मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।18.37।।
यत्-जो; तत्-वह; अग्रे – आरम्भ में; विषमिव ( विषम्-इव ) – विष के समान; परिणामे-अन्त में; ऽमृतोपमम् (अमृत-उपमम् ) -अमृत के समान; तत्-वह; सुखम्-सुख; सात्त्विकम्-सत्वगुणी; प्रोक्तम्-कहा जाता है; आत्मबुद्धि-आत्म ज्ञान में स्थित; प्रसादजम्-शुद्ध बुद्धि से उत्पन्न।
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! ऐसा वह परमात्मविषयक , बुद्धि की प्रसन्नता से अथवा शुद्ध बुद्धि से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ में विष की तरह और परिणाम में अमृत की तरह अनुभव होता है, वह सुख सात्त्विक कहा गया है।।18.37।।
भरतर्षभ – इस सम्बोधन को देने में भगवान का भाव यह है कि भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! तुम राजस-तामस सुखों में लुब्ध , मोहित होने वाले नहीं हो क्योंकि तुम्हारे लिये राजस और तामस सुख पर विजय करना कोई बड़ी बात नहीं है। तुमने राजस सुख पर विजय भी कर ली है क्योंकि स्वर्ग की उर्वशी जैसी सुन्दरी अप्सरा को भी तुमने ठुकरा दिया है। इसी प्रकार तुमने तामस सुख पर भी विजय कर ली है क्योंकि प्राणिमात्र के लिये आवश्यक जो निद्रा का तामस सुख है उसको तुमने जीत लिया है। इसी से तुम्हारा नाम गुडाकेश हुआ है। सुखं तु इदानीम् – ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि और धृति के तीन-तीन भेद बताने के बाद यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग करके भगवान कहते हैं कि सुख भी तीन तरह का होता है। इसमें एक विशेष ध्यान देने की बात है कि आज पारमार्थिक मार्ग पर चलने वाले जितने भी साधक हैं उन साधकों की ऊँची स्थिति न होने में अथवा उनको परमात्मतत्त्व का अनुभव न होने में अगर कोई विघ्न-बाधा है तो वह है – सुख की इच्छा। सात्त्विक सुख भी आसक्ति के कारण बन्धनकारक हो जाता है। तात्पर्य है कि अगर साधनजन्य – ध्यान और एकाग्रता का सुख भी लिया जाय तो वह भी बन्धनकारक हो जाता है। इतना ही नहीं अगर समाधि का सुख भी लिया जाय तो वह भी परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में बाधक हो जाता है – सुखसङ्गेन बध्नाति (गीता 14। 6)। इस विषय में कोई कहे कि परमात्मतत्त्व का सुख आ जाय तो क्या उस सुख को भी हम न लें ? वास्तव में परमात्मतत्त्व का सुख लिया नहीं जाता प्रत्युत उस अक्षय सुख का स्वतः अनुभव होता है (गीता 5। 21 6। 21? 28)। साधनजन्य सुख का भोग न करने से वह अक्षय स्वतः स्वाभाविक प्राप्त हो जाता है। उस अक्षय सुख की तरफ विशेष खयाल कराने के लिये भगवान यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग करते हैं। यहाँ ‘इदानीम्’ कहने का का तात्पर्य है कि अर्जुन संन्यास और त्याग के तत्त्व को जानना चाहते है । अतः उनकी जिज्ञासा के उत्तर में भगवान ने त्याग , ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि और धृति के तीन-तीन भेद बताये परन्तु इन सबमें ध्येय तो सुख का ही होता है। अतः भगवान कहते हैं कि तुम उसी ध्येय की सिद्धि के लिये सुख के भेद सुनो। त्रिविधं श्रृणु मे – लोग रात-दिन राजस और तामस सुख में लगे रहते हैं और उसी को वास्तविक सुख मानते हैं। इस कारण सांसारिक भोगों से ऊँचा उठकर भी कोई सुख मिल सकता है , प्राणों के मोह से ऊँचा उठकर भी कोई सुख मिल सकता है , राजस और तामस सुख से आगे भी कोई सात्त्विक सुख है । वे इन बातों को समझ ही नहीं सकते। इसलिये भगवान कहते हैं कि भैया वह सुख तीन प्रकार का होता है । उनको तुम सुनो और उनमें से सात्त्विक सुख को ग्रहण करो और राजस-तामस सुखों का त्याग करो। कारण कि सात्त्विक सुख परमात्मा की तरफ चलने में सहायता करने वाला है और राजस-तामस सुख संसार में फँसाकर पतन करने वाले हैं।अभ्यासाद्रमते यत्र – सात्त्विक सुख में अभ्यास से रमण होता है। साधारण मनुष्यों को अभ्यास के बिना इस सुख का अनुभव नहीं होता। राजस और तामस सुख में अभ्यास नहीं करना पड़ता। उसमें तो प्राणिमात्र का स्वतःस्वाभाविक ही आकर्षण होता है। राजस-तामस सुख में इन्द्रियों का विषयों की ओर , मन-बुद्धि का भोगसंग्रह की ओर तथा थकावट होने पर निद्रा आदि की ओर स्वतः आकर्षण होता है। विषयजन्य , अभिमानजन्य , प्रशंसाजन्य और निद्राजन्य सुख सभी प्राणियों को स्वतः ही अच्छे लगते हैं। कुत्ते आदि जो नीच प्राणी हैं उनका भी आदर करते हैं तो वे राजी होते हैं और निरादर करते हैं तो नाराज हो जाते हैं , दुःखी हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि राजस और तामस सुख में अभ्यास की जरूरत नहीं है क्योंकि इस सुख को सभी प्राणी अन्य योनियों में भी लेते आये हैं। इस सात्त्विक सुख में अभ्यास क्या है ? श्रवण-मनन भी अभ्यास है , शास्त्रों को समझना भी अभ्यास है और राजसी-तामसी वृत्तियों को हटाना भी अभ्यास है। जिस राजस और तामस सुख में प्राणिमात्र की स्वतःस्वाभाविक प्रवृत्ति हो रही है उससे भिन्न नयी प्रवृत्ति करने का नाम अभ्यास है। सात्त्विक सुख में अभ्यास करना तो आवश्यक है पर रमण करना बाधक है। यहाँ ‘अभ्यासाद्रमते’ पद का यह भाव नहीं है कि सात्त्विक सुख का भोग किया जाय प्रत्युत सात्त्विक सुख में अभ्यास से ही रुचि , प्रियता , प्रवृत्ति आदि के होने को ही यहाँ रमण करना कहा गया है। दुःखान्तं च निगच्छति – उस सात्त्विक सुख में अभ्यास से ज्यों-ज्यों रुचि , प्रियता बढ़ती जाती है त्यों-त्यों परिणाम में दुःखों का नाश होता जाता है और प्रसन्नता , सुख तथा आनन्द बढ़ते जाते हैं (गीता 2। 65)। ‘च अव्यय’ देने का तात्पर्य है कि जब तक सात्त्विक सुख में रमण होगा अर्थात् साधक सात्त्विक सुख लेता रहेगा तब तक दुःखों का अत्यन्त अभाव नहीं होगा। कारण कि सात्त्विक सुख भी परमात्मविषयक बुद्धि की प्रसन्नता से पैदा हुआ है – आत्मबुद्धिप्रसादजम्। जो उत्पन्न होने वाला होता है वह जरूर नष्ट होता है। ऐसे सुख से दुःखों का अन्त कैसे होगा ? इसलिये सात्त्विक सुख में भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। सात्त्विक सुख से भी ऊँचा उठने से मनुष्य दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है , गुणातीत हो जाता है। आत्मबुद्धिप्रसादजम् – जिस बुद्धि में सांसारिक मान , बड़ाई , आदर , धनसंग्रह , विषयजन्य सुख आदि का महत्त्व नहीं रहता केवल परमात्मविषय विचार ही रहता है उस बुद्धि की प्रसन्नता (गीता 2। 