मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
श्री गीताजी का माहात्म्य
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।18.71।।
श्रद्धा-वान्–श्रद्धा से युक्त; अनसूयः-द्वेषरहित; च-तथा; शृणुयात्-सुनता है; अपि-निश्चय ही; यः-जो; नरः-वह मनुष्यः सः-वह; अपि-भी; मुक्तः-मुक्त होकर; शुभान्–पवित्र; लोकान्–लोकों को प्राप्नुयात्–प्राप्त करता है; पुण्यकर्मणाम्-पुण्य कर्म करने वाली आत्माएँ।
वे जो श्रद्धायुक्त तथा द्वेष रहित होकर केवल इस ज्ञान को सुनते हैं वे पापों से मुक्त हो जाते हैं और मेरे पवित्र लोकों को पाते हैं जहाँ पुण्य आत्माएं निवास करती हैं अर्थात श्रद्धावान् और दोषदृष्टि से रहित जो मनुष्य इस गीता-ग्रन्थ को सुन भी लेगा या श्रवण मात्र भी करेगा , वह भी सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ और श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त हो जायगा।।18.71।।
श्रद्धावाननसूयश्च৷৷. पुण्यकर्मणाम् – गीता की बातों को जैसा सुन ले उसको प्रत्यक्ष से भी बढ़कर पूज्यभाव सहित वैसा का वैसा मानने वाले का नाम श्रद्धावान है और उन बातों में कहीं भी , किसी भी विषय में किञ्चिन्मात्र भी कमी न देखने वाले का नाम ‘अनसूयः’ है। ऐसा श्रद्धावान और दोषदृष्टि से रहित मनुष्य गीता को केवल सुन भी ले तो वह भी सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर पुण्यकारियों के शुभ लोकों को प्राप्त कर लेता है। यहाँ दो बार ‘अपि’ पद देने का तात्पर्य है कि जो गीता का प्रचार करता है , अध्ययन करता है उसके लिये तो कहना ही क्या है पर जो सुन भी लेता है वह मनुष्य भी पापों से छूटकर शुभ लोकों को प्राप्त हो जाता है। मनुष्य की वाणी में प्रायः भ्रम , प्रमाद , लिप्सा और कारणापाटव – ये चार दोष होते हैं (टिप्पणी प0 992.2)। अतः मनुष्य की वाणी सर्वथा निर्दोष नहीं हो सकती परन्तु भगवान की दिव्य वाणी में इन चारों में से कोई भी दोष नहीं रह सकता क्योंकि भगवान निर्दोषता की परावधि हैं अर्थात् भगवान से बढ़कर निर्दोषता किसी में कभी होती ही नहीं। इसलिये भगवान के वचनों में किसी प्रकार के संशय की सम्भावना ही नहीं है। अतः गीता सुनने वाले को कोई विषय समझ में कम आये , विचार द्वारा कोई बात न जँचे तो समझना चाहिये कि इस विषय को समझने में मेरी बुद्धि की कमी है , मैं समझ नहीं पा रहा हूँ – इस भाव को दृढ़ता से धारण करने पर असूयादोष मिट जाता है। भगवान में अत्यधिक श्रद्धाविश्वासपूर्वक भक्ति होने पर भी असूयादोष नहीं रहता। चैतन्य महाप्रभु का एक भक्त था। वह रोज गीता का पाठ करते हुए मस्त हो जाता था , गद्गद हो जाता था और रोने लगता था। वह शुद्ध पाठ नहीं करता था। उसके पाठ में अशुद्धियाँ आती थीं। उसके विषय में किसी ने चैतन्य महाप्रभु से शिकायत कर दी कि देखिये प्रभु ! वह बड़ा पाखण्ड करता है , पाठ तो शुद्ध करता नहीं और रोता रहता है। चैतन्य महाप्रभु ने उसको अपने पास बुलाकर पूछा – तुम गीता का पाठ करते हो तो क्या उसका अर्थ जानते हो ? उसने कहा – नहीं प्रभु! फिर पूछा – तो फिर तुम रोते क्यों हो ? उसने कहा – मैं जब अर्जुन उवाच पढ़ता हूँ तो अर्जुन भगवान से पूछ रहे हैं – ऐसा मेरे को प्रत्यक्ष दिखता है और जब मैं श्रीभगवानुवाच पढ़ता हूँ तो भगवान अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं – ऐसा मेरे को प्रत्यक्ष दिखता है। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का आपस में संवाद हो रहा है – ऐसा प्रत्यक्ष दिखता है परन्तु अर्जुन क्या पूछते हैं ? और भगवान क्या उत्तर देते हैं? यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो उन दोनों के दर्शन कर-कर के राजी अर्थात प्रसन्न होता हूँ। उसकी ऐसी श्रद्धा-भक्ति देखकर चैतन्य महाप्रभु बहुत प्रसन्न हुए। इस प्रकार की श्रद्धा-भक्ति वाला मनुष्य गीता को केवल सुन भी ले तो उसकी मुक्ति में कोई सन्देह नहीं रहता। वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर पुण्यकारियों के शुभ लोकों को प्राप्त हो जाता है। यहाँ ‘पुण्यकर्मणाम्’ पद से सकामभावपूर्वक यज्ञ , अनुष्ठान आदि पुण्यकर्म करने वालों को नहीं लेना चाहिये क्योंकि भगवान ने उनको ऊँचा नहीं माना है प्रत्युत उनके बारे में कहा है कि वे बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं (गीता 9। 21)। यहाँ उन पुण्यकर्मा भक्तों को लेना चाहिये जिनको भगवान का प्रेमदर्शन आदि की प्राप्ति होती है। ऐसे पुण्यकर्मा भक्तों को अपने-अपने इष्ट के अनुसार वैकुण्ठ , साकेत , गोलोक , कैलास आदि जिन दिव्य लोकों की प्राप्ति होती है , असूयादोषरहित श्रद्धावान पुरुष को गीता सुनने मात्र से उन लोकों की प्राप्ति हो जाती है। पूर्वश्लोक में गीता सुनने का माहात्म्य बताकर अब अर्जुन की क्या स्थिति है? क्या दशा है? आदि सब कुछ जानते हुए भी भगवान भगवद्गीता श्रवण के माहात्म्य को सबके सामने प्रकट करने के उद्देश्य से आगे के श्लोक में अर्जुन से प्रश्न करते हैं।