोग्या समझ लेता है तो उनका बड़ा भारी पतन हो जाता है क्योंकि वह तो अपनी माँ को ही कुदृष्टि से देखता है इसलिये वह महान अधम है। तीसरी बात – जहाँ केवल भगवान का  प्रेम होता है वहाँ तो भगवान से अभिन्न रहने वाली लक्ष्मी भगवान के साथ आ ही जाती हैं पर जहाँ केवल लक्ष्मी की चाहना है वहाँ लक्ष्मी के साथ भगवान भी आ जाएं – यह नियम नहीं है। शरणागति के विषय में एक कथा आती है। सीताजी , रामजी और हनुमान जी जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस वृक्ष की शाखाओं और टहनियों पर एक लता छायी हुई थी। लता के कोमल-कोमल तन्तु फैल रहे थे। उन तन्तुओं में कहीं पर नयी-नयी कोपलें निकल रही थीं और कहीं पर ताम्रवर्ण के पत्ते निकल रहे थे। पुष्प और पत्तों से लता छायी हुई थी। उससे वृक्ष की सुन्दर शोभा हो रही थी। वृक्ष बहुत ही सुहावना लग रहा था। उस वृक्ष की शोभा को देखकर भगवान श्रीराम हनुमान जी  से बोले – देखो हनुमान! यह लता कितनी सुन्दर है। वृक्ष के चारों ओर कैसी छायी हुई है । यह लता अपने सुन्दर-सुन्दर फल , सुगन्धित फूल और हरी-भरी पत्तियों से इस वृक्ष की कैसी शोभा बढ़ा रही है । इससे जंगल के अन्य सब वृक्षों से यह वृक्ष कितना सुन्दर दिख रहा है। इतना ही नहीं , इस वृक्ष के कारण ही सारे जंगल की शोभा हो रही है। इस लता के कारण ही पशु-पक्षी इस वृक्ष का आश्रय लेते हैं। धन्य है यह लता ! भगवान श्रीराम के मुख से लता की प्रशंसा सुनकर सीताजी हनुमान जी से बोलीं – देखो बेटा हनुमान ! तुमने खयाल किया कि नहीं , देखो ! इस लता का ऊपर चढ़ जाना , फूल-पत्तों से छा जाना , तन्तुओं का फैल जाना – ये सब वृक्ष के आश्रित हैं , वृक्ष के कारण ही हैं। इस लता की शोभा भी वृक्ष के ही कारण हैं। इसलिये मूल में महिमा तो वृक्ष की ही है। आधार तो वृक्ष ही है। वृक्ष के सहारे बिना लता स्वयं क्या कर सकती है ? कैसे छा सकती है ? अब बोलो हनुमान ! तुम्हीं बताओ , महिमा वृक्ष की ही हुई न ? रामजी ने कहा – क्यों हनुमान यह महिमा तो लता की ही हुई न ? हनुमान जी बोले – हमें तीसरी ही बात सूझती है। सीताजी ने पूछा – वह क्या है बेटा ? हनुमान जी ने कहा – माँ वृक्ष और लता की छाया बड़ी सुन्दर है। इसलिये हमें तो इन दोनों की छाया में रहना ही अच्छा लगता है अर्थात् हमें तो आप दोनों की छाया (चरणों के आश्रय) में रहना ही अच्छा लगता है – सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें।। (मानस 4। 3। 2 ) ऐसे ही भगवान और उनकी दिव्य आह्लादिनी शक्ति – दोनों ही एक-दूसरे की शोभा बढ़ाते हैं परन्तु कोई तो उन दोनों को श्रेष्ठ बताता है , कोई केवल भगवान को श्रेष्ठ बताता है और कोई केवल उनकी आह्लादिनी शक्ति को श्रेष्ठ बताता है। शरणागत भक्त के लिये तो प्रभु और उनकी आह्लादिनी शक्ति – दोनों का आश्रय ही श्रेष्ठ है। एक बार एक प्रज्ञाचक्षु (नेत्रहीन) संत हाथ में लाठी पकड़े हुए यमुना के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। नदी में बाढ़ आयी हुई थी। उससे एक जगह यमुना का किनारा पानी में गिर पड़ा तो बाबाजी भी पानी में गिर पड़े। हाथ से लाठी छूट गयी थी। दिखता तो था ही नहीं। अब तैरें तो किधर तैरें ? भगवान की शरणागति की बात याद आते ही प्रयासरहित होकर शरीर को ढीला छोड़ दिया तो उनको ऐसा लगा कि किसी ने हाथ पकड़कर किनारे पर डाल दिया। वहाँ दूसरी कोई लाठी हाथ में आ गयी और उसके सहारे वे चले पड़े। तात्पर्य यह है कि जो भगवान के शरण होकर भगवान पर निर्भर रहता है उसको अपने लिये करना कुछ नहीं रहता। भगवान के विधान से जो हो जाय उसी में वह प्रसन्न रहता है। बहुत सी भेड़-बकरियाँ जंगल में चरने गयीं। उनमें से एक बकरी चरते-चरते एक लता में उलझ गयी। उसको उस लता में निकलने में बहुत देर लगी तब तक अन्य सब भेड़-बकरियाँ अपने घर पहुँच गयीं। अँधेरा भी हो रहा था। वह बकरी घूमते-घूमते