The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

भक्ति सहित कर्मयोग का विषय

 

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।।18.57।।

 

चेतसा – चेतना द्वारा; सर्वकर्माणि – समस्त कर्म; मयि-मुझको; संन्यस्य-सम्पर्ण; मत्परः-मुझे परम लक्ष्य मानते हुए; बुद्धियोगम् – बुद्धि को भगवान में एकीकृत करते हुए; उपाश्रित्य-शरण लेकर; मत्चित्-मेरी चेतना में लीन; सततम्-सदैव; भव-होना।

 

अपने सभी कर्म मुझे समर्पित करो और मुझे ही अपना लक्ष्य मानो, बुद्धियोग का आश्रय लेकर अपनी चेतना को सदैव मुझमें लीन रखो अर्थात चित्त से सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके, मेरे परायण होकर तथा समता का आश्रय लेकर निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो जा।।18.57।।

 

[इस श्लोक में भगवान ने चार बातें बतायी हैं – (1) चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य – सम्पूर्ण कर्मों को चित्त से मेरे अर्पण कर दे। (2) मत्परः – स्वयं को मेरे अर्पित कर दे। (3) बुद्धियोगमुपाश्रित्य – समता का आश्रय लेकर संसार से सम्बन्धविच्छेद कर ले। (4) मच्चितः सततं भव – निरन्तर मेरे में चित्तवाला हो जा अर्थात् मेरे साथ अटल सम्बन्ध कर ले।] चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य – चित्त से कर्मों को अर्पित करने का तात्पर्य है कि मनुष्य चित्त से यह दृढ़ता से मान ले कि मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ , शरीर आदि और संसार के व्यक्ति , पदार्थ , घटना , परिस्थिति आदि सब भगवान के ही हैं। भगवान ही इन सबके मालिक हैं। इनमें से कोई भी चीज किसी की व्यक्तिगत नहीं है। केवल इन वस्तुओं का सदुपयोग करने के लिये ही भगवान ने व्यक्तिगत अधिकार दिया है। इस दिये हुए अधिकार को भी भगवान के अर्पण कर देना है। शरीर , इन्द्रियाँ , मन आदि से जो कुछ शास्त्रविहित सांसारिक या पारमार्थिक क्रियाएँ होती हैं वे सब भगवान की मरजी से ही होती हैं। मनुष्य तो केवल अहंकार के कारण उनको अपनी मान लेता है। उन क्रियाओं में जो अपनापन है उसे भी भगवान के अर्पण कर देना है क्योंकि वह अपनापन केवल मूर्खता से माना हुआ है , वास्तव में है नहीं। इसलिये उनमें अपनेपन का भाव बिलकुल उठा देना चाहिये और उन सब पर भगवान की मुहर लगा देनी चाहिये। मत्परः – भगवान ही मेरे परम आश्रय हैं , उनके सिवाय मेरा कुछ नहीं है , मेरे को करना भी कुछ नहीं है , पाना भी कुछ नहीं है , किसी से लेना भी कुछ नहीं है अर्थात् देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि से मेरा किञ्चिन्मात्र कोई प्रयोजन नहीं है – ऐसा अनन्यभाव हो जाना ही भगवान के परायण होना है।एक बात खास ध्यान देने की है – रुपये , पैसे , कुटुम्ब , शरीर आदि को मनुष्य अपना मानते हैं और मन में यह समझते हैं कि हम इनके मालिक बन गये , हमारा इ नपर आधिपत्य है परन्तु वास्तव में यह बात बिलकुल झूठी है , कोरा वहम है और बड़ा भारी धोखा है। जो किसी चीज को अपनी मान लेता है वह उस चीज का गुलाम बन जाता है और वह चीज उसका मालिक बन जाती है। फिर उस चीज के बिना वह रह नहीं सकता। अतः जिन चीजों को मनुष्य अपनी मान लेता है वे सब उस पर चढ़ जाती हैं और वह तुच्छ हो जाता है। वह चीज चाहे रुपया हो , चाहे कुटुम्बी हो , चाहे शरीर हो , चाहे विद्याबुद्धि आदि हो। ये सब चीजें प्राकृत हैं और अपने से भिन्न हैं पर हैं। इनके अधीन होना ही पराधीन होना है। भगवान स्वकीय हैं , अपने हैं। उनको मनुष्य अपना मानेगा तो वे मनुष्य के वश में हो जायँगे। भगवान के हृदय में भक्त का जितना