The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

श्री गीताजी का माहात्म्य

 

अर्जुन उवाच

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।

 

अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; नष्ट:-दूर हुआ; मोह:-मोह; स्मृति:-स्मरण शक्ति; लब्धा-पुनः प्राप्त हुई; त्वत्-प्रसादात्-आपकी कृपा से; मया मेरे द्वारा; अच्युत-अच्युत, श्रीकृष्ण; स्थितः-स्थित; अस्मि-हूँ; गतसन्देहः-सारे संशयों से मुक्त; करिष्ये – मैं करूँगा; वचनम्-आदेश को; तव-आपके।

 

अर्जुन ने कहाः हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है। अब मैं ज्ञान में स्थित हूँ अर्थात मुझे मेरी स्मरण शक्ति पुनः प्राप्त हो गयी है। मैं समस्त संशयों और संदेहों से मुक्त हूँ और मैं आपकी आज्ञाओं के अनुसार कर्म करूंगा और आपके वचनो का पालन करूंगा ।।18.73।।

 

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत – अर्जुन ने यहाँ भगवान के लिये अच्युत सम्बोधन का प्रयोग किया है। इसका तात्पर्य है कि जीव तो च्युत हो जाता है अर्थात् अपने स्वरूप से विमुख हो जाता है तथा पतन की तरफ चला जाता है परन्तु भगवान कभी भी च्युत नहीं होते। वे सदा एकरस रहते हैं। इसी बात का द्योतन करने के लिये गीता में अर्जुन ने कुल तीन बार अच्युत सम्बोधन दिया है। पहली बार (गीता 1। 21 में) अच्युत सम्बोधन से अर्जुन ने भगवान से कहा कि दोनों सेनाओं के बीच में मेरा रथ खड़ा करो। ऐसी आज्ञा देने पर भी भगवान में कोई फरक नहीं पड़ा। दूसरी बार (11। 42 में) इस सम्बोधन से अर्जुन ने भगवान के विश्वरूप की स्तुति-प्रार्थना की तो भगवान में कोई फरक नहीं पड़ा। अन्तिम बार यहाँ (18। 73 में) इस सम्बोधन से अर्जुन संदेहरहित होकर कहते हैं कि अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा तो भगवान में कोई फरक नहीं पड़ा। तात्पर्य यह हुआ कि अर्जुन की तो आदि , मध्य और अन्त में तीन प्रकार की अवस्थाएँ हुईं पर भगवान की आदि , मध्य और अन्त में एक ही अवस्था रही अर्थात् वे एकरस ही बने रहे। दूसरे अध्याय में अर्जुन ने शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् (2। 7) कहकर भगवान की शरणागति स्वीकार की थी। इस श्लोक में उस शरणागति की पूर्णता होती है। दसवें अध्याय के अन्त में भगवान ने अर्जुन से यह कहा कि तेरे को बहुत जानने की क्या जरूरत है? मैं सम्पूर्ण संसार को एक अंश में व्याप्त करके स्थित हूँ। इस बात को सुनते ही अर्जुन के मन में एक विशेष भाव पैदा हुआ कि भगवान कितने विलक्षण हैं । भगवान की विलक्षणता की ओर लक्ष्य जाने से अर्जुन को एक प्रकाश मिला। उस प्रकाश की प्रसन्नता में अर्जुन  के मुखसे यह बात निकल पड़ी कि मेरा मोह चला गया – मोहोऽयं विगतो मम (11। 1)। परन्तु भगवान के विराट रूप को देखकर जब अर्जुन के हृदय में भय के कारण हलचल पैदा हो गयी तब भगवान ने कहा कि यह तुम्हारा मूढ़भाव है। तुम व्यथित और मोहित मत होओ – मा ते व्यथा मा च विमूढभावः (11। 49)। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन का मोह तब नष्ट नहीं हुआ था। अब यहाँ सर्वज्ञ भगवान के पूछने पर अर्जुन कह रहे हैं कि मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे तत्त्व की अनादि स्मृति प्राप्त हो गयी – नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा (टिप्पणी प0 995.1)। अन्तःकरण की स्मृति और तत्त्व की स्मृति में बड़ा अन्तर है। प्रमाण से प्रमेय का ज्ञान होता है (टिप्पणी प0 995.2) परन्तु परमात्मतत्त्व अप्रमेय है। अतः परमात्मा प्रमाण से व्याप्य नहीं हो सकता अर्थात् परमात्मा प्रमाण के अन्तर्गत आने वाला तत्त्व नहीं है परन्तु संसार सब का सब प्रमाण के अन्तर्गत आने वाला है और प्रमाण प्रमाता के अन्तर्गत आने  वाला है (टिप्पणी प0 995.3)।प्रमाता एक होता है और प्रमाण अनेक होते हैं। प्रमाणों के बारे में कई प्रत्यक्ष , अनुमान , आगम – ये तीन मुख्य प्रमाण मानते हैं । कई प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान और शब्द – ये चार प्रमाण मानते हैं और कई इन चारों के सिवाय अर्थापत्ति , अनुपलब्धि और ऐतिह्य – ये तीन प्रमाण और भी मानते हैं। इस प्रकार प्रमाणों के मानने में अनेक मतभेद हैं परन्तु प्रमाता के विषय में किसी का कोई मतभेद नहीं है। ये प्रत्यक्ष , अनुमान आदि प्रमाण वृत्तिरूप होते हैं परन्तु प्रमाता वृत्तिरूप नहीं होता । वह तो स्वयं अनुभवरूप होता है। अब इस स्मृति शब्द की जहाँ व्याख्या की गयी है वहाँ उसके ये लक्षण बताये हैं – (1) अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः। (योगदर्शन 1। 11) अनुभूत विषय का न छिपाना अर्थात् प्रकट हो जाना स्मृति है। (2) संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः। (तर्कसंग्रह) संस्कारमात्र से जन्य हो और ज्ञान हो उसको स्मृति कहते हैं। यह स्मृति अन्तःकरण की एकवृति है। यह वृत्ति प्रमाण , विपर्यय , विकल्प , निद्रा और स्मृति – पाँच प्रकार की होती है तथा हर प्रकार  की वृत्तिके दो भेद होते हैं – क्लिष्ट और अक्लिष्ट। संसार की वृत्तिरूप स्मृति क्लिष्ट होती है अर्थात् बाँधने वाली होती है और भगवत्सम्बन्धी वृत्तिरूप स्मृति अक्लिष्ट होती है अर्थात् क्लेश को दूर करने वाली होती है। इन सब वृत्तियों का कारण अविद्या है परन्तु परमात्मा अविद्या से रहित है। इसलिये परमात्मा की स्मृति स्वयं से ही होती है – वृत्ति या करण से नहीं। जब परमात्मा की स्मृति जाग्रत् होती है तो फिर उसकी कभी विस्मृति नहीं होती जबकि अन्तःकरण की वृत्ति में स्मृति और विस्मृति – दोनों होती हैं।  परमात्मतत्त्वकी विस्मृति या भूल तो असत् संसार को सत्ता और महत्ता देने से ही हुई है। यह विस्मृति अनादिकाल से है। अनादिकाल से होने पर भी इसका अन्त हो जाता है। जब इसका अन्त हो जाता है और अपने स्वरूप की स्मृति जाग्रत् होती है तब इसको स्मृतिर्लब्धा कहते हैं अर्थात् असत के सम्बन्ध के कारण जो स्मृति सुषुप्तिरूप से थी वह जाग्रत् हो गयी। जैसे एक आदमी सोया हुआ है और एक मुर्दा पड़ा हुआ है – इन दोनों में महान अन्तर है । ऐसे ही अन्तःकरण की स्मृति-विस्मृति दोनों ही मुर्दे की तरह जड हैं पर स्वरूप की स्मृति सुप्त है , जड नहीं। केवल जड का आदर करने से सोये हुए की तरह ऊपर से वह स्मृति लुप्त रहती है अर्थात् आवृत रहती है। उस आवरण के न रहने पर उस स्मृति का प्राकट्य हो जाता है तो उसे स्मृतिर्लब्धा कहते हैं अर्थात् पहले से जो तत्त्व मौजूद है उसका प्रकट होना स्मृति है और आवरण हटने का नाम लब्धा है। साधकों की रुचि के अनुसार उसी स्मृति के तीन भेद हो जाते हैं – (1) कर्मयोग अर्थात् निष्कामभाव की स्मृति (2) ज्ञानयोग अर्थात् अपने स्वरूप की स्मृति और (3) भक्तियोग अर्थात् भगवान के सम्बन्ध की स्मृति। इस