मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
भक्ति सहित कर्मयोग का विषय
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63।।
इति-इस प्रकार; ते – तुमको; ज्ञानम्-ज्ञान; आख्यातम् – समझाना; गुह्यात्-गूढ़ से अधिक; गुह्यतरम्-और अधिक गुह्य अर्थात गुह्यतर; मया – मेरे द्वारा; विमृश्य-विचार करके; एतत्-इस; अशेषेण-पूर्णतया; यथा-जैसी; इच्छसि-इच्छा हो; तथा-वैसा ही; कुरु-करो
इस प्रकार समस्त गोपनीयों से अधिक गोपनीय ज्ञान , गूढ़ से भो अधिक गूढ़ ( शरणागति रूप ) ज्ञान मैंने तुमसे कहा; इस पर गहनता पूर्ण अच्छी प्रकार से विचार करने के पश्चात् तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा तुम करो।।18.63।।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया – पूर्वश्लोक में सर्वव्यापक अन्तर्यामी परमात्मा की जो शरणागति बतायी गयी है उसी का लक्ष्य यहाँ ‘इति’ पद से कराया गया है। भगवान कहते हैं कि यह गुह्य से भी गुह्यतर शरणागतिरूप ज्ञान मैंने तेरे लिये कह दिया है। कर्मयोग गुह्य है और अन्तर्यामी निराकार परमात्मा की शरणागतिगुह्यतर है (टिप्पणी प0 965.1)। विमृश्यैतदशेषेण – गुह्य से गुह्यतर शरणागति रूप ज्ञान बताकर भगवान अर्जुन से कहते हैं कि मैंने पहले जो भक्ति की बातें कही हैं उन पर तुम अच्छी तरह से विचार कर लेना। भगवान ने इसी अध्याय के 57वें , 58वें श्लोकों में अपनी भक्ति (शरणागति) की जो बातें कही हैं उन्हें ‘एतत्’ पद से लेना चाहिये। गीता में जहाँ-जहाँ भक्ति की बातें आयी हैं उन्हें ‘अशेषेण’ पद से लेना चाहिये (टिप्पणी प0 965.2)। विमृश्यैतदशेषेण कहने में भगवान की अत्यधिक कृपालुता की एक गुढ़ाभिसन्धि है कि कहीं अर्जुन मेरे से विमुख न हो जाय । इसलिये यदि यह मेरी कही हुई बातों की तरफ विशेषता से खयाल करेगा तो असली बात अवश्य ही इसकी समझ में आ जायगी और फिर यह मेरे से विमुख नहीं होगा। यथेच्छसि तथा कुरु – पहले कही सब बातों पर पूरा-पूरा विचार करके फिर तेरी जैसी मरजी आये वैसा कर। तू जैसा करना चाहता है वैसा कर – ऐसा कहने में भी भगवान की आत्मीयता , कृपालुता और हितैषिता ही प्रत्यक्ष दिख रही है। पहले वक्ष्याम्यशेषतः (7। 2) इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे (9। 1) वक्ष्यामि हितकाम्यया (10। 1) आदि श्लोकों में भगवान अर्जुन के हित की बात कहते आये हैं पर इन वाक्यों में भगवान की अर्जुन पर सामान्य कृपा है। न श्रोष्यति विनङ्क्ष्यसि (18। 58) – इस श्लोक में अर्जुन को धमकाने में भगवान की विशेष कृपा और अपनेपन का भाव टपकता है। यहाँ यथेच्छसि तथा कुरु कहकर भगवान जो अपनेपन का त्याग कर रहे हैं इसमें तो भगवान की अत्यधिक कृपा और आत्मीयता भरी हुई है। कारण कि भक्त भगवान का धमकाया जाना तो सह सकता है पर भगवान का त्याग नहीं सह सकता। इसलिये ‘न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि’ आदि कहने पर भी अर्जुन पर इतना असर नहीं पड़ा जितना ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ कहने पर पड़ा। इसे सुनकर अर्जुन घबरा गये कि भगवान तो मेरा त्याग कर रहे हैं क्योंकि मैंने यह बड़ी भारी गलती की कि भगवान के द्वारा प्यार से समझाने , अपनेपन से धमकाने और अन्तर्यामी की शरणागति की बात कहने पर भी मैं कुछ बोला नहीं जिससे भगवान को जैसी मरजी आये वैसा कर – यह कहना पड़ा। अब तो मैं कुछ भी कहने के लायक नहीं हूँ । ऐसा सोचकर अर्जुन बड़े दुःखी हो जाते हैं तब भगवान अर्जुन के बिना पूछे ही सर्वगुह्यतम वचनों को कहते हैं जिसका वर्णन आगे के श्लोक में है। पूर्वश्लोक में भगवान ‘विमृश्यैतदेषेण’ पद से अर्जुन को कहा कि मेरे इस पूरे उपदेश का सार निकाल लेना परन्तु भगवान के सम्पूर्ण उपदेश का सार निकाल लेना अर्जुन के वश की बात नहीं थी क्योंकि अपने उपदेश का सार निकालना जितना वक्ता जानता है उतना श्रोता नहीं जानता । दूसरी बात- जैसी मरजी आये वैसा कर – इस प्रकार भगवान के मुख से अपने त्याग की बात सुनकर अर्जुन बहुत डर गये इसलिये आगे के दो श्लोकों में भगवान अपने प्रिय सखा अर्जुन को आश्वासन देते हैं।