आदर है उतना आदर करने वाला संसार में दूसरा कोई नहीं है। भगवान भक्त के दास हो जाते हैं और उसे अपना मुकुटमणि बना लेते हैं – मैं तो हूँ भगतन का दास भगत मेरे मुकुटमणि परन्तु संसार मनुष्य का दास बनकर उसे अपना मुकुटमणि नहीं बनायेगा। वह तो उसे अपना दास बनाकर पददलित ही करेगा। इसलिये केवल भगवान के शरण होकर सर्वथा उन्हीं के परायण हो जाना चाहिये। बुद्धियोगमुपाश्रित्य – गीताभर में देखा जाय तो समता की बड़ी भारी महिमा है। मनुष्य में एक समता आ गयी तो वह ज्ञानी , ध्यानी , योगी , भक्त आदि सब कुछ बन गया परन्तु यदि उसमें समता नहीं आयी तो अच्छे-अच्छे लक्षण आने पर भी भगवान उसको पूर्णता नहीं मानते। वह समता मनुष्य में स्वाभाविक रहती है। केवल आने-जाने वाली परिस्थितियों के साथ मिलकर वह सुखी-दुःखी हो जाता है। इसलिये उनमें मनुष्य सावधान रहे कि आने-जाने वाली परिस्थिति के साथ मैं नहीं हूँ। सुख आया , अनुकूल परिस्थिति आयी तो भी मैं हूँ और सुख चला गया , अनुकूल परिस्थिति चली गयी तो भी मैं हूँ। ऐसे ही दुःख आया , प्रतिकूल परिस्थिति आयी तो भी मैं हूँ और दुःख चला गया , प्रतिकूल परिस्थिति चली गयी तो भी मैं हूँ। अतः सुख-दुःख में , अनुकूलता-प्रतिकूलता में , हानि-लाभ में मैं सदैव ज्यों का त्यों रहता हूँ। परिस्थितियों के बदलने पर भी मैं नहीं बदलता , सदा वही रहता हूँ। इस तरह अपने आप में स्थित रहे। अपने आप में स्थित रहने से सुख-दुःख आदि में समता हो जायगी। यह समता ही भगवान की आराधना है – समत्वमाराधनमच्युतस्य (विष्णुपुराण 1। 17। 90)। इसीलिये यहाँ भगवान बुद्धियोग अर्थात् समता का आश्रय लेने के लिये कहते हैं। मच्चित्तः सततं भव – जो अपने को सर्वथा भगवान के समर्पित कर देता है उसका चित्त भी सर्वथा भगवान के चरणों में समर्पित हो जाता है। फिर उस पर भगवान का जो स्वतः स्वाभाविक अधिकार है वह प्रकट हो जाता है और उसके चित्त में स्वयं भगवान आकर विराजमान हो जाते हैं। यही मच्चित्तः होना है। ‘मच्चित्तः’ पद के साथ ‘सततम्’ पद देनेका अर्थ है कि निरन्तर मेरे में (भगवान में ) चित्तवाला हो जा। भगवान का निरन्तर चिन्तन तभी होगा जब ‘मैं भगवान का हूँ’ , इस प्रकार अहंता भगवान में लग जायगी। अहंता भगवान में लग जाने पर चित्त स्वतः स्वाभाविक भगवान में लग जाता है। जैसे शिष्य बनने पर मैं गुरु का हूँ , इस प्रकार अहंता गुरु में लग जाने पर गुरु की याद निरन्तर बनी रहती है। गुरु का सम्बन्ध अहंता में बैठ जाने के कारण इस सम्बन्ध की याद आये तो भी याद है और याद न आये तो भी याद है क्योंकि स्वयं निरन्तर रहता है। इसमें भी देखा जाय तो गुरु के साथ उसने खुद सम्बन्ध जोड़ा है परन्तु भगवान के साथ इस जीव का स्वतःसिद्ध नित्य सम्बन्ध है। केवल संसार के साथ सम्बन्ध जोड़ने से ही नित्य सम्बन्ध की विस्मृति हुई है। उस विस्मृति को मिटाने के लिये भगवान कहते हैं कि निरन्तर मेरे में चित्त वाला हो जा। साधक कोई भी सांसारिक काम-धंधा करे तो उसमें यह एक सावधानी रखे कि अपने चित्त को उस काम-धंधे में द्रवित न होने दे , चित्त को संसार के साथ घुलने-मिलने न दे अर्थात् तदाकार न होने दे प्रत्युत उसमें अपने चित्त को कठोर रखे परन्तु भगवन्नाम का जप , कीर्तन , भगवत्कथा , भगवच्चिन्तन आदि भगवत्सम्बन्धी कार्यों में चित्त को द्रवित करता रहे , तल्लीन करता रहे , उस रस में चित्त को तरान्तर करता रहे (टिप्पणी प0 954.1)। इस प्रकार करते रहने से साधक बहुत जल्दी भगवान में  चित्तवाला हो जायगा। प्रेमसम्बन्धी विशेष बात – चित्त से सब कर्म भगवान के अर्पण करने से संसार से नित्य वियोग हो जाता