The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

त्याग का विषय

 

 

Moksha Sanyas Yog-Chapter 18 Bhagawad Gitaन हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।

यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।18.11।।

 

न-नहीं; हि-वास्तव में; देहभृता-देहधारी जीवों के लिए; शक्यम्-सम्भव है; त्यक्तुम्-त्यागना; कर्माणि-कर्म; अशेषतः-पूर्णतया; यः-जो; तु-लेकिन; कर्मफल-कर्मो के फल; त्यागी – कर्मफलों को भोगने की इच्छा का त्याग करने वाला; सः – वे; त्यागी – कर्म फलो का भोगने की इच्छा का त्याग करने वाला; इति-इस प्रकार; अभिधीयते-कहलाता है।

 

देहधारी जीवों के लिए वास्तव में पूर्ण रूप से कर्मों का परित्याग करना अथवा सम्पूर्ण कर्मों का त्याग करना असंभव है लेकिन जो कर्मफलों का और कर्मफलों को भोगने की इच्छा का परित्याग करते हैं, वे वास्तव में त्यागी कहलाते हैं।।18.11।।

 

न हि देहभृता (टिप्पणी प0 879.1) शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः – देहधारी अर्थात् देह के साथ तादात्म्य रखने वाले मनुष्यों के द्वारा कर्मों का सर्वथा त्याग होना सम्भव नहीं है क्योंकि शरीर प्रकृति का कार्य है और प्रकृति स्वतः क्रियाशील है। अतः शरीर के साथ तादात्म्य (एकता) रखने वाला क्रिया से रहित कैसे हो सकता है ? हाँ , यह हो सकता है कि मनुष्य यज्ञ , दान , तप , तीर्थ आदि कर्मों को छोड़ दे परन्तु वह खाना-पीना , चलना-फिरना , आना-जाना , उठना-बैठना , सोना-जागना आदि आवश्यक शारीरिक क्रियाओं को कैसे छोड़ सकता है ? दूसरी बात भीतर से कर्मों का सम्बन्ध छोड़ना ही वास्तव में छोड़ना है। बाहर से सम्बन्ध नहीं छोड़ा जा सकता। यदि बाहर से सम्बन्ध छोड़ भी दिया जाय तो वह कब तक छूटा रहेगा जैसे कोई समाधि लगा ले तो उस समय बाहरकी क्रियाओंका सम्बन्ध छूट जाता है। परन्तु समाधि भी एक क्रिया है? एक कर्म है क्योंकि इसमें प्रकृतिजन्य कारणशरीर का सम्बन्ध रहता है। इसलिये समाधि से भी व्युत्थान होता है। कोई भी देहधारी मनुष्य कर्मों का स्वरूप से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं कर सकता (गीता 3। 5)। कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता (योगनिष्ठा) प्राप्त नहीं होती और कर्मों का त्याग करने मात्र से सिद्धि (सांख्यनिष्ठा) भी प्राप्त नहीं होती (गीता 3। 4)।मार्मिक बात – पुरुष (चेतन) सदा निर्विकार और एकरस रहने वाला है परन्तु प्रकृति विकारी और सदा परिवर्तनशील है। जिसमें अच्छी रीति से क्रियाशीलता हो उसको प्रकृति कहते हैं – प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः। उस प्रकृति के कार्य शरीर के साथ जब तक पुरुष अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मानता रहेगा तब तक वह कर्मों का सर्वथा त्याग कर ही नहीं सकता। कारण कि शरीर में अहंता-ममता होने के कारण मनुष्य शरीर से होने वाली प्रत्येक क्रिया को अपनी क्रिया मानता है इसलिये वह कभी किसी अवस्था में भी क्रियारहित नहीं हो सकता। दूसरी बात – केवल पुरुष ने ही प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ा है। प्रकृति ने पुरुष के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। जहाँ विवेक रहता है वहाँ पुरुष ने विवेक की उपेक्षा करके प्रकृति से सम्बन्ध