The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

त्याग का विषय

 

Bhagavat Gita chapter 18- Moksha Sanyas Yogaयज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।18.5।।

 

यज्ञ-यज्ञ, दान-दान; तपः-तपः कर्म-कर्म; न कभी नहीं; त्याज्यम्-त्यागने चाहिए; कार्यमेव ( कार्यम्-एव ) – निश्चित रूप से संपन्न करना चाहिए; तत्-उसे; यज्ञः-यज्ञ; दानम्-दान; तपः-तप; च-और; एव-वास्तव में; पावनानि-शुद्ध करने वाले; मनीषिणाम् – महात्माओं , ज्ञानियों अथवा साधकों के लिए भी।

 

यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिये, बल्कि इन कर्मों को तो निश्चित रूप से कