The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद

 

 

Bhagavat Gita chapter 18- Moksha Sanyas Yogaबुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु।

प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।18.29।।

 

बुद्धेः-बुद्धि का; भेदम् – अन्तर; धृतेः – दृढ़ संकल्प, दृढ निश्चय , धैर्य , धारण शक्ति ; च – और; एव – निश्चय ही; गुणत: – गुणों के द्वारा; त्रिविधाम् – प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार; शृणु – सुनो; प्रोच्यमानम् – वर्णन; अशेषेण – विस्तार से; पृथक्त्वेन – भिन्न प्रकार से; धनञ्जय – धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन।

 

हे धनञ्जय ! अब मैं प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि और दृढ संकल्प के विषय में विस्तार से बता रहा हूँ। अर्थात अब तू गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति के भी तीन प्रकार के भेद अलग-अलग रूप से सुन, जो कि मेरे द्वारा पूर्ण रूप से कहे जा रहे हैं। तुम उसे सुनो ।।18.29।।

 

[इसी अध्याय के 18वें श्लोक में कर्मसंग्रह के तीन कारण बताये गये हैं – करण , कर्म और कर्ता। इनमें से कर्म करने के जो इन्द्रियाँ आदि करण हैं उनके सात्त्विक , राजस और तामस – ये तीन भेद नहीं होते। उन इन्द्रियों में बुद्धि की ही प्रधानता रहती है और सभी इन्द्रियाँ बुद्धि के अनुसार ही काम करती हैं। इसलिये यहाँ बुद्धि के भेद से करणों के भेद बता रहे हैं। बुद्धि के निश्चय को , विचार को दृढ़ता से ठीक तरह रखने वाली और अपने लक्ष्य से विचलित न होने देने वाली धारणशक्ति का नाम धृति है। धारणशक्ति अर्थात् धृति के बिना बुद्धि अपने निश्चय पर दृढ़ नहीं रह सकती। इसलिये बुद्धि के साथ ही साथ धृति के भी तीन भेद बताने आवश्यक हो गये (टिप्पणी प0 911.1)। मनुष्य जो कुछ भी करता है बुद्धिपूर्वक ही करता है अर्थात् ठीक सोच-समझ कर ही किसी कार्य में प्रवृत्त होता है। उस कार्य में प्रवृत्त होने पर भी उसको धैर्य की बड़ी भारी आवश्यकता होती है। उसकी बुद्धि में विचारशक्ति तेज है और उसे धारण करने वाली शक्ति – धृति श्रेष्ठ है तो उसकी बुद्धि अपने निश्चित किये हुए लक्ष्य से विचलित नहीं होती। जब बुद्धि अपने लक्ष्य पर दृढ़ रहती है तब मनुष्य का कार्य सिद्ध हो जाता है। अभी साधकों के लिये कर्मप्रेरक और कर्मसंग्रह का जो प्रकरण चला है उसमें ज्ञान , कर्म और कर्ता की ही खास आवश्यकता है। ऐसे ही साधक अपनी साधना में दृढ़तापूर्वक लगा रहे इसके लिये बुद्धि और धृति के भेद को जानने की विशेष आवश्यकता है क्योंकि उनके भेद को ठीक जान कर ही वह संसार से ऊँचा उठ सकता है। किस प्रकार की बुद्धि और धृति को धारण करके साधक संसार से ऊँचा उठ सकता है और किस प्रकार की बुद्धि और धृति के रहने से उसे ऊँचा उठने में बाधा लग सकती है – यह जानना साधक के लिये बहुत जरूरी है। इसलिये भगवान ने उन दोनों के भेद बताये हैं। भेद बताने में भगवान का भाव यह है कि सात्त्विकी बुद्धि और धृति से ही साधक ऊँचा उठ सकता है , राजसी-तामसी बुद्धि और धृति 22से नहीं।] धनञ्जय – जब पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया था? तब अर्जुन अनेक राजाओं को जीतकर बहुत सा धन लेकर आये थे। इसी से उनका नाम धनञ्जय पड़ा था। अब भगवान अर्जुन से कहते हैं कि अपनी साधना में सात्त्विकी बुद्धि और धृति को ग्रहण करके गुणातीत तत्त्व की प्राप्ति करना ही वास्तविक धन है इसलिये तुम इस वास्तविक धन को धारण करो इसी में तुम्हारे धनञ्जय नाम की सार्थकता है। बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु – भगवान कहते हैं कि बुद्धि भी एक है और धृति भी एक है परन्तु गुणों की प्रधानता से उस बुद्धि और धृति के भी सात्त्विक , राजस और तामस – ये तीन-तीन भेद हो जाते हैं। उनका मैं ठीक-ठीक विवेचन करूँगा और थोड़े में बहुत विशेष बात कहूँगा । उनको तुम मन लगाकर , ध्यान देकर ठीक तरह से सुनो। धृति श्रोत्रादि करणों में नहीं आयी है। इसलिये भगवान ‘चैव’ पद का प्रयोग करके कह रहे हैं कि जैसे बुद्धि के तीन भेद बताऊँगा ऐसे ही धृति के भी तीन भेद बताऊँगा। साधारण दृष्टि से देखने पर तो धृति भी बुद्धि का ही एक गुण दिखती है। बुद्धि का एक गुण होते हुए भी धृति बुद्धि से अलग और विलक्षण है क्योंकि धृति स्वयं अर्थात् कर्ता में रहती है। उस धृति के कारण ही मनुष्य बुद्धि का ठीक-ठीक उपयोग कर सकता है। धृति जितनी श्रेष्ठ अर्थात् सात्त्विकी होगी साधक की (साधन में) बुद्धि उतनी ही स्थिर रहेगी। साधन में बुद्धि की स्थिरता की जितनी आवश्यकता है उतनी आवश्यकता मन की स्थिरता की नहीं है। हाँ , एक अंश में अणिमा आदि सिद्धियों की प्राप्ति में मन की स्थिरता की आवश्यकता है परन्तु पारमार्थिक उन्नति में तो बुद्धि के अपने उद्देश्य पर स्थिर रहने की ही ज्यादा आवश्यकता है (टिप्पणी प0 911.2)। साधक की बुद्धि भी सात्त्विकी हो और धृति भी सात्त्विकी हो? तभी साधक अपने साधन में दृढ़तासे लगा रहेगा। इसलिये इन दोनों के ही भेद जानने की आवश्यकता है। पृथक्त्वेन – उनके भेद अलग-अलग ठीक तरह से कहूँगा अर्थात् बुद्धि और धृति के विषय में भी क्या-क्या भेद होते हैं? उनको भी कहूँगा। प्रोच्यमानमशेषेण – भगवान कहते हैं कि बुद्धि और धृति के विषय में जानने की जो-जो आवश्यक बाते हैं उन सबको मैं पूरा-पूरा कहूँगा जिसके बाद फिर जानना बाकी नहीं रहेगा। अब भगवान सात्त्विकी बुद्धि के लक्षण बताते हैं।

 

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