The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

फल सहित वर्ण धर्म का विषय

 

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।18.46।।

 

यतः-जिससे; प्रवृत्तिः-अस्तित्त्व में आना; भूतानाम्-सभी जीवित प्राणी; येन-जिसके द्वारा; सर्वम्-सब; इदम् यह; ततम्-व्याप्त; स्वकर्मणा किसी की स्वाभाविक वृत्तियाँ; तम्-उसको; अभ्यर्च्य-पूजा करके; सिद्धिम् – सिद्धि को; विन्दति-प्राप्त करता है; मानवः-मनुष्य।

 

अपनी स्वाभाविक वृत्ति का निर्वहन करते हुए उस सृजक भगवान की उपासना करो जिससे सभी जीव अस्तित्त्व में आते हैं और जिसके द्वारा सारा ब्रह्मांड प्रकट होता है। इस प्रकार से अपने कर्मों को सम्पन्न करते हुए मनुष्य सरलता से पूर्णता प्राप्त कर सकता है अर्थात जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।।18.46।।

 

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् – जिस परमात्मा से संसार पैदा हुआ है , जिससे सम्पूर्ण संसार का संचालन होता है , जो सबका उत्पादक , आधार और प्रकाशक है और जो सबमें परिपूर्ण है अर्थात् जो परमात्मा अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था जो अनन्त ब्रह्माण्डों के लीन होने पर भी रहेगा और अनन्त ब्रह्माण्डों के रहते हुए भी जो रहता है तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है उसी परमात्मा का अपने-अपने स्वभावज (वर्णोचित स्वाभाविक) कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिये। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य – मनुस्मृति में ब्राह्मणों के लिये छः कर्म बताये गये हैं – स्वयं पढ़ना और दूसरों को पढ़ाना , स्वयं यज्ञ करना और दूसरों से यज्ञ कराना तथा स्वयं दान लेना और दूसरों को दान देना (टिप्पणी प0 938.1) (इनमें पढ़ाना , यज्ञ कराना और दान लेना – ये तीन कर्म जीविका के हैं और पढ़ना , यज्ञ करना और दान देना – ये तीन कर्तव्यकर्म हैं)। उपर्युक्त शास्त्रनियत छः कर्म और शम-दम आदि नौ स्वभावज कर्म तथा इनके अतिरिक्त खाना-पीना , उठना-बैठना आदि जितने भी कर्म हैं उन कर्मों के द्वारा ब्राह्मण चारों वर्णों में व्याप्त परमात्मा का पूजन करें। तात्पर्य है कि परमात्मा की आज्ञा से उनकी प्रसन्नता के लिये ही भगवद्बुद्धि से निष्कामभावपूर्वक सबकी सेवा करें। ऐसे ही क्षत्रियों के लिये पाँच कर्म बताये गये हैं – प्रजा की रक्षा करना , दान देना , यज्ञ करना , अध्ययन करना और विषयों में आसक्त न होना (टिप्पणी प0 938.2)। इन पाँच कर्मों तथा शौर्य , तेज आदि सात स्वभावज कर्मों के द्वारा और खाना-पीना आदि सभी कर्मों के द्वारा क्षत्रिय सर्वत्र व्यापक परमात्मा का पूजन करें। वैश्य यज्ञ करना , अध्ययन करना , दान देना और ब्याज लेना तथा कृषि , गौरक्ष्य और वाणिज्य (टिप्पणी प0 939.1) – इन शास्त्रनियत और स्वभावज कर्मों के द्वारा और शूद्र शास्त्रविहित तथा स्वभावज कर्म सेवा (टिप्पणी प0 939.2) के द्वारा सर्वत्र व्यापक परमात्मा का पूजन करें अर्थात् अपने शास्त्रविहित , स्वभावज और खाना-पीना , सोना-जागना आदि सभी कर्मों के द्वारा भगवान की आज्ञा से , भगवान की प्रसन्नता के लिये , भगवद्बुद्धि से निष्कामभावपूर्वक सबकी सेवा करें। शास्त्रों में मनुष्य के लिये अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार जो-जो कर्तव्यकर्म बताये गये हैं वे सब संसाररूप