The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद

 

 

Moksha Sanyas Yog-Chapter 18 Bhagawad Gitaधृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।

योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.33।।

 

धृत्या – संकल्प द्वारा; यया-जिससे; धारयते – धारण करता है; मन:-मन का; प्राण-जीवन शक्ति; इन्द्रिय-इन्द्रियों के ; क्रिया:-क्रिया कलापों को; योगेन – योगाभ्यास द्वारा; अव्यभिचारिण्या-दृढ़ संकल्प के साथ; धृतिः-दृढ़ निश्चय; सा-वह; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; सात्त्विकी-सत्वगुणी।

 

जो धृति या धारण शक्ति अथवा दृढ संकल्प शक्ति योग या योगाभ्यास से विकसित होती है और जो मन, प्राण शक्ति और इन्द्रियों की क्रियाओं को स्थिर रखती है उसे सात्विक धृति या संकल्प कहते हैं अर्थात समता से युक्त जिस अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है।।18.35।।

( जिस अव्यभिचारिणी अर्थात इधर – उधर न भटकने वाली स्थिर धृति के द्वारा अर्थात् सदा समाधि में लगी हुई जिस धारणा के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की सब क्रियाएँ धारण की जाती हैं अर्थात् मन, प्राण और इन्द्रियों की सब चेष्टाएँ जिसके द्वारा शास्त्रविरुद्ध प्रवृत्ति से रोकी जाती हैं वह धृति सात्त्विकी है। सात्त्विकी धृति द्वारा धारण की हुई इन्द्रियाँ ही शास्त्रविरुद्ध विषय में प्रवृत्त नहीं होतीं। कहने का तात्पर्य यह है कि धारण करने वाला मनुष्य जिस अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा समाधि योग से मन। प्राण और इन्द्रियों की चेष्टाओं को धारण करता है वह इस प्रकार की धृति सात्त्विकी है। )

 

धृत्या यया धारयते ৷৷. योगेनाव्यभिचारिण्या – सांसारिक लाभ-हानि , जय-पराजय , सुख-दुःख , आदर-निरादर , सिद्धि-असिद्धि में सम रहने का नाम योग (समता) है। परमात्मा को चाहने के साथ-साथ इस लोक में सिद्धि , असिद्धि , वस्तु , पदार्थ , सत्कार , पूजा आदि और परलोक में सुखभोग को चाहना व्यभिचार है और इस लोक तथा परलोक के सुख , भोग , वस्तु , पदार्थ आदि की किञ्चिन्मात्र भी इच्छा न रखकर केवल परमात्मा को चाहना अव्यभिचार है। यह अव्यभिचार जिसमें होता है वह धृति अव्यभिचारिणी कहलाती है। अपनी मान्यता , सिद्धान्त , लक्ष्य , भाव , क्रिया , वृत्ति , विचार आदि को दृढ़ , अटल रखने की शक्ति का नाम धृति है। योग अर्थात् समता से युक्त इस अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा मनुष्य मन , प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है। मन में राग-द्वेष को लेकर होने वाले चिन्तन से रहित होना , मन को जहाँ लगाना चाहें वहाँ लग जाना और जहाँ से हटाना चाहें वहाँ से हट जाना आदि मन की क्रियाओं को धृति के द्वारा धारण करना है। प्राणायाम करते हुए रेचक में पूरक न होना , पूरक में रेचक न होना और बाह्य कुम्भक में पूरक न होना तथा आभ्यन्तर कुम्भक में रेचक न होना अर्थात् प्राणायाम के नियम से विरुद्ध श्वास-प्रश्वासों का न होना ही धृति के द्वारा प्राणों की क्रियाओं को धारण करना है। शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध – इन विषयों को लेकर इन्द्रियों का उच्छृङ्खल न होना , जिस विषय में जैसे प्रवृत्त होना चाहें उसमें प्रवृत्त होना और जिस विषय से निवृत्त होना चाहें उसमें निवृत्त होना ही धृति के द्वारा इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करना है। धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी – जिस धृति से मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं पर आधिपत्य हो जाता है । हे पार्थ ! वह धृति सात्त्विकी है। अब राजसी धृति के लक्षण बताते हैं।

 

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