है (टिप्पणी प0 954.2) और भगवान के परायण होने से नित्ययोग (प्रेम) हो जाता है। नित्ययोग में योग, नित्ययोग में वियोग , वियोग में नित्ययोग और वियोग में वियोग – ये चार अवस्थाएँ चित्त की वृत्तियों को लेकर होती हैं। इन चारों अवस्थाओं को इस प्रकार समझना चाहिये – जैसे श्रीराधा और श्रीकृष्ण का परस्पर मिलन होता है तो यह नित्ययोग में योग है। मिलन होने पर भी श्रीजी में ऐसा भाव आ जाता है कि प्रियतम कहीं चले गये हैं और वे एकदम कह उठती हैं कि प्यारे तुम कहाँ चले गये ? तो यह नित्ययोग में वियोग है। श्यामसुन्दर सामने नहीं हैं पर मन से उन्हीं का गाढ़ चिन्तन हो रहा है और वे मन से प्रत्यक्ष मिलते हुए दिख रहे हैं तो यह वियोग में नित्ययोग है। श्यामसुन्दर थोड़े समय के लिये सामने नहीं आये पर मन में ऐसा भाव है कि बहुत समय बीत गया , श्यामसुन्दर मिले नहीं , क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? श्यामसुन्दर कैसे मिलें ? तो यह वियोग में वियोग है। वास्तव में इन चारों अवस्थाओं में भगवान के साथ नित्ययोग ज्यों का त्यों बना रहता है। वियोग कभी होता ही नहीं , हो सकता ही नहीं और होने की संभावना भी नहीं। इसी नित्ययोग को प्रेम कहते हैं क्योंकि प्रेम में प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों अभिन्न रहते हैं। वहाँ भिन्नता कभी हो ही नहीं सकती। प्रेम का आदान-प्रदान करने के लिये ही भक्त और भगवान में संयोग-वियोग की लीला हुआ करती है। यह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान किस प्रकार है ? जब प्रेमी और प्रेमास्पद परस्पर मिलते हैं तब प्रियतम पहले चले गये थे , उनसे वियोग हो गया था । अब कहीं ये फिर न चले जायँ (टिप्पणी प0 954.3) इस भाव के कारण प्रेमास्पद के मिलने में तृप्ति नहीं होती , सन्तोष नहीं होता। वे चले जायँगे – इस बात को लेकर मन ज्यादा खिंचता है। इसलिये इस प्रेम को प्रतिक्षण वर्धमान बताया है। प्रेम (भक्ति) में चार प्रकार का रस अथवा रति होती है – दास्य , सख्य , वात्सल्य और माधुर्य। इन रसों में दास्य से सख्य , सख्य से वात्सल्य और वात्सल्य से माधुर्य रस श्रेष्ठ है क्योंकि इनमें क्रमशः भगवान के ऐश्वर्य की विस्मृति ज्यादा होती चली जाती है परन्तु जब इन चारों में से कोई एक भी रस पूर्णता में पहुँच जाता है तब उसमें दूसरे रसों की कमी नहीं रहती अर्थात् उसमें सभी रस आ जाते हैं। जैसे दास्य रस पूर्णता में पहुँच जाता है तो उसमें सख्य , वात्सल्य और माधुर्य – तीनों रस आ जाते हैं। यही बात अन्य रसों के विषय में भी समझनी चाहिये। कारण यह है कि भगवान पूर्ण हैं , उनका प्रेम भी पूर्ण है और परमात्मा का अंश होने से जीव स्वयं भी पूर्ण है। अपूर्णता तो केवल संसार के सम्बन्ध से ही आती है। इसलिये भगवान के साथ किसी भी रीति से रति हो जायगी तो वह पूर्ण हो जायगी , उसमें कोई कमी नहीं रहेगी। दास्य रति में भक्त का भगवान के प्रति यह भाव रहता है कि भगवान मेरे स्वामी हैं और मैं उनका सेवक हूँ। मेरे पर उनका पूरा अधिकार है। वे चाहे जो करें , चाहे जैसी परिस्थितिमें रखें और मेरे से चाहे जैसा काम लें। मेरे पर अत्यधिक अपनापन होने से ही वे बिना मेरी सम्मति लिये ही मेरे लिये सब विधान करते हैं। सख्य रति में भक्त का भगवान के प्रति यह भाव रहता है कि भगवान मेरे सखा हैं और मैं उनका सखा हूँ। वे मेरे प्यारे हैं और मैं उनका प्यारा हूँ। उनका मेरे पर पूरा अधिकार है और मेरा उन पर पूरा अधिकार है। इसलिये मैं उनकी बात मानता हूँ तो मेरी भी बात उनको माननी पड़ेगी। वात्सल्य रति में भक्त का अपने में स्वामी