The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

श्री गीताजी का माहात्म्य

 

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।18.72।।

 

कच्चित्-क्या; एतत्-यह; श्रुतम्-सुना गया; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; त्वया-तुम्हारे द्वारा; एक-अग्रेण चेतसा-एकाग्र मन से; कच्चित्-क्या; अज्ञान-अज्ञान का; सम्मोहः-मोह; प्रणष्ट:-नष्ट हो गया; ते-तुम्हारा; धनञ्जय -धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन।

 

हे पार्थ! क्या तुमने एकाग्रचित्त होकर मुझे सुना? हे धनंजय! क्या तुम्हारा अज्ञान और मोह नष्ट हुआ? अर्थात क्या तुम्हारे द्वारा मेरा यह उपदेश एकाग्रचित्त हो कर सुना गया ? क्या तुम्हारा अज्ञान जनित सम्पूर्ण मोह पूर्णतया नष्ट हुआ ? ।।18.72।।

 

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा – एतत् शब्द अत्यन्त समीप का वाचक होता है और यहाँ अत्यन्त समीप 71वाँ श्लोक है। 69वें-70वें श्लोकों में जो गीता का प्रचार और अध्ययन करने वाले की महिमा कही है उस प्रचार और अध्ययन का तो अर्जुन के सामने कोई प्रश्न ही नहीं था। इसलिये पीछे के (71वें) श्लोक का लक्ष्य करके भगवान अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य श्रद्धापूर्वक और दोषदृष्टिरहित होकर गीता सुने – यह बात तुमने ध्यानपूर्वक सुनी कि नहीं अर्थात् तुमने श्रद्धापूर्वक और दोषदृष्टिरहित होकर गीता सुनी कि नहीं ? ‘एकाग्रेण चेतसा’ कहने का तात्पर्य है कि गीता में भी जिस अत्यन्त गोपनीय रहस्य को अभी पहले 64वें श्लोक में कहने की प्रतिज्ञा की 67वें श्लोक में ‘इदं ते नातपस्काय’ कहकर निषेध किया और मेरे वचनों में जिसको मैंने परम वचन कहा उस सर्वगुह्यतम शरणागति की बात (18। 66) को तुमने ध्यानपूर्वक सुना कि नहीं उस पर खयाल किया कि नहीं ? कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय – भगवान दूसरा प्रश्न करते हैं कि तुम्हारा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ कि नहीं अगर मोह नष्ट हो गया तो तुमने मेरा उपदेश सुन लिया और अगर मोह नष्ट नहीं हुआ तो तुमने मेरा यह रहस्यमय उपदेश एकाग्रता से सुना ही नहीं क्योंकि यह एकदम पक्का नियम है कि जो दोषदृष्टि से रहित होकर श्रद्धापूर्वक गीता के उपदेश को सुनता है उसका मोह नष्ट हो ही जाता है। पार्थ सम्बोधन देकर भगवान अपनेपन से , बहुत प्यार से पूछ रहे हैं कि तुम्हारा मोह नष्ट हुआ कि नहीं ? पहले अध्याय के 25वें श्लोक में भी भगवान ने अर्जुन को सुनने के उन्मुख करने के लिये पार्थ सम्बोधन देकर सबसे प्रथम बोलना आरम्भ किया और कहा कि हे पार्थ ! युद्ध के लिये इक्कठे हुए इन कुटुम्बियों को देखो। ऐसा कहने का तात्पर्य यह था कि अर्जुन के अन्तःकरण में छिपा हुआ जो कौटुम्बिक मोह है वह जाग्रत हो जाय और उस मोह से छूटने के लिये उनको चटपटी लग जाय जिससे वे केवल मेरे सम्मुख होकर सुनने के लिये तत्पर हो जाएं। अब यहाँ उसी मोह के दूर होने की बात का उपसंहार करते हुए भगवान पार्थ सम्बोधन देते हैं। धनञ्जय सम्बोधन देकर भगवान कहते हैं कि तुम लौकिक धन को लेकर धनञ्जय (राजाओं के धन को जीतने वाले) बने हो। अब इस वास्तविक तत्त्वरूप धन को प्राप्त करके अपने मोह का नाश कर लो और सच्चे अर्थों में धनञ्जय बन जाओ। पूर्वश्लोक में भगवान ने जो प्रश्न किया था उसका उत्तर अर्जुन आगे के श्लोक में देते हैं।

 

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