परमात्मा की पूजा के लिये ही हैं। अगर साधक अपने कर्मों के द्वारा भाव से उस परमात्मा का पूजन करता है तो उसकी मात्र क्रियाएँ परमात्मा की पूजा हो जाती है। जैसे पितामह भीष्म ने (अर्जुन के साथ युद्ध करते हुए) अर्जुन के सारथि बने हुए भगवान की अपने युद्धरूप कर्म के द्वारा (बाणों से) पूजा की। भीष्म के बाणों से भगवान का कवच टूट गया जिससे भगवान के शरीर में घाव हो गये और हाथ की अंगुलियों में छोटे-छोटे बाण लगने से अंगुलियों से लगाम पकड़ना कठिन हो गया। ऐसी पूजा करके अन्तसमय में शरशय्या पर पड़े हुए पितामह भीष्म अपने बाणों द्वारा पूजित भगवान का ध्यान करते हैं – युद्ध में मेरे तीखे बाणों से जिनका कवच टूट गया है , जिनकी त्वचा विच्छिन्न हो गयी है , परिश्रम के कारण जिनके मुख पर स्वेदकण सुशोभित हो रहे हैं , घोड़ों की टापों से उड़ी हुई रज जिनकी सुन्दर अलकावलि में लगी हुई है इस प्रकार बाणों से अलंकृत भगवान कृष्ण में मेरे मन-बुद्धि लग जायँ (टिप्पणी प0 939.3)। लौकिक और पारमार्थिक कर्मों के द्वारा उस परमात्मा का पूजन तो करना चाहिये पर उन कर्मों में और उनको करने के करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिये। कारण कि जिन वस्तुओं , क्रियाओं आदि में ममता हो जाती है वे सभी चीजें अपवित्र हो जाने से (टिप्पणी प0 939.4) पूजासामग्री नहीं रहतीं (अपवित्र फल , फूल  आदि भगवान पर नहीं चढ़ते)। इसलिये मेरे पास जो कुछ है वह सब उस सर्वव्यापक परमात्मा का ही है । मुझे तो केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्ति से उनका पूजन करना है – इस भाव से जो कुछ किया जाय वह सब का सब परमात्मा का पूजन हो जाता है। इसके विपरीत उन क्रियाओं , वस्तुओं आदि को मनुष्य जितनी अपनी मान लेता है उतनी ही वे (अपनी मानी हुई) क्रियाएँ , वस्तुएँ (अपवित्र होने से) परमात्मा के पूजन से वञ्चित रह जाती हैं। सिद्धिं विन्दति मानवः – सिद्धि को प्राप्त होने का तात्पर्य है कि अपने कर्मों से परमात्मा का पूजन करने वाला मनुष्य प्रकृति के सम्बन्ध से रहित होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। स्वरूप में स्थित होने पर पहले जो परमात्मा के समर्पण किया था उस संस्कार के कारण उसका प्रभु में अनन्यप्रेम जाग्रत हो जाता है। फिर उसके लिये कुछ भी पाना बाकी नहीं रहता। यहाँ ‘मानवः’ पद का तात्पर्य केवल ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र और ब्रह्मचारी , गृहस्थ , वानप्रस्थ , संन्यास – इन वर्णों और आश्रमों आदि से ही नहीं है प्रत्युत हिन्दू , मुसलमान , ईसाई , बौद्ध , पारसी , यहूदी आदि सभी जातियों और सम्प्रदायों से है। किसी भी जाति , सम्प्रदाय आदि के कोई भी व्यक्ति क्यों न हों सब के सब ही परमात्मा के पूजन के अधिकारी हैं क्योंकि सभी परमात्मा के अपने हैं। जैसे घर में स्वभाव आदि के भेद से अनेक तरह के बालक होते हैं पर उन सबकी माँ एक ही होती है और उन बालकों की तरह-तरह की जितनी भी क्रियाएँ होती हैं उन सब क्रियाओं से माँ प्रसन्न होती रहती है क्योंकि उन बालकों में माँ का अपनापन होता है। ऐसे ही भगवान के सम्मुख हुए मनुष्यों की सभी क्रियाओं को भगवान अपना पूजन मान लेते हैं और प्रसन्न होते हैं। इसी अध्याय के 70वें श्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा है कि कोई भी मनुष्य हम दोनों के संवाद का अध्ययन करेगा उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित हो जाऊँगा। इससे यह सिद्ध होता है कि कोई गीता का पाठ करे , अध्ययन करे तो उसको भगवान अपना पूजन मान लेते हैं। ऐसे ही जो उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं से विमुख होकर भगवान के सम्मुख हो जाता है उसकी क्रियाओं को भगवान अपना पूजन मान लेते हैं। विशेष बात- कर्मयोग में कर्मों के द्वारा जडता से असङ्गता होती है और भक्तियोग में संसार से असङ्गतापूर्वक परमात्मा के प्रति पूज्यभाव होने से परमात्मा की सम्मुखता रहती है। कर्मयोगी तो अपने पास शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि जो कुछ संसार का जड अंश है उसको स्वार्थ , अभिमान , कामना का त्याग करके संसार की सेवा में लगा देता है। इससे अपनी मानी हुई चीजों से अपनापन छूटकर उनसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और जो स्वतः स्वाभाविक असङ्गता है वह प्रकट हो जाती है। भक्त अपने वर्णोचित स्वाभाविक कर्मों और समय-समय पर किये गये पारमार्थिक कर्मों (जप , ध्यान आदि) के द्वारा सम्पूर्ण संसार में व्याप्त परमात्मा का पूजन करता है।इन दोनों में भाव की भिन्नता होने से इतना ही अन्तर हुआ कि कर्मयोगी की सम्पूर्ण क्रियाओं का प्रवाह सबको सुख पहुँचाने में लग जाता है तो क्रियाओं को करने का वेग मिटकर स्वयं में असङ्गता आ जाती है और भक्त की सम्पूर्ण क्रियाएँ परमात्मा की पूजनसामग्री बन जाने से जडता से विमुखता होकर भगवान की सम्मुखता आ जाती है और प्रेम बढ़ जाता है। भक्त तो पहले से ही भगवान के सम्मुख होकर अपने आपको भगवान के अर्पित कर देता है। स्वयं के अनन्यतापूर्वक भगवान के समर्पित हो जाने से खाना-पीना , काम-धंधा आदि लौकिक और जप , ध्यान , सत्सङ्ग , स्वाध्याय आदि पारमार्थिक क्रियाएँ भी भगवान के अर्पण हो जाती हैं। उसकी लौकिक-पारमार्थिक क्रियाओं में केवल बाहर से भेद देखने में आता है परन्तु वास्तव में कोई भेद नहीं रहता। कर्मयोगी और ज्ञानयोगी – ये दोनों अन्त में एक हो जाते हैं। जैसे कर्मयोगी कर्मों के द्वारा जडता का त्याग करता है अर्थात् सेवा के द्वारा उसकी सभी क्रियाएँ संसार के अर्पण हो जाती हैं और स्वयं असङ्ग हो जाता है और ज्ञानयोगी विचार के द्वारा जडता का त्याग करता है अर्थात् विचार के द्वारा उसकी सभी क्रियाएँ प्रकृति के अर्पण हो जाती हैं और स्वयं असङ्ग हो जाता है। तात्पर्य है कि दोनों के अर्पण करने के प्रकार में अन्तर है पर असङ्गता में दोनों एक हो जाते हैं (टिप्पणी प0 940)। इस असङ्गता में कर्मयोगी और ज्ञानयोगी – दोनों स्वतन्त्र हो जाते हैं। उनके लिये किञ्चिन्मात्र भी कर्मों का बन्धन नहीं रहता। केवल कर्तव्यपालन के लिये ही कर्तव्यकर्म करने से कर्मयोगी के सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं (गीता 4। 23) और ज्ञानरूप अग्नि से ज्ञानयोगी के सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं (गीता 4। 37)  परन्तु इस स्वतन्त्रतामें भी जिसको संतोष नहीं होता अर्थात् स्वतन्त्रता से जिसको उपरति हो जाती है उसमें भगवत्कृपा से प्रेम प्रकट हो सकता है। स्वभावज (सहज) कर्मों को निष्कामभावपूर्वक और पूजाबुद्धि से करते हुए उसमें कोई कमी रह भी जाय तो भी उसमें साधक को हताश नहीं होना चाहिये – इसको आगे के दो श्लोकों में बताते हैं।

 

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