एक सरोवर के किनारे पहुँची। वहाँ किनारे की गीली जमीन पर सिंह का एक चरणचिन्ह अङ्कित था। वह उस चरणचिन्ह के शरण होकर उसके पास बैठ गयी। रात में जंगली सियार , भेड़िया , बाघ आदि प्राणी बकरी को खाने के लिये पास में आये तो उस बकरी ने बता दिया कि पहले देख लेना कि मैं किसके शरण में हूँ तब मुझे खाना। वे चिन्ह को देखकर कहने लगे – अरे! यह तो सिंह के चरणचिन्ह के शरण है , जल्दी भागो यहाँ से, सिंह आ जायगा तो हमको मार डालेगा। इस प्रकार सभी प्राणी भयभीत होकर भाग गये। अन्त में जिसका चरणचिन्ह था वह सिंह स्वयं आया और बकरी से बोला – तू जंगल में अकेली कैसे बैठी है ? बकरी ने कहा – यह चरणचिन्ह देख लेना , फिर बात करना। जिसका यह चरणचिन्ह है उसी के मैं शरण हुए बैठी हूँ। सिंह ने देखा कि ओह ! यह तो मेरा ही चरण चिन्ह है। यह बकरी तो मेरे ही शरण हुई । सिंह ने बकरी को आश्वासन दिया कि अब तुम डरो मत , निर्भय होकर रहो। रात में जब जल पीने के लिये हाथी आया तो सिंह ने हाथी से कहा – तू इस बकरी को पीठ पर चढ़ा ले । इसको जंगल में चराकर लाया कर और हरदम अपनी पीठ पर ही रखा कर , नहीं तो तू जानता नहीं कि मैं कौन हूँ , मार डालूँगा। सिंह की बात सुनकर हाथी थर-थर काँपने लगा उसने अपनी सूँड से झट बकरी को पीठ पर चढ़ा लिया। अब वह बकरी निर्भय होकर हाथी की पीठ पर बैठे-बैठे ही वृक्षों की ऊपर की कोंपलें खाया करती और मस्त रहती। खोज पकड़ सैंठे रहो धणी मिलेंगे आय। अजया गज मस्तक चढ़े निर्भय कोंपल खाय।। ऐसे ही जब मनुष्य भगवान के शरण हो जाता है , उनके चरणों का सहारा ले लेता है तब वह सम्पूर्ण प्राणियों से , विघ्न-बाधाओं से निर्भय हो जाता है। उसको कोई भी भयभीत नहीं कर सकता , उसका कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता। जो जाको शरणो गहै ताकहँ ताकी लाज। उलटे जल मछली चले बह्यो जात गजराज।। भगवान के साथ काम , भय , द्वेष , क्रोध , स्नेह आदि से भी सम्बन्ध क्यों न जोड़ा जाय , वह भी जीव का कल्याण करने वाला ही होता है (टिप्पणी प0 980)। तात्पर्य यह हुआ कि काम , भय , द्वेष आदि किसी तरह से भी जिनका भगवान के साथ सम्बन्ध जुड़ गया उनका तो उद्धार हो ही गया पर जिन्होंने किसी तरह से भी भगवान के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा , उदासीन ही रहे , वे भगवत्प्राप्ति से वञ्चित रह गये । भगवान के अनन्य भक्तों के लिये नारदजी ने कहा – नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः। (नारदभक्तिसूत्र 72) उन भक्तों में जाति , विद्या , रूप , कुल , धन , क्रिया आदि का भेद नहीं है। तात्पर्य यह है कि स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर को लेकर सांसारिक जितने भी जाति , विद्या आदि भेद हो सकते हैं , वे सब उन पर लागू नहीं होते जो सर्वथा भगवान के अर्पित हो गये हैं (टिप्पणी प0 981.1)। कारण कि वे अच्युत भगवान के ही हैं – यतस्तदीयाः (नारदभक्तिसूत्र 73) संसार के नहीं। अच्युत भगवान के होने से वे अच्युत गोत्र के ही कहलाते हैं (टिप्पणी प0 981.2)।शरणागति का रहस्य – शरणागति का रहस्य क्या है ? इसको वास्तव में भगवान ही जानते हैं। फिर भी अपनी समझ में आयी बात कहने की चेष्टा की जाती है क्योंकि हरेक आदमी जो बात कहता है उससे वह अपनी बुद्धि का ही परिचय देता है। पाठकों से प्रार्थना है कि वे यहाँ आयी बातों का उलटा अर्थ न निकालें क्योंकि प्रायः लोग किसी तात्त्विक रहस्य वाली बात को गहराई से समझे बिना उसका उलटा अर्थ जल्दी निकाल लेते हैं इसलिये ऐसी बात को कहने-सुनने के पात्र बहुत कम होते हैं। भगवान ने गीता में शरणागति के विषय में दो बातें बतायी हैं (1) मामेकं शरणं व्रज (18। 66) अनन्यभाव से केवल मेरी शरण में आ जा। (2) स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत (15। 