प्रकार इन तीनों योगों की स्मृति जाग्रत् हो जाती है क्योंकि ये तीनों योग स्वतःसिद्ध और नित्य हैं। ये तीनों योग जब वृत्ति के विषय होते हैं तब ये साधन कहलाते हैं परन्तु स्वरूप से ये तीनों नित्य हैं। इसलिये नित्य की प्राप्ति को स्मृति कहते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि इन साधनों की विस्मृति हुई है , अभाव नहीं हुआ है। असत् संसार के पदार्थों को आदर देने से अर्थात् उनको सत्ता और महत्ता देने से राग पैदा हुआ – यह कर्मयोग की विस्मृति (आवरण) है। असत् पदार्थों के सम्बन्ध से अपने स्वरूप की विमुखता हुई अर्थात् अज्ञान हुआ – यह ज्ञानयोग की विस्मृति है। अपना स्वरूप साक्षात् परमात्मा का अंश है। इस परमात्मा से विमुख होकर संसार के सम्मुख होने से संसार में आसक्ति हो गयी। उस आसक्ति से प्रेम ढक गया – यहभक्तियोग की विस्मृति है। स्वरूप की विस्मृति अर्थात् विमुखता का नाश होना यहाँ स्मृति है। उस स्मृति का प्राप्त होना अप्राप्त का प्राप्त होना नहीं है प्रत्युत नित्यप्राप्त का प्राप्त होना है। नित्य स्वरूप की प्राप्ति होने पर फिर उसकी विस्मृति होना सम्भव नहीं है क्योंकि स्वरूप में कभी परिवर्तन हुआ नहीं। वह सदा निर्विकार और एकरस रहता है परन्तु वृत्तिरूप स्मृति की विस्मृति हो सकती है क्योंकि वह प्रकृति का कार्य होने से परिवर्तनशील है। इन सबका तात्पर्य यह हुआ कि संसार तथा शरीर के साथ अपने स्वरूप को मिला हुआ समझना विस्मृति है और संसार तथा शरीर से अलग होकर अपने स्वरूप का अनुभव करना स्मृति है। अपने स्वरूप की स्मृति स्वयं से होती है। इसमें करण आदि की अपेक्षा नहीं होती जैसे – मनुष्य को अपने होनेपन का जो ज्ञान होता है उसमें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जिसमें करण आदि की अपेक्षा होती है वह स्मृति अन्तःकरण की एक वृत्ति ही है। स्मृति तत्काल प्राप्त होती है। इसकी प्राप्ति में देरी अथवा परिश्रम नहीं है। कर्ण कुन्ती के पुत्र थे परन्तु जन्म के बाद जब कुन्ती ने उनका त्याग कर दिया तब अधिरथ नामक सूत की पत्नी राधा ने उनका पालन-पोषण किया। इससे वे राधा को ही अपनी माँ मानने लगे। जब सूर्यदेव से उनको यह पता लगा कि वास्तव में मेरी माँ कुन्ती है तब उनको स्मृति प्राप्त हो गयी। अब मैं कुन्ती का पुत्र हूँ – ऐसी स्मृति प्राप्त होने में कितना समय लगा ? कितना परिश्रम या अभ्यास करना पड़ा ? कितना जोर आया ? पहले उधर लक्ष्य नहीं था , अब उधर लक्ष्य हो गया – केवल इतनी ही बात है। स्वरूप निष्काम है , शुद्धबुद्धमुक्त है और भगवान का है। स्वरूप की विस्मृति अर्थात् विमुखता से ही जीव सकाम , बद्ध और सांसारिक होता है। ऐसे स्वरूप की स्मृति वृत्ति की अपेक्षा नहीं रखती अर्थात् अन्तःकरण की वृत्ति से स्वरूप की स्मृति जाग्रत् होना सम्भव नहीं है। स्मृति तभी जाग्रत् होगी जब अन्तःकरण से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होगा। स्मृति अपने ही द्वारा अपने आप में जाग्रत् होती है। अतः स्मृति की प्राप्ति के लिये किसी के सहयोग की या अभ्यास की जरूरत नहीं है। कारण कि जडता की सहायता के बिना अभ्यास नहीं होता जबकि स्वरूप के साथ जडता का लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है। स्मृति अनुभवसिद्ध है , अभ्याससाध्य नहीं है। इसलिये एक बार स्मृति जाग्रत् होने पर फिर उसकी पुनरावृत्ति नहीं करनी पड़ती।