The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद

 

 

Bhagavat Gita chapter 18- Moksha Sanyas Yogaप्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।

बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.30।।

 

प्रवृत्तिम् – संसार की ओर प्रवृत्त करने वाले कर्म ; च – और; निवृत्तिम् – कर्म से वैराग्य; च – और; कार्य – उचित कार्य: अकार्य – अनुचित कार्य; भय – भय; अभये – भय रहित; बन्धम् – बंधन क्या है; मोक्षम् – मोक्ष क्या है; च – और; या – जो; वेत्ति – जानता है; बुद्धिः – बुद्धि; सा – वह; पार्थ – पृथापुत्र, अर्जुन; सात्त्विकी – सत्वगुणी।

 

हे पृथानन्दन ! वह बुद्धि सत्वगुणी या सात्विकी है जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि क्या प्रवृत्ति है और क्या निवृत्ति है अर्थात कौन से कर्म संसार में लगाने वाले हैं और कौन से कर्म वैराग्य की ओर ले जाने वाले हैं , क्या उचित है और क्या अनुचित है, क्या कर्त्तव्य है और क्या अकर्तव्य या अकरणीय है अर्थात न करने योग्य है , किससे भयभीत होना चाहिए और किससे भयभीत नहीं होना चाहिए और क्या बंधन में डालने वाला है और क्या मुक्ति देने वाला है अर्थात जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, उचित कार्य और अनुचित कार्य, भय और अभय तथा बंधन और मोक्ष को तत्व से जानती है, वह बुद्धि सात्विकी है।।18.30।।

 