19) वह सर्वज्ञ पुरुष सर्वभाव से मेरा भजन करता है – तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत (18। 62) तू सर्वभाव से उस परमात्मा की शरण में जा। हम भगवान के शरण कैसे हो जाएं ? केवल एक भगवान के शरण हो जायँ अर्थात् भगवान के गुण , ऐश्वर्य आदि की तरफ दृष्टि न रखें और सर्वभाव से भगवान के शरण हो जायँ अर्थात् साथ में अपनी कोई सांसारिक कामना न रखें। केवल एक भगवान के शरण होने का रहस्य यह है कि भगवान के अनन्त गुण हैं , प्रभाव हैं , तत्त्व हैं , रहस्य हैं , महिमा है , लीलाएँ हैं , नाम हैं , धाम हैं , भगवान का अनन्त ऐश्वर्य है , माधुर्य है , सौन्दर्य है – इन विभूतियों की तरफ शरणागत भक्त देखता ही नहीं। उसका यही एक भाव रहता है कि मैं केवल भगवान का हूँ और केवल भगवान ही मेरे हैं। अगर वह गुण , प्रभाव आदि की तरफ देखकर भगवान की शरण लेता है तो वास्तव में वह गुण , प्रभाव आदि के ही शरण हुआ – भगवान के शरण नहीं हुआ परन्तु इन बातों का उलटा अर्थ न लगा लें। उलटा अर्थ लगाना क्या है ? भगवान के गुण , प्रभाव , नाम , धाम , ऐश्वर्य , माधुर्य , सौन्दर्य आदि को मानना ही नहीं है। इनकी तरफ जाना ही नहीं है। अब कुछ करना है ही नहीं। न भजन करना है , न भगवान के गुण , प्रभाव , लीला आदि सुननी है , न भगवान के धाम में जाना है – यह उलटा अर्थ लगाना है। इनका ऐसा अर्थ लगाना महान अनर्थ करना है। केवल एक भगवान के शरण होने का तात्पर्य है – केवल भगवान मेरे हैं। अब वे ऐश्वर्यसम्पन्न हैं तो बड़ी अच्छी बात और उनमें कुछ भी ऐश्वर्य नहीं है तो बड़ी अच्छी बात। वे बड़े दयालु हैं तो बड़ी अच्छी बात और इतने निष्ठुर , कठोर हैं कि उनके समान दुनिया में कोई कठोर है ही नहीं तो बड़ी अच्छी बात। उनका बड़ा भारी प्रभाव है तो बड़ी अच्छी बात और उनमें कोई प्रभाव नहीं है तो बड़ी अच्छी बात। शरणागत में इन बातों की कोई परवाह नहीं होती। उसका तो एक ही भाव रहता है कि भगवान जैसे भी हैं मेरे हैं (टिप्पणी प0 982.1)। भगवान की इन बातों की परवाह न होने से भगवान का ऐश्वर्य , माधुर्य , सौन्दर्य , गुण , प्रभाव आदि चले जाएंगे – ऐसी बात नहीं है पर हम उनकी परवाह नहीं करेंगे तो हमारी असली शरणागति होगी।जहाँ गुण , प्रभाव आदि को लेकर भगवान के शरण होते हैं वहाँ केवल भगवान के शरण नहीं होते प्रत्युत गुण , प्रभाव आदि के ही शरण होते हैं जैसे – कोई रुपयों वाले आदमी का आदर करे तो वास्तव में वह आदर उस आदमी का नहीं , रुपयों का है। किसी मिनिस्टर का कितना ही आदर किया जाय तो वह आदर उसका नहीं , मिनिस्टरी (पद) का है। किसी बलवान व्यक्ति का आदर किया जाय तो वह उसके बल का आदर है , उसका खुद का आदर नहीं है परन्तु अगर कोई केवल व्यक्ति (धनी आदि) का आदर करे तो इससे धनी का धन या मिनिस्टर की मिनिस्टरी चली जायगी – यह बात नहीं है। वह तो रहेगी ही। ऐसे ही केवल भगवान के शरण होने से भगवान के गुण , प्रभाव आदि चले जाएंगे – ऐसी बात नहीं है परन्तु हमारी दृष्टि तो केवल भगवान पर ही रहनी चाहिये , उनके गुणों आदि पर नहीं।सप्तर्षियों ने जब पार्वतीजी के सामने शिवजी के अनेक अवगुणों का और विष्णु के अनेक सद्गुणों का वर्णन करते हुए उनको शिवजी का त्याग करने के लिये कहा तब पार्वतीजी ने उनको यही उत्तर दिया – महादेव अवगुन भवन विष्नु सकल गुन धाम। जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।। (मानस 1। 