की सद्भावना कर ली अर्थात् सम्बन्ध को सत्य मान लिया। सम्बन्ध को सत्य मानने से ही बन्धन हुआ है। वह सम्बन्ध दो तरह का होता है – अपने को शरीर मानना और शरीर को अपना मानना। अपने को शरीर मानने से अहंता और शरीर को अपना मानने से ममता होती है। इस अहंताममतारूप सम्बन्ध का घनिष्ठ होना ही देहधारी का स्वरूप है। ऐसा देहधारी मनुष्य कर्मों को सर्वथा नहीं छोड़ सकता। यस्तु (टिप्पणी प0 879.2) कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते – जो किसी भी कर्म और फल के साथ अपना सम्बन्ध नहीं रखता वही त्यागी है। जब तक मनुष्य कुशल-अकुशल के साथ अच्छे-मन्दे के साथ अपना सम्बन्ध रखता है तब तक वह त्यागी नहीं है। यह पुरुष जिस प्राकृत क्रिया और पदार्थ को अपना मानता है उसमें उसकी प्रियता हो जाती है। उसी प्रियता का नाम है – आसक्ति। यह आसक्ति ही वर्तमान के कर्मों को लेकर कर्मासक्ति और भविष्य में मिलने वाले फल की इच्छा को लेकर फलासक्ति कहलाती है। जब मनुष्य फलत्याग का उद्देश्य बना लेता है तब उसके सब कर्म संसार के हित के लिये होने लगते हैं अपने लिये नहीं। कारण कि उसको यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जाती है कि कर्म करने की सब की सब सामग्री संसार से मिली है और संसार की ही है अपनी नहीं। इन कर्मों का भी आदि और अन्त होता है तथा उनका फल भी उत्पन्न और नष्ट होने वाला होता है परन्तु स्वयं सदा निर्विकार रहता है न उत्पन्न होता है न नष्ट होता है और न कभी विकृत ही होता है। ऐसा विवेक होने पर फलेच्छा का त्याग सुगमता से हो जाता है। फल का त्याग करने में उस विवेक की मनुष्य में कभी अभिमान भी नहीं आता क्योंकि कर्म और उसका फल – दोनों ही अपने से प्रतिक्षण वियुक्त हो रहे हैं । अतः उनके साथ हमारा सम्बन्ध वास्तव में है ही कहाँ ? इसीलिये भगवान कहते हैं कि जो कर्मफल का त्यागी है वही त्यागी कहा जाता है। निर्विकार का विकारी कर्मफल के साथ सम्बन्ध कभी था नहीं , है नहीं , हो सकता नहीं और होने की सम्भावना भी नहीं है। केवल अविवेक के कारण सम्बन्ध माना हुआ था। उस अविवेक के मिटने से मनुष्य की अभिधा अर्थात् उसका नाम त्यागी हो जाता है – स त्यागीत्यभिधीयते। माने हुए सम्बन्ध के विषय में दृष्टान्तरूप से एक बात कही जाती है। एक व्यक्ति घर-परिवार को छोड़कर सच्चे हृदय से साधु-संन्यासी हो जाता है तो उसके बाद घरवालों की कितनी ही उन्नति अथवा अवनति हो जाय अथवा सब के सब मर जाएं , उनका नामोनिशान भी न रहे तो भी उस पर कोई असर नहीं पड़ता। इसमें विचार करें कि उस व्यक्ति का परिवार के साथ जो सम्बन्ध था वह दोनों तरफ से माना हुआ था अर्थात् वह परिवार को अपना मानता था और परिवार उसको अपना मानता था परन्तु पुरुष और प्रकृति का सम्बन्ध केवल पुरुष की तरफ से माना हुआ है प्रकृति की तरफ से माना हुआ नहीं । जब दोनों तरफ से माना हुआ (व्यक्ति और परिवार का) सम्बन्ध भी एक तरफ से छोड़ने पर छूट जाता है तब केवल एक तरफ से माना हुआ (पुरुष और प्रकृति का) सम्बन्ध छोड़ने पर छूट जाय इसमें कहना ही क्या है ? पूर्वश्लोक में कहा गया कि कर्मफल का त्याग करने वाला ही वास्तव में त्यागी है। अगर मनुष्य कर्मफल का त्याग न करे तो क्या होता है ? इसे आगे के श्लोक में बताते हैं।

 

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