भाव रहता है कि मैं भगवान की माता हूँ या उनका पिता हूँ अथवा उनका गुरु हूँ और वह तो हमारा बच्चा है अथवा शिष्य है । इसलिये उसका पालन-पोषण करना है। उसकी निगरानी भी रखनी है कि कहीं वह अपना नुकसान न कर ले जैसे – नन्दबाबा और यशोदा मैया कन्हैया का खयाल रखते हैं और कन्हैया वन में जाता है तो उसकी निगरानी रखने के लिये दाऊजी को साथ में भेजते हैं । माधुर्य (टिप्पणी प0 955) रति में भक्त को भगवान के ऐश्वर्य की विशेष विस्मृति रहती है । अतः इस रति में भक्त भगवान के साथ अपनी अभिन्नता (घनिष्ठ अपनापन) मानता है। अभिन्नता मानने से उनके लिये सुखदायी सामग्री जुटानी है , उन्हें सुख-आराम पहुँचाना है , उनको किसी तरह की कोई तकलीफ न हो – ऐसा भाव बना रहता है। प्रेमरस अलौकिक है , चिन्मय है। इसका आस्वादन करने वाले केवल भगवान ही हैं। प्रेम में प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों ही चिन्मयतत्त्व होते हैं। कभी प्रेमी प्रेमास्पद बन जाता है और कभी प्रेमास्पद प्रेमी हो जाता है। अतः एक चिन्मयतत्त्व ही प्रेम का आस्वादन करने के लिये दो रूपों में हो जाता है। प्रेम के तत्त्व को न समझने के कारण कुछ लोग सांसारिक काम को ही प्रेम कह देते हैं। उनका यह कहना बिलकुल गलत है क्योंकि काम तो चौरासी लाख योनियों के सम्पूर्ण जीवों में रहता है और उन जीवों में भी जो भूत , प्रेत , पिशाच होते हैं उनमें काम (सुखभोग की इच्छा) अत्यधिक होता है परन्तु प्रेम के अधिकारी जीवन्मुक्त महापुरुष ही होते हैं। काम में लेने ही लेने की भावना होती है और प्रेम में देने ही देने की भावना होती है। काम में अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने – उनसे सुख भोगने का भाव रहता है और प्रेम में अपने प्रेमास्पद को सुख पहुँचाने तथा सेवापरायण रहने का भाव रहता है। काम केवल शरीर को लेकर ही होता है और प्रेम स्थूलदृष्टि से शरीर में दिखते हुए भी वास्तव में चिन्मयतत्त्व से ही होता है। काम में मोह (मूढ़भाव) रहता है और प्रेम में मोह की गन्ध भी नहीं रहती। काम में संसार तथा संसार का दुःख भरा रहता है और प्रेम में मुक्ति तथा मुक्ति से भी विलक्षण आनन्द रहता है। काम में जडता (शरीर , इन्द्रियाँ आदि) की मुख्यता रहती है और प्रेम में चिन्मयता (चेतन स्वरूप) की मुख्यता रहती है। काम में राग होता है और प्रेम में त्याग होता है। काम में परतन्त्रता होती है और प्रेम में परतन्त्रता का लेश भी नहीं होता अर्थात् सर्वथा स्वतन्त्रता होती है। काम में वह मेरे काम में आ जाय , ऐसा भाव रहता है और प्रेम में मैं उसके काम में आ जाऊँ , ऐसा भाव रहता है। काम में कामी भोग्य वस्तु का गुलाम बन जाता है और प्रेम में स्वयं भगवान प्रेमी के गुलाम बन जाते हैं। काम का रस नीरसता में बदलता है और प्रेम का रस आनन्दरूप से प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है। काम खिन्नता से पैदा होता है और प्रेम प्रेमास्पद की प्रसन्ता से प्रकट होता है। काम में अपनी प्रसन्नता का ही उद्देश्य रहता है और प्रेम में प्रेमास्पद की प्रसन्नता का ही उद्देश्य रहता है। काममार्ग नरकों की तरफ ले जाता है और प्रेममार्ग भगवान की तरफ ले जाता है। काम में दो होकर दो ही रहते हैं अर्थात् द्वैधीभाव (भिन्नता या भेद) कभी मिटता नहीं और प्रेम में एक होकर दो होते हैं अर्थात् अभिन्नता कभी मिटती नहीं (टिप्पणी प0 956)।    पूर्वश्लोक में दी हुई आज्ञा को अब भगवान आगे के दो श्लोकों में क्रमशः अन्वय और व्यतिरेकरीति से दृढ़ करते हैं।

 

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