80) ऐसी ही बात गोपियों ने भी उद्धवजी से कही थी – ऊधौ मन माने की बात। दाख छोहारा छाड़ि अमृतफल बिषकीरा बिष खात।। जो चकोर को दै कपूर कोउ, तजि अंगार अघात। मधुप करत घर कोरे काठ में, बँधत कमल के पात।। ज्यों पतंग हित जान आपनो, दीपक सों लपटात। सूरदास जाको मन जासों ताको सोइ सुहात।। भगवान के प्रभाव आदि की तरफ देखने वाले को , उससे प्रेम करने वाले को मुक्ति , ऐश्वर्य आदि तो मिल सकता है पर भगवान नहीं मिल सकते। भगवान के प्रभाव की तरफ न देखने वाला भगवत्प्रेमी भक्त ही भगवान को पा सकता है। इतना ही नहीं , वह प्रेमी भक्त भगवान को बाँध भी सकता है , उनकी बिक्री भी कर सकता है , भगवान देखते हैं कि वह मेरे से प्रेम करता है , मेरे प्रभाव की तरफ देखता तक नहीं तो भगवान के मन में उसका बड़ा आदर होता है। प्रभाव की तरफ देखना यह सिद्ध करता है कि हमारे में कुछ पाने की कामना है। हमारे मन में उन कामना वाले पदार्थ का आदर है। जब तक हमारे मन में उस कामना वाले पदार्थ का आदर है। जब तक हमारे मन में कामना है तब तक हम प्रभाव को देखते हैं। अगर हमारे मन में कोई कामना न रहे तो भगवान के प्रभाव , ऐश्वर्य की तरफ हमारी दृष्टि नहीं जायगी। केवल भगवान की तरफ दृष्टि होगी तो हम भगवान के शरण हो जाएंगे , भगवान के अपने हो जायेंगे। पूतना राक्षसी ने जहर लगाकर स्तन मुख में दिया तो उसको भगवान ने माता की गति दे दी (टिप्पणी प0 982.2) अर्थात् जो मुक्ति यशोदा मैया को मिले वह मुक्ति पूतना को मिल गयी। जो मुख में जहर देती है उसे तो भगवान ने मुक्ति दे दी। अब जो रोजाना दूध पिलाती है उस मैया को भगवान् क्या दें ? तो अनन्त जीवों को मुक्ति देने वाले भगवान मैया के अधीन हो गये , उन्हें अपने आपको ही दे दिया । मैया के इतने वशीभूत हो गये कि मैया छड़ी दिखाती है तो वे डरकर रोने रग जाते हैं कारण कि मैया की भगवान के प्रभाव , ऐश्वर्य की तरफ दृष्टि ही नहीं है। इस प्रकार जो भगवान से मुक्ति चाहता है उसे भगवान मुक्ति दे देते हैं पर जो कुछ भी नहीं चाहता उसे भगवान अपने आपको ही दे देते हैं। सर्वभाव से भगवान के शरण होने का रहस्य यह है कि हमारा शरीर अच्छा है , इन्द्रियाँ वश में हैं , मन शुद्ध-निर्मल है , बुद्धि से हम ठीक जानते हैं , हम पढ़े-लिखे हैं , हम यशस्वी हैं , हमारा संसार में मान है – इस प्रकार हम भी कुछ हैं – ऐसा मानकर भगवान के शरण होना शरणागति नहीं है। भगवान के शरण होने के बाद शरणागत को ऐसा विचार भी नहीं करना चाहिये कि हमारा शरीर ऐसा होना चाहिये , हमारी बुद्धि ऐसी होनी चाहिये , हमारा मन ऐसा होना चाहिये , हमारा ऐसा ध्यान लगना चाहिये , हमारी ऐसी भावना होनी चाहिये , हमारे जीवन में ऐसे लक्षण आने चाहिये , हमारे ऐसे आचरण होने चाहिये , हमारे में ऐसा प्रेम होना चाहिये कि कथा-कीर्तन सुनने पर आँसू बहने लगें , कण्ठ गद्गद हो जाय पर ऐसा हमारे जीवन में हुआ ही नहीं तो हम भगवान के शरण कैसे हुए आदि आदि। ये बातें अनन्य शरणागति की कसौटी नहीं हैं। जो अनन्य शरण हो जाता है वह यह देखता ही नहीं कि शरीर बीमार है कि स्वस्थ है , मन चञ्चल है कि स्थिर है , बुद्धि में जानकारी है कि अनजानपना है , अपने में मूर्खता है कि विद्वत्ता है , योग्यता है कि अयोग्यता है आदि। इन सबकी तरफ वह स्वप्न में भी नहीं देखता क्योंकि उसकी दृष्टि में ये सब चीजें कूड़ा-करकट हैं जिन्हें अपने साथ नहीं लेना है। यदि इन चीजों की तरफ देखेगा तो अभिमान ही बढ़ेगा कि मैं भगवान का शरणागत भक्त हूँ अथवा निराश होना पड़ेगा कि मैं भगवान के शरण तो हो गया पर भक्तों के गुण (गीता 12। 13 — 19) तो मेरे में आये ही नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि अगर अपने में भक्तों के गुण दिखायी देंगे तो उनका अभिमान हो जायगा और अगर नहीं दिखायी देंगे तो निराशा हो जायगी। इसलिये यही अच्छा है कि भगवान के शरण होने के बाद इन गुणों की तरफ भूलकर भी नहीं देखें। इसका यह उलटा अर्थ न लगा लें कि हम चाहे वैर-विरोध करें , चाहे द्वेष करें , चाहे ममता करें , चाहे जो कुछ करें यह अर्थ बिलकुल नहीं है। तात्पर्य है कि इन गुणों की तरफ खयाल ही नहीं होना चाहिये। भगवान के शरण होने वाले भक्त में ये सब के सब गुण अपने आप ही आयेंगे पर इनके आने या न आने से उसको कोई मतलब नहीं रखना चाहिये। अपने में ऐसी कसौटी नहीं लगानी चाहिये कि अपने में ये गुण या