The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

श्री गीताजी का माहात्म्य

 

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।

 

यत्र -जहाँ; योगेश्वरः -योग के स्वामी श्रीकृष्ण; यत्र-जहाँ; पार्थः-पृथापुत्र, अर्जुन; धनुर्धरः-धनुर्धर; तत्र-वहाँ; श्री:-ऐश्वर्य; विजयः-विजय; भूति:-समृद्धि; ध्रुवा–अनन्त; नीतिः-नीति; मतिः-मम–मेरा मत।।

 

जहाँ योग के स्वामी श्रीकृष्ण और श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन हैं वहाँ निश्चित रूप से अनन्त ऐश्वर्य, विजय, समृद्धि और नीति होती है, ऐसा मेरा निश्चित मत है अर्थात जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है – ऐसा मेरा मत है।।18.78।।

 

यत्र योगेश्वरः कृष्णो पार्थो धनुर्धरः – सञ्जय कहते हैं कि राजन जहाँ अर्जुन का संरक्षण करने वाले , उनको सम्मति देने वाले , सम्पूर्ण योगों के महान ईश्वर , महान् बलशाली , महान ऐश्वर्यवान , महान विद्यावान , महान चतुर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ भगवान की आज्ञा का पालन करने वाले , भगवान के प्रिय सखा तथा भक्तगाण्डीवधनुर्धारी अर्जुन हैं उसी पक्ष में श्री , विजय , विभूति और अचल नीति – ये सभी हैं और मेरी सम्मति भी उधर ही है। भगवान ने जब अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी उस समय सञ्जय ने भगवान को महायोगेश्वरः (टिप्पणी प0 1001) कहा था अब उसी महायोगेश्वर की याद दिलाते हुए यहाँ योगेश्वरः कहते हैं। वे सम्पूर्ण योगों के ईश्वर (मालिक) भगवान कृष्ण तो प्रेरक हैं और उनकी आज्ञा का पालन करने वाले धनुर्धारी अर्जुन प्रेर्य हैं। गीता में भगवान के लिये महायोगेश्वर ,योगेश्वर आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इनका तात्पर्य है कि भगवान सब योगियों को सिखाने वाले हैं। भगवान को खुद सीखना नहीं पड़ता क्योंकि उनका योग स्वतःसिद्ध है। सर्वज्ञता , ऐश्वर्य , सौन्दर्य , माधुर्य आदि जितने भी वैभवशाली गुण हैं वे सब के सब भगवान में स्वतः रहते हैं , वे गुण भगवान में नित्य रहते हैं , असीम रहते हैं। ऐसे पिता का पिता , फिर पिता का पिता – यह परम्परा अन्त में जाकर परमपिता परमात्मा में समाप्त होती है। ऐसे ही जितने भी गुण हैं उन सबकी समाप्ति परमात्मा में ही होती है। पहले अध्याय में जब युद्ध की घोषणा का प्रसङ्ग आया तब कौरवपक्ष में सबसे पहले भीष्मजी ने शङ्ख बजाया। भीष्मजी कौरवसेना के अधिपति थे इसलिये उनका शङ्ख बजाना उचित ही था परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो पाण्डवसेना में सारथि बने हुए हैं और सबसे पहले शङ्ख बजाकर युद्ध की घोषणा करते हैं । लौकिक दृष्टि से देखा जाय तो सबसे पहले शङ्ख बजाने का भगवान का कोई अधिकार नहीं दिखता। फिर भी वे शङ्ख बजाते हैं तो इससे सिद्ध होता है कि पाण्डवसेना में सबसे मुख्य भगवान श्रीकृष्ण ही हैं और दूसरे नम्बर में अर्जुन हैं। इसलिये इन दोनों ने पाण्डवसेना में सबसे पहले शङ्ख बजाये। तात्पर्य यह हुआ कि सञ्जय ने जैसे आरम्भ में (शङ्खवादन क्रिया में) दोनों की मुख्यता प्रकट की। ऐसे ही यहाँ अन्त में इन दोनों का नाम लेकर दोनों की मुख्यता प्रकट करते हैं। गीताभर में पार्थ सम्बोधन की 38 बार आवृत्ति हुई है। अर्जुन के लिये इतनी संख्या में और कोई सम्बोधन नहीं आया है। इससे मालूम होता है कि भगवान को पार्थ सम्बोधन ज्यादा प्रिय लगता है। इसी रीति से अर्जुन को भी कृष्ण सम्बोधन ज्यादा प्रिय लगता है। इसलिये गीता में कृष्ण सम्बोधन की आवृत्ति नौ बार हुई है। भगवान के सम्बोधनों में इतनी संख्या में दूसरे किसी भी सम्बोधन की आवृत्ति नहीं हुई। अन्त में गीता का उपसंहार करते हुए सञ्जय ने भी कृष्ण और पार्थ ये दोनों नाम लिये हैं। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम – लक्ष्मी , शोभा , सम्पत्ति – ये सब श्री शब्द के अन्तर्गत हैं। जहाँ श्रीपति भगवान कृष्ण हैं वहाँ श्री रहेगी ही। विजय नाम अर्जुन का भी है और शूरवीरता आदि का भी। जहाँ विजयरूप अर्जुन होंगे वहाँ शूरवीरता , उत्साह आदि क्षात्रऐश्वर्य रहेंगे ही। ऐसे ही जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण होंगे वहाँ विभूति – ऐश्वर्य , महत्ता , प्रभाव , सामर्थ्य आदि सब के सब भगवद्गुण रहेंगे ही और जहाँ धर्मात्मा अर्जुन होंगे वहाँ ध्रुवा नीति – अटल नीति , न्याय , धर्म आदि रहेंगे ही। वास्तव में श्री , विजय , विभूति और ध्रुवा नीति – ये सब गुण भगवान में और अर्जुन में हरदम विद्यमान रहते हैं। उपर्युक्त दो विभाग तो मुख्यता को लेकर किये गये हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन – ये दोनों जहाँ रहेंगे वहाँ अनन्त ऐश्वर्य , अनन्त माधुर्य , अनन्त सौशील्य , अनन्त सौजन्य , अनन्त सौन्दर्य आदि दिव्य गुण रहेंगे ही। धृतराष्ट्र का विजय की गूढ़ाभिसन्धिरूप जो प्रश्न है उसका उत्तर सञ्जय यहाँ सम्यक् रीति से दे रहे हैं। तात्पर्य है कि पाण्डुपुत्रों की विजय निश्चित है – इसमें कोई सन्देह नहीं है। ज्ञानयज्ञः सुसम्पन्नः प्रीतये पार्थसारथेः। अङ्गीकरोतु तत्सर्वं मुकुन्दो भक्तवत्सलः।। नेत्रवेदखयुग्मे हि बहुधान्ये च वत्सरे (टिप्पणी प0 1002) संजीवनी मुमुक्षूणां माधवे पूर्णतामियात्।।

 

इस प्रकार ॐ तत् सत् – इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।18।।

 

 

 

 

 

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