स्मृति भगवान की कृपा से जाग्रत् होती है। कृपा होती है भगवान के सम्मुख होने पर और भगवान की सम्मुखता होती है संसारमात्र से विमुख होने पर। जैसे अर्जुन ने कहा कि मैं केवल आपकी आज्ञा का ही पालन करूँगा – करिष्ये वचनं तव। ऐसे ही संसार का आश्रय छोड़कर केवल भगवान के शरण होकर कह दे कि हे नाथ ! अब मैं केवल आपकी आज्ञा का ही पालन करूँगा। तात्पर्य है कि इस स्मृति की लब्धि में साधक की सम्मुखता और भगवान की कृपा ही कारण है। इसलिये अर्जुन ने स्मृति के प्राप्त होने में केवल भगवान की कृपा को ही माना है। भगवान की कृपा तो मात्र प्राणियों पर अपार-अटूट-अखण्ड रूप से है। जब मनुष्य भगवान के सम्मुख हो जाता है तब उसको उस कृपा का अनुभव हो जाता है। ‘त्वत्प्रसादात् मयाच्युत’ पदों से अर्जुन कह रहे हैं कि आपने विशेषता से जो सर्वगुह्यतम तत्त्व बताया उसकी मुझे विशेषता से स्मृति आ गयी कि मैं आपका ही था , आपका ही हूँ और आपका ही रहूँगा। यह जो स्मृति आ गयी है यह मेरी एकाग्रता से सुनने की प्रवृत्ति से नहीं आयी है अर्थात् यह मेरे एकाग्रता से सुनने का फल नहीं है प्रत्युत यह स्मृति तो आपकी कृपा से ही आयी है। पहले मैंने शरण होकर शिक्षा देने की प्रार्थना की थी और फिर यह कहा था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा परन्तु मेरे को जब तक वास्तविकता का बोध नहीं हुआ तब तक आप मेरे पीछे पड़े ही रहे। इसमें तो आपकी कृपा ही कारण है। मेरे को जैसा सम्मुख होना चाहिये वैसा मैं सम्मुख नहीं हुआ हूँ परन्तु आपने बिना कारण मेरे पर कृपा की अर्थात् मेरे पर कृपा करने के लिये आप अपनी कृपा के परवश हो गये , वशीभूत हो गये और बिना पूछे ही आपने शरणागति की सर्वगुह्यतम बात कह दी (18। 64 — 66)। उसी अहैतु की कृपा से मेरा मोह नष्ट हुआ है। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव – अर्जुन कहते हैं कि मूल में मेरा जो यह सन्देह था कि युद्ध करूँ या न करूँ (न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः 2। 6) वह मेरा सन्देह सर्वथा नष्ट हो गया है और मैं अपनी वास्तविकता में स्थित हो गया हूँ। वह संदेह ऐसा नष्ट हो गया है कि न तो युद्ध करने की मन में रही और न युद्ध न करने की ही मन में रही। अब तो यही एक मन में रही है कि आप जैसा कहें वैसा मैं करूँ अर्थात् अब तो बस आपकी आज्ञा का ही पालन करूँगा – करिष्ये वचनं तव। अब मेरे को युद्ध करने अथवा न करने से किसी तरह का किञ्चिन्मात्र भी प्रयोजन नहीं है। अब तो आपकी आज्ञा के अनुसार लोकसंग्रहार्थ युद्ध आदि जो कर्तव्यकर्म होगा वह करूँगा। अब एक ध्यान देने की बात है कि पहले कुटुम्ब का स्मरण होने से अर्जुन को मोह हुआ था। उस मोह के वर्णन में भगवान ने यह प्रक्रिया बतायी थी कि विषयों के चिन्तन से आसक्ति , आसक्ति से कामना , कामना से क्रोध , क्रोध से मोह , मोह से स्मृतिभ्रंश , स्मृतिभ्रंश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से पतन होता है (गीता 2। 