लक्षण हैं या नहीं। सच्चा शरणागत भक्त तो भगवान के गुणों की तरफ भी नहीं देखता और अपने गुणों की तरफ भी नहीं देखता। वह भगवान के ऊँचे-ऊँचे प्रेमियों की तरफ भी नहीं देखता कि ऊँचे प्रेमी ऐसे-ऐसे होते हैं , तत्त्व को जानने वाले जीवन्मुक्त ऐसे-ऐसे होते हैं। प्रायः लोग ऐसी कसौटी लगाते हैं कि यह भगवान का भजन करता है तो बीमार कैसे हो गया ? भगवान का भक्त हो गया तो उसको बुखार क्यों आ गया ? उस पर दुःख क्यों आ गया ? उसका बेटा क्यों मर गया ? उसका धन क्यों चला गया ? उसका संसार में अपयश क्यों हो गया ? उसका निरादर क्यों हो गया आदिआदि। ऐसी कसौटी लगाना बिलकुल फालतू बात है , बड़े नीचे दर्जे की बात है। ऐसे लोगों को क्या समझायें ? वे सत्सङ्ग के नजदीक ही नहीं आये इसीलिये उनको इस बात का पता ही नहीं है कि भक्ति क्या होती है ? शरणागति क्या होती है ? वे इन बातों को समझ ही नहीं सकते परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि भगवान का भक्त दरिद्र होता ही है , उसका संसार में अपमान होता ही है , उसकी निन्दा होती ही है। शरणागत भक्त को तो निन्दा-प्रशंसा , रोग-निरोग अवस्था आदि से कोई मतलब ही नहीं होता। इनकी तरफ वह देखता ही नहीं। वह यही देखता है कि मैं हूँ और भगवान हैं बस। अब संसार में क्या है? क्या नहीं है? त्रिलोकी में क्या है? क्या नहीं है? प्रभु ऐसे हैं? वे उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय करने वाले हैं – इन बातों की तरफ उसकी दृष्टि जाती ही नहीं। किसी ने एक सन्त से पूछा – आप किस भगवान के भक्त हैं जो उत्पत्ति , स्थिति , प्रलय करते हैं? उनके भक्त हैं क्या ? तो उस सन्त ने उत्तर दिया – हमारे भगवान का तो उत्पत्ति , स्थिति , प्रलय के साथ कोई सम्बन्ध है ही नहीं। यह तो हमारे प्रभु का ऐश्वर्य है। यह कोई विशेष बात नहीं है। शरणागत भक्त को ऐसा होना चाहिये। ऐश्वर्य आदि की तरफ उसकी दृष्टि ही नहीं होनी चाहिये। ऋषिकेश में गङ्गाजी के किनारे शाम को सत्सङ्ग हो रहा था। गरमी पड़ रही थी। उधर से गङ्गाजी की ठण्डी हवा की लहर आयी तो एक सज्जन ने कहा – कैसी ठण्डी हवा की लहर आ रही है पास बैठे दूसरे सज्जन ने उनसे कहा – हवा को देखने के लिये तुम्हें समय कैसे मिल गया ? यह ठण्डी हवा आयी? यह गरम हवा आयी – इस तरफ तुम्हारा खयाल कैसे चला गया ? भगवान के भजन में लगे हो तो हवा ठंडी आयी या गरम आयी , सुख आया या दुःख आया – इस तरफ जब तक खयाल है तब तक भगवान की तरफ खयाल कहाँ ? इसी विषय में हमने एक कहानी सुनी है। कहानी तो नीचे दर्जे की है पर उसका निष्कर्ष बड़ा अच्छा है। एक कुलटा स्त्री थी। उसको किसी पुरुष से संकेत मिला कि इस समय अमुक स्थान पर तुम आ जाना। अतः वह समय पर अपने प्रेमी के पास जा रही थी। रास्ते में एक मस्जिद पड़ती थी। मस्जिद की दीवारें छोटी-छोटी थीं। दीवार के पास ही वहाँ का मौलवी झुककर नमाज पढ़ रहा था। वह कुलटा अनजाने में उसके ऊपर पैर रखकर निकल गयी। मौलवी को बड़ा गुस्सा आया कि कैसी औरत है यह ? इसने मेरे पर जूतीसहित पैर रख कर । मेरे को नापाक (अशुद्ध) बना दिया । वह वहीं बैठकर उसको देखता रहा कि कब आयेगी ? जब वह कुलटा पीछे लौटकर आयी तब मौलवी ने उसको धमकाया कि कैसी बेअक्ल हो तुम ? हम परवरदिगार की बंदगी में बैठे थे , नमाज पढ़ रहे थे और तुम हमारे पर पैर रखकर चली गयी तब वह बोली – मैं नरराची ना लखी तुम कस लख्यो सुजान। पढ़ि कुरान बौरा भया राच्यो नहिं रहमान।। अर्थात् एक पुरुष के ध्यान में रहने के कारण मेरे को इसका पता ही नहीं लगा कि सामने दीवार है या कोई मनुष्य है पर तू तो भगवान के ध्यान में था फिर तूने मेरे को कैसे पहचान लिया कि वह यही थी ? तू केवल कुरान पढ़-पढ़ कर बावला हो गया है। अगर तू भगवान के ध्यान में रचा हुआ होता तो क्या मुझे पहचान लेता ? कौन आया ? कैसे आया? मनुष्य था कि पशु-पक्षी था? क्या