64) अर्थात् स्वच्छता से यह सात्त्विक सुख पैदा होता है। तात्पर्य है कि सांसारिक संयोगजन्य सुख से सर्वथा उपरत होकर परमात्मा में बुद्धि के विलीन होने पर जो सुख होता है वह सुख सात्त्विक है। यत्तदग्रे विषमिव – यहाँ ‘यत्तत्’ कहने का भाव यह है कि यत् – जो सात्त्विक सुख है , तत् – वह परोक्ष है अर्थात् उसका अभी अनुभव नहीं हुआ है। अभी तो उस सुख का केवल उद्देश्य बनाया है जबकि राजस और तामस सुख का अभी अनुभव होता है। इसलिये अनुभवजन्य राजस और तामस सुख का त्याग करने में कठिनता आती है और लक्ष्यरूप में जो सात्त्विक सुख है उसकी प्राप्ति के लिये किया हुआ रसहीन परिश्रम (अभ्यास) आरम्भ में जहर की तरह लगता है – अग्ने विषमिव। तात्पर्य यह है कि अनुभवजन्य राजस और तामस सुख का तो त्याग कर दिया और लक्ष्य वाला सात्त्विक सुख मिला नहीं – उसका रस अभी मिला नहीं इसलिये वह सात्त्विक सुख आरम्भ में जहर की तरह प्रतीत होता है। राजस और तामस सुख को अनेक योनियों में भोगते आये हैं और उसे इस जन्म में भी भोगा है। उस भोगे हुए सुख की स्मृति आने से राजस और तामस सुख में स्वाभाविक ही मन लग जाता है परन्तु सात्त्विक सुख उतना भोगा हुआ नहीं है इसलिये इसमें जल्दी मन नहीं लगता। इस कारण सात्त्विक सुख आरम्भ में विष की तरह लगता है।वास्तव में सात्त्विक सुख विष की तरह नहीं है प्रत्युत राजस और तामस सुख का त्याग विष की तरह होता है। जैसे बालक को खेलकूद छोड़कर पढ़ाई में लगाया जाय तो उसको पढ़ाई में कैदी की तरह होकर अभ्यास करना पड़ता है। पढ़ाई में मन नहीं लगता तथा इधर उच्छृङ्खलता , खेलकूद छूट जाता है तो उसको पढ़ाई विष की तरह मालूम देती है परन्तु वही बालक पढ़ता रहे और एक-दो परीक्षाओं में पास हो जाय तो उसका पढ़ाई में मन लग जाता है अर्थात् उसको पढ़ाई अच्छी लगने लग जाती है। तब उसकी पढ़ाई के अभ्यास से रुचि , प्रियता होने लगती है। वास्तव में देखा जाय तो सात्त्विक सुख आरम्भ में विष की तरह उन्हीं लोगों के लिये होता है जिनका राजस और तामस सुख में राग है परन्तु जिनको सांसारिक भोगों से स्वाभाविक वैराग्य है जिनकी पारमार्थिक शास्त्राध्ययन , सत्सङ्ग , कथा-कीर्तन , साधन-भजन आदि में स्वाभाविक रुचि है और जिनके ज्ञान , कर्म , बुद्धि और धृति सात्त्विक हैं उन साधकों को यह सात्त्विक सुख आरम्भ से ही अमृत की तरह आनन्द देने वाला होता है। उनको इसमें कष्ट , परिश्रम , कठिनता आदि मालूम ही नहीं देते। परिणामेऽमृतोपमम् – साधन करने से साधक में सत्त्वगुण आता है। सत्त्वगुण के आने पर इन्द्रियों और अन्तःकरण में स्वच्छता , निर्मलता , ज्ञान की दीप्ति , शान्ति , निर्विकारता आदि सद्भाव-सद्गुण प्रकट हो जाते हैं (टिप्पणी प0 919)। इन सद्गुणों का प्रकट होना ही सात्त्विक सुख का परिणाम में अमृत की तरह होना है। इसका उपभोग न करने से अर्थात् इसमें रस न लेने से वास्तविक अक्षय सुख की प्राप्ति हो जाती है (गीता 5। 21)। परिणाम में सात्त्विक सुख राजस और तामस सुख से ऊँचा उठाकर जडता से सम्बन्ध-विच्छेद करा देता है और इसमें आसक्ति न होने से अन्त में परमात्मा की प्राप्ति करा देता है। इसलिये यह परिणाम में अमृत की तरह है। तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तम् – सत्सङ्ग , स्वाध्याय , संकीर्तन , जप , ध्यान , चिन्तन आदि से जो सुख होता है वह मान , बड़ाई , आराम , रुपये , भोग आदि विषयेन्द्रियसम्बन्ध का नहीं है और प्रमाद , आलस्य , निद्रा का भी नहीं है। वह तो परमात्मा के सम्बन्ध का है। इसलिये वह सुख सात्त्विक कहा गया है। अब राजस सुख का वर्णन करते हैं।