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च – साधकमात्र की प्रवृत्ति और निवृत्ति – ये दो अवस्थाएँ होती हैं। कभी वह संसार का काम-धंधा करता है तो यह प्रवृत्ति-अवस्था है और कभी संसार का काम-धंधा छोड़कर एकान्त में भजन-ध्यान करता है तो यह निवृत्ति-अवस्था है परन्तु इन दोनों में सांसारिक कामनासहित प्रवृत्ति और वासना सहित निवृत्ति (टिप्पणी प0 912) – ये दोनों ही अवस्थाएँ प्रवृत्ति हैं अर्थात् संसार में लगाने वाली हैं तथा सांसारिक कामनारहित प्रवृत्ति और वासनारहित निवृत्ति – ये दोनों ही अवस्थाएँ निवृत्ति हैं अर्थात् परमात्मा की तरफ ले जाने वाली हैं। इसलिये साधक इनको ठीक-ठीक जानकर कामना-वासना रहित प्रवृत्ति और निवृत्ति को ही ग्रहण करें। वास्तव में गहरी दृष्टि से देखा जाय तो कामना-वासना रहित प्रवृत्ति और निवृत्ति भी यदि अपने सुख , आराम आदि के लिये की जाएं तो वे दोनों ही प्रवृत्ति हैं क्योंकि वे दोनों ही बाँधने वाली हैं अर्थात् उनसे अपना व्यक्तित्व नहीं मिटता परन्तु यदि कामनावासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्ति – दोनों केवल दूसरों के सुख , आराम और हित के लिये ही की जाएं तो वे दोनों ही निवृत्ति हैं क्योंकि उन दोनों से ही अपना व्यक्तित्व नहीं रहता। वह अव्यक्तित्व कब नहीं रहता जब प्रवृत्ति और निवृत्ति जिसके प्रकाश से प्रकाशित होती हैं तथा जो प्रवृत्ति और निवृत्ति से रहित है उस प्रकाशक अर्थात् तत्त्व की प्राप्ति के उद्देश्य से ही प्रवृत्ति और निवृत्ति की जाय। प्रवृत्ति तो की जाय प्राणिमात्र की सेवा के लिये और निवृत्ति की जाय परम विश्राम अर्थात् स्वरूप-स्थिति के लिये। कार्याकार्ये – शास्त्र , वर्ण , आश्रम की मर्यादा के अनुसार जो काम किया जाता है वह कार्य है और शास्त्र आदि की मर्यादा से विरुद्ध जो काम किया जाता है वह अकार्य है। जिसको हम कर सकते हैं , जिसको जरूर करना चाहिये और जिसको करने से जीव का जरूर कल्याण होता है वह कार्य अर्थात् कर्तव्य कहलाता है और जिसको हमें नहीं करना चाहिये तथा जिससे जीव का बन्धन होता है वह अकार्य अर्थात् अकर्तव्य कहलाता है। जिसको हम नहीं कर सकते वह अकर्तव्य नहीं कहलाता वह तो अपनी असामर्थ्य है। भयाभये – भय और अभय के कारण को देखना चाहिये। जिस कर्म से अभी और परिणाम में अपना और दुनिया का अनिष्ट होने की सम्भावना है वह कर्म भय अर्थात् भयदायक है और जिस कर्म से अभी और परिणाम में अपना और दुनिया का हित होने की सम्भावनना है वह कर्म अभय अर्थात् सबको अभय करने वाला है। मनुष्य जब करने लायक कार्य से च्युत होकर अकार्य में प्रवृत्त होता है तब उसके मन में अपनी मान – बड़ाई की हानि और निन्दा-अपमान होने की आशङ्का से भय पैदा होता है परन्तु जो अपनी मर्यादा से कभी विचलित नहीं होता अपने मन से किसी का भी अनिष्ट नहीं चाहता और केवल परमात्मा में ही लगा रहता है उसके मन में सदा अभय बना रहता है। यह अभय ही मनुष्य को सर्वथा अभयपद – परमात्मा को प्राप्त करा देता है। बन्धं मोक्षं च या वेत्ति – जो बाहर से तो यज्ञ , दान , तीर्थ , व्रत आदि उत्तम से उत्तम कार्य करता है परन्तु भीतर से असत् जड , नाशवान पदार्थों को और स्वर्ग आदि लोकों को चाहता है उसके लिये वे सभी कर्म बन्ध अर्थात् बन्धनकारक ही हैं। केवल परमात्मा से ही सम्बन्ध रखना , परमात्मा के सिवाय कभी किसी अवस्था में असत् संसार के साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध न रखना मोक्ष अर्थात् मोक्षदायक है। अपने को जो वस्तुएँ नहीं मिली हैं उनकी कामना होने से मनुष्य उनके अभाव का अनुभव करता है। वह अपने को उन वस्तुओं के परतन्त्र मानता है और वस्तुओं के मिलने पर अपने को स्वतन्त्र मानता है। वह समझता तो यह है कि मेरे पास वस्तुएँ होने से मैं स्वतन्त्र हो गया हूँ पर हो जाता है उन वस्तुओं के परतन्त्र वस्तुओं के अभाव और वस्तुओं के भाव – इन दोनों की परतन्त्रता में इतना ही फरक पड़ता है कि वस्तुओं के अभाव में परतन्त्रता दीखती है? खटकती है और वस्तुओंके होनेपर वस्तुओंकी परतन्त्रता परतन्त्रताके रूपमें दीखती ही नहीं क्योंकि उस समय मनुष्य अन्धा हो जाता है परन्तु हैं ये दोनों ही परतन्त्रता और परतन्त्रता ही बन्धन है। अभाव की परतन्त्रता प्रकट विष है और भाव की परतन्त्रता छिपा हुआ मीठा विष है पर हैं दोनों ही विष। विष तो मारने वाला ही होता है। निष्कर्ष यह निकला कि सांसारिक वस्तुओं की कामना से ही बन्धन होता है और परमात्मा के सिवाय किसी वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति , देश , काल आदि की कामना न होने से मुक्ति होती है (टिप्पणी प0 913)। यदि मन में कामना है तो वस्तु पास में हो तो बन्धन और पास में न हो तो बन्धन , यदि मन में कामना नहीं है तो वस्तु पास में हो तो मुक्त और पास में न हो तो मुक्तिबुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी – इस प्रकार जो प्रवृत्ति-निवृत्ति , कार्य-अकार्य , भय-अभय और बन्ध-मोक्ष के वास्तविक तत्त्व को जानती है वह बुद्धि सात्त्विकी है। इनके वास्तविक तत्त्व को जानना क्या है ? प्रवृत्ति-निवृत्ति , कार्य-अकार्य , भय-अभय और बन्ध-मोक्ष – इनको गहरी रीति से समझकर जिसके साथ वास्तव में हमारा सम्बन्ध नहीं है उस संसार के साथ सम्बन्ध न मानना और जिसके साथ हमारा स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है ऐसे (प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि के आश्रय तथा प्रकाशक) परमात्मा को तत्त्व से ठीक-ठीक जानना – यही सात्त्विकी बुद्धि के द्वारा वास्तविक तत्त्व को ठीक-ठीक जानना है। अब राजसी बुद्धि के लक्षण बताते हैं।

 

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