था? क्या नहीं था? कौन ऊपर आया? कौन नीचे आया? किसने पैर रखा ? इधर तेरा खयाल ही क्यों जाता ? तात्पर्य है कि एक भगवान को छोड़ कर किसी की तरफ ध्यान ही कैसे जाय ? दूसरी बातों का पता ही कैसे लगे ? जब तक दूसरी बातों का पता लगता है तब तक वह शरण कहाँ हुआ ? कौरव-पाण्डव जब बालक थे तब वे अस्त्र-शस्त्र सीख रहे थे। सीखकर जब तैयार हो गये तब उनकी परीक्षा ली गयी। एक वृक्ष पर एक बनावटी चिड़िया बैठा दी गयी और सबसे कहा गया कि उस चिड़िया के कण्ठ पर तीर मारकर दिखाओ। एक-एक करके सभी आने लगे। गुरुजी पहले सबसे अलग-अलग पूछते कि बताओ , तुम्हें वहाँ क्या दिख रहा है ? कोई कहता कि हमें तो वृक्ष दिखता है , कोई कहता कि हमें तो टहनी दिखती है , कोई कहता है हमें तो चिड़िया दिखती है , चोंच भी दिखती है , पंख भी दिखते हैं। ऐसा कहने वालों को वहाँ से हटा दिया गया। जब अर्जुन की बारी आयी , तब उनसे पूछा गया कि तुमको क्या दिखता है ? तो अर्जुन ने कहा कि मेरे को तो केवल कण्ठ ही दिखता है और कुछ भी नहीं दिखता। तब अर्जुन से बाण मारने के लिये कहा गया। अर्जुन ने अपने बाण से उस चिड़िया का कण्ठ वेध दिया क्योंकि उनकी लक्ष्य पर दृष्टि ठीक थी। अगर चिड़िया दिखती है , वृक्ष , टहनी आदि दिखते हैं तो लक्ष्य कहाँ सधा है ? अभी तो दृष्टि फैली हुई है। लक्ष्य होने पर तो वही दिखेगा जो लक्ष्य होगा। लक्ष्य के सिवाय दूसरा कुछ दिखेगा ही नहीं। इसी प्रकार जब तक मनुष्य का लक्ष्य एक नहीं हुआ है तब तक वह अनन्य कैसे हुआ ? अव्यभीचारी-अनन्ययोग होना चाहिये – मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी (गीता 13। 10)। अन्ययोग नहीं होना चाहिये अर्थात् शरीर , मन , बुद्धि , अहम आदि की सहायता नहीं होनी चाहिये। वहाँ तो केवल एक भगवान ही होने चाहिये। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज से किसी ने कहा – आप जिन रामलला की भक्ति करते हैं , वे तो बारह कला के अवतार हैं पर सूरदासजी जिन भगवान कृष्ण की भक्ति करते हैं वे सोलह कला के अवतार हैं। यह सुनते ही गोस्वामीजी महाराज उसके चरणों में गिर पड़े और बोले – ओह ! आपने बड़ी भारी कृपा कर दी। मैं तो राम को दशरथजी के लाड़ले कुँवर समझकर ही भक्ति करता था। अब पता लगा कि वे बारह कला के अवतार हैं , इतने बड़े हैं वे । आपने आज नयी बात बताकर बड़ा उपकार किया। अब कृष्ण सोलह कला के अवतार हैं – यह बात उन्होंने सुनी ही नहीं , इस तरफ उनका ध्यान ही नहीं गया। भगवान के प्रति भक्तों के अलग-अलग भाव होते हैं। कोई कहता है कि दशरथजी की गोद में खेलने वाले जो रामलला हैं वे ही हमारे इष्ट हैं – इष्टदेव मम बालक रामा (मानस 7। 75। 3) राजाधिराज रामचन्द्रजी नहीं , छोटा सा रामलला। कोई भक्त कहता है कि हमारे इष्ट तो लड्डूगोपाल हैं , नन्द के लाला हैं। वे भक्त अपने रामलला को , नन्दलला को सन्तों से आशीर्वाद दिलाते हैं तो भगवान को वह बहुत प्यारा लगता है। तात्पर्य है कि भक्तों की दृष्टि भगवान के ऐश्वर्य की तरफ जाती ही नहीं। या ब्रजरज की परस से मुकति मिलत है चार। वा रज को नित गोपिका डारत डगर बुहार।।आँगन की जिस रज में कन्हैया खेलते हैं वह रज कोई ले ले तो उसको चारों प्रकार की मुक्ति मिल जाय। पर यशोदा मैया उसी रज को बुहारकर बाहर फेंक देती हैं। मैया के लिये तो वह कूड़ा-करकट है। अब मुक्ति किसको चाहिये ? मैया की केवल कन्हैया की तरफ ही दृष्टि है। न तो कन्हैया के ऐश्वर्य की तरफ दृष्टि है और न योग्यता की तरफ ही दृष्टि है। सन्तों ने कहा है कि अगर भगवान से मिलना हो तो साथ में साथी भी नहीं होना चाहिये और सामान भी नहीं होना चाहिये अर्थात् साथी और सामान के बिना उनसे मिलो। जब साथी , सहारा साथ में है तो तुम क्या मिले भगवान से और मन , बुद्धि , विद्या , धन आदि सामान साथ में बँधा रहेगा तो उसका परदा (व्यवधान) रहेगा। परदे में मिलन थोड़े ही होता है वहाँ तो कपड़े का भी व्यवधान होता है। कपड़ा ही नहीं माला भी आड़ में आ जाय तो मिलन क्या हुआ ? इसलिये साथ में कोई साथी और सामान न हो फिर भगवान से जो मिलन होगा वह बड़ा विलक्षण और दिव्य होगा। एक महात्माजी को खेत में काम करने वाला एक व्रजवासी ग्वाला मिल गया। वह भगवान का भक्त था। महात्माजी ने उससे पूछा – तुम क्या करते हो ? उसने कहा – हम तो अपने लाला कन्हैया का काम करते हैं। महात्माजी ने कहा – हम भगवान के अनन्य भक्त हैं , तुम क्या हो ? उसने कहा – हम फनन्य भक्त हैं। महात्माजी ने पूछा – फनन्य भक्त क्या होता है ? तो उसने भी पूछा –अनन्य भक्त क्या होता है ? महात्माजी ने कहा – अनन्य भक्त वह होता है जो सूर्य , शक्ति , गणेश , ब्रह्मा आदि किसी को भी न माने केवल हमारे कन्हैया को ही माने। उसने कहा – बाबाजी , हम तो इन ससुरों का नाम भी नहीं जानते कि ये क्या होते हैं? क्या नहीं होते ? हमें इनका पता ही नहीं है तो हम फनन्य हो गये कि नहीं ? इस प्रकार ब्रह्म क्या होता है ? आत्मा क्या होती है ? सगुण और निर्गुण क्या होता है ? साकार और निराकार क्या होता है ? आदि बातों की तरफ शरणागत भक्त की दृष्टि ही नहीं जानी चाहिये। व्रज की एक बात है। एक सन्त कुएँ पर किसी से बात कर रहे थे कि ब्रह्म है , परमात्मा है , जीवात्मा है आदि। वहाँ एक गोपी जल भरने आयी। उसने कान लगाया कि बाबाजी क्या बात कर रहे हैं? जब वह गोपी दूसरी गोपी से मिली तो उससे पूछा – अरी सखी ! यह ब्रह्म क्या होता है ? उसने कहा – हमारे लाला का ही कोई अड़ोसी-पड़ोसी , सगा-सम्बन्धी होगा । हम लोग तो जानती नहीं सखी। ये लोग उसी की धुन में लगे हैं न । इसलिये सब जानते हैं। हमारे तो एक नन्द के लाला ही हैं। कोई काम हो तो नन्दबाबा से कह देंगी , गिरिराज से कह देंगी कि महाराज आप कृपा करो। कन्हैया तो भोला-भाला है वह क्या समझेगा ? और क्या करेगा ? कन्हैया से क्या मिलेगा ? अरी सखी ! वह कन्हैया हमारा है और क्या मिलेगा ? हम भी अकेली हैं और वह कन्हैया भी अकेला है। हमारे पास भी कुछ समान नहीं और उसके पास भी कुछ सामान नहीं , बिलकुल नंग-धड़ंग बाबा – नगन मूरतिबाल गुपालकी कतरनी बरनी जगजालकी। अब ऐसे कन्हैया से क्या मिलेगा ? यशोदा मैया दाऊजी से कहती हैं – देख दाऊ यह कन्हैया बहुत भोला-भाला है । तू इसका खयाल रखा कर कि कहीं यह जंगल में दूर न चला जाय। जंगल में मेले साथ चलते-चलते कोई साँप का बिन देखता है तो उसमें हाथ डाल देता है। अब इसे कोई साँप काट ले तो ? मैया कहती है – बेटा , अभी वह छोटा सा अबोध बालक है। तू बड़ा है । इसलिये इसकी निगाह रखा कर। ग्वालबालों से कोई कहे कि कन्हैया तो सब दुनिया का पालन करता है तो वे यही कहेंगे कि तुम्हारा ऐसा भगवान होगा जो सब दुनिया का पालन करता होगा। हमारा तो ऐसा नहीं है। हमारा छोटा सा कन्हैया दुनिया का क्या पालन करेगा ? एक बाबाजी की गोपियों से बातचीत चली। वे बाबाजी बात करते-करते कहने लगे कि कृष्ण इतने ऐश्वर्यशाली हैं, उनका इतना माधुर्य है, उनके पास ऐश्वर्य का इतना खजाना है आदि। तो गोपियाँ कहने लगीं – महाराज उस खजाने की चाबी तो हमारे पास है । कन्हैया के पास क्या है ? उसके पास तो कुछ भी नहीं है। कोई उससे माँगेगा तो वह कहाँ से देगा ? इसलिये किसी को कुछ चाहिये तो वह कन्हैया के पास न जाये। कन्हैया के पास उसकी शरण में तो वही जाये जिसको कभी कुछ नहीं चाहिये। किसी भी अवस्था में कुछ भी चाहने का भाव न हो अर्थात् विपत्ति , मौत आदि की अवस्था में भी मेरी थोड़ी सहायता कर दो , रक्षा कर दो – ऐसा भाव भी नहीं हो । भगवान श्रीराम से वाल्मीकि जी कहते हैं –  जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु। बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु।। (मानस 2। 