6263)। अर्जुन भी यहाँ उसी प्रक्रिया को याद दिलाते हुए कहते हैं कि मेरा मोह नष्ट हो गया है और मोह से जो स्मृति भ्रष्ट होती है वह स्मृति मिल गयी है – नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा। स्मृति नष्ट होने से बुद्धिनाश हो जाता है। इसके उत्तर में अर्जुन कहते हैं कि मेरा सन्देह चला गया है – गतसन्देहः। बुद्धिनाश से पतन होता है। उसके उत्तर में कहते हैं कि मैं अपनी स्वाभाविक स्थिति में स्थित हूँ – स्थितोऽस्मि। इस प्रकार उस प्रक्रिया को बताने में अर्जुन का तात्पर्य है कि मैंने आपके मुख से ध्यानपूर्वक गीता सुनी है तभी तो आपने सम्मोह का कहाँ प्रयोग किया है ? और सम्मोह की परम्परा कहाँ कही है? वह भी मेरे को याद है। परन्तु मेरे मोह का नाश होने में तो आपकी कृपा ही कारण है। यद्यपि वहाँ का और यहाँ का – दोनों का विषय भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है क्योंकि वहाँ विषयों के चिन्तन करने आदि क्रम से सम्मोह होने की बात है और यहाँ सम्मोह मूल अज्ञान का वाचक है फिर भी गहरा विचार किया जाय तो भिन्नता नहीं दिखेगी। वहाँ का विषय ही यहाँ आया है। दूसरे अध्याय के 61वें से 63वें श्लोक तक भगवान ने यह बात बतायी कि इन्द्रियों को वश में करके अर्थात् संसार से सर्वथा विमुख होकर केवल मेरे परायण होने से बुद्धि स्थिर हो जाती है परन्तु मेरे परायण न होने से मन में स्वाभाविक ही विषयों का चिन्तन होता है। विषयों का चिन्तन होने से पतन ही होता है क्योंकि यह आसुरीसम्पत्ति है परन्तु यहाँ उत्थान की बात बतायी है कि संसार से विमुख होकर भगवान के सम्मुख होने से मोह नष्ट हो जाता है क्योंकि यह दैवीसम्पत्ति है। तात्पर्य यह हुआ कि वहाँ भगवान से विमुख होकर इन्द्रियों और विषयों के परायण होना पतन में कारण है और यहाँ भगवान के सम्मुख होने पर भगवान के साथ वास्तविक सम्बन्ध की स्मृति आने में भगवत्कृपा ही कारण है। भगवत्कृपा से जो काम होता है वह श्रवण , मनन , निदिध्यासन , ध्यान , समाधि आदि साधनों से नहीं होता। कारण कि अपना पुरुषार्थ मानकर जो भी साधनों से नहीं होता। कारण कि अपना पुरुषार्थ मानकर जो भी साधन किया जाता है उस साधन में अपना सूक्ष्म व्यक्तित्व अर्थात् अहंभाव रहता है। वह व्यक्तित्व साधन  में अपना पुरुषार्थ न मानकर केवल भगवत्कृपा माननेसे ही मिटता है। मार्मिक बात – अर्जुन ने कहा कि मुझे स्मृति मिल गयी – स्मृतिर्लब्धा। तो विस्मृति किसी कारण से हुई । जीव ने असत् के साथ तादात्म्य मानकर असत की मुख्यता मान ली। इसी से अपने सत्स्वरूप की विस्मृति हो गयी। विस्मृति होने से इसने असत् की कमी को अपनी कमी मान ली ,  अपनेको शरीर मानने (मैंपन) तथा शरीर को अपना मानने (मेरापन) के कारण इसने असत् शरीर की उत्पत्ति और विनाश को अपनी उत्पत्ति और विनाश मान लिया एवं जिससे शरीर पैदा हुआ उसी को अपना उत्पादक मान लिया। अब कोई प्रश्न करे कि भूल पहले हुई कि असत् का सम्बन्ध पहले हुआ? अर्थात् भूल से असत का सम्बन्ध हुआ कि असत् के सम्बन्ध से भूल हुई ? तो इसका उत्तर है कि अनादिकाल से जन्म-मरण के चक्कर में पड़े हुए जीव को जन्म-मरण  से छुड़ाकर सदाके लिये महान सुखी करने के लिये अर्थात् केवल अपनी प्राप्ति कराने के लिये भगवान ने जीव को मनुष्यशरीर दिया। भगवान का अकेले में मन नहीं लगा – एकाकी न रमते (बृहदारण्यक 1। 4। 