131) कुछ भी चाहने का भाव न होने से भगवान स्वाभाविक ही प्यारे लगते हैं , मीठे लगते हैं – तुम्ह सन सहज सनेहु। जिसमें चाह नहीं है वह भगवान का खास घर है – सो राउर निज गेहु। यदि चाहना भी साथ में रखें और भगवान को भी साथ में रखें तो वह भगवान का खास घर नहीं है। भगवान के साथ सहज स्नेह हो , स्नेह में कोई मिलावट न हो अर्थात् कुछ भी चाहना न हो। वहाँ तो आसक्ति , वासना , मोह , ममता ही होते हैं। इसलिये गोपियाँ सावधान करती हुई कहती हैं – मा यात पान्थाः पथिभीमरथ्यां दिगम्बरः कोऽपि तमालनीलः। विन्यस्तहस्तोऽपि नितम्बबिम्बे धूतः समाकर्षति चित्तवित्तम्।। अरे पथिकों ! उस गली से मत जाना। वह बड़ी भयावनी है। वहाँ अपने नितम्ब-विम्ब पर दोनों हाथ रखे जो तमाल के समान नीले रंग का एक नंग-धड़ंग बालक खड़ा है , वह केवल देखनेमात्र का अवधूत है। वास्तव में तो वह अपने पास में होकर निकलने वाले किसी भी पथिक के चित्तरूपी धन को लूटे बिना नहीं रहता। वह जो काला-काला , नंग-धड़ंग बालक खड़ा है न , उससे तुम लुट जाओगे , रीते रह जाओगे । वह ऐसा चोर है कि सब खत्म कर देगा। उधर जाना ही मत , पहले ही खयाल रखना। अगर चले गये तो फिर सदा के लिये ही चले गये। इसलिये कोई अच्छी तरह से जीना चाहे तो उधर मत जाय। उसका नाम कृष्ण है ।  कृष्ण कहते हैं खींचने वाले को। एक बार खींच ले तो फिर छोड़े ही नहीं। उससे पहचान न हो  तब तक तो ठीक है। अगर उससे पहचान हो गयी तो फिर मामला खत्म। फिर किसी काम के नहीं रहोगे , त्रिलोकी भर में निकम्मे हो जाओगे- नारायन बौरी भई डोलै रही न काहू काम की।। जाहि लगन लगी घनस्याम की। हाँ , जो किसी काम का नहीं होता वह सबके लिये सब काम का होता है परन्तु उनको उसी काम से कोई मतलब नहीं होता। शरणागत भक्त को भजन भी करना नहीं पड़ता। उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक भजन होता है। भगवान का नाम उसे स्वाभाविक ही बड़ा मीठा , प्यारा लगता है। अगर कोई पूछे कि तुम श्वास क्यों लेते हो ? यह हवा को भीतर-बाहर करने का क्या धंधा शुरू कर रखा है? तो यही कहेंगे कि भाई यह धंधा नहीं है। इसके बिना हम जी ही नहीं सकते। ऐसे ही शरणागत भक्त भजन के बिना रह ही नहीं सकता। जिसको सब कुछ अर्पण कर दिया उसके विस्मरण में परम व्याकुलता , महान छटपटाहट होने लगती है – तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति (नारदभक्तिसूत्र 19)। ऐसे भक्त से अगर कोई कहे कि आधे क्षण के लिये भगवान को भूल जाने से त्रिलोकी का राज्य मिलेगा तो वह इसे भी ठुकरा देगा। भागवत में आया है – त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुण्ठ स्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात्। न चलति भगवत्पदारविन्दा ल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः।। (श्रीमद्भा0 11। 2। 53) तीनों लोकों के समस्त ऐश्वर्य के लिये भी उन देव-दुर्लभ भगवच्चरणकमलों का जो आधे निमेष के लिये भी त्याग नहीं कर सकते वे ही श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं। न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्। न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा मय्यार्पितात्मेच्छति मद् विनान्यत्।। (श्रीमद्भा0 11। 14। 14)भगवान कहते हैं कि स्वयं को मेरे अर्पित करने वाला भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्मा का पद , इन्द्र का पद , सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य , पातालादि लोकों का राज्य , योग की समस्त सिद्धियाँ और मोक्ष को भी नहीं चाहता। भरतजी कहते हैं – अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान। जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।। (मानस 2। 204) अब पूर्वश्लोक में कहे अत्यन्त गोपनीय वचन को अनाधिकारियों के सामने कहने का निषेध करते हैं।

 

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