3) इसलिये उन्होंने अपने साथ खेलने के लिये मनुष्यशरीर की रचना की। खेल तभी होता है जब दोनों तरफ के खिलाड़ी स्वतन्त्र होते हैं। अतः भगवान ने मनुष्यशरीर देने के साथ-साथ इसे स्वतन्त्रता भी दी और विवेक (सत्असत का ज्ञान) भी दिया। दूसरी बात- अगर इसे स्वतन्त्रता और विवेक न मिलाता तो यह पशु की तरह ही होता। इसमें मनुष्यता की किञ्चिन्मात्र भी कोई विशेषता नहीं होती। इस विवेक के कारण असत् को असत् जानकर भी मनुष्य ने मिली हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग किया और असत् में (संसार के भोग और संग्रह के सुख में) आसक्त हो गया। असत् में आसक्त होने से ही भूल हुई है। असत् को असत् जानकर भी यह उसमें आसक्त क्यों होता है ? कारण कि असत् के सम्बन्ध से प्रतीत होने वाले तात्कालिक सुख की तरफ तो यह दृष्टि रखता है पर उसका परिणाम क्या होगा? उस तरफ अपनी दृष्टि रखता ही नहीं। (जो परिणाम की तरफ दृष्टि रखते हैं वे संसारी होते हैं।) इसलिये असत् के सम्बन्ध से ही भूल पैदा हुई है। इसका पता कैसे लगता है ? जब यह अपने अनुभव में आने वाले असत् की आसक्ति का त्याग करके परमात्मा के सम्मुख हो जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि परमात्मा से विमुख होकर जाने हुए असत् में आसक्ति होने से ही यह भूल हुई है। असत् को महत्त्व देने से होने वाली भूल स्वाभाविक नहीं है। इसको मनुष्य ने खुद पैदा किया है। जो चीज स्वाभाविक होती है उसमें परिवर्तन भले ही हो पर उसका अत्यन्त अभाव नहीं होता परन्तु भूल का अत्यन्त अभाव होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस भूल को मनुष्य ने खुद उत्पन्न किया है क्योंकि जो वस्तु मिटने वाली होती है वह उत्पन्न होने वाली ही होती है। इसलिये इस भूल को मिटाने का दायित्व भी मनुष्य पर ही है जिसको वह सुगमतापूर्वक मिटा सकता है। तात्पर्य है कि अपने ही द्वारा उत्पन्न की हुई इस भूल को मिटाने में मनुष्यमात्र समर्थ और सबल है। भूल को मिटाने की सामर्थ्य भगवान ने पूरी दे रखी है। भूल मिटते ही अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति अपने आप में ही जाग्रत् हो जाती है और मनुष्य सदा के लिये कृत-कृत्य , ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाता है। अब तक मनुष्य ने अनेक बार जन्म लिया है और अनेक बार कई वस्तुओं , व्यक्तियों , परिस्थितियों , अवस्थाओं , घटनाओं आदि का मनुष्य को संयोग हुआ है परन्तु उन सभी का उससे वियोग हो गया और वह स्वयं वही रहा। कारण कि वियोग का संयोग अवश्यम्भावी नहीं है पर संयोग का वियोग अवश्यम्भावी है। इससे सिद्ध हुआ कि संसार से वियोग ही वियोग है , संयोग है ही नहीं। अनादिकाल से वस्तुओं आदि का निरन्तर वियोग ही होता चला आ रहा है। इसलिये वियोग ही सच्चा है। इस प्रकार संसार से सर्वथा वियोग का अनुभव हो जाना ही योग है – तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् (गीता 6। 23)। यह योग नित्यसिद्ध है। स्वरूप अथवा परमात्मा के साथ हमारा नित्ययोग है (टिप्पणी प0 998) और शरीरसंसार के साथ नित्यवियोग है। संसार के संयोग की सद्भावना होने से ही वास्तव में नित्ययोग अनुभव में नहीं आता। सद्भावना मिटते ही नित्ययोग का अनुभव हो जाता है जिसका कभी वियोग हुआ ही नहीं। संसार से संयोग मानना ही विस्मृति है और संसार से नित्यवियोग का अनुभव होना अर्थात् वास्तव में संसार के साथ मेरा संयोग था नहीं , होगा नहीं और हो सकता भी नहीं – ऐसा अनुभव होना ही स्मृति है। पहले अध्याय के बीसवें श्लोक में ‘अर्थ’ पद से श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में गीता का आरम्भ हुआ था। अब आगे के श्लोक में ‘इति’ पद से उसकी समाप्ति करते हुए सञ्जय इस संवाद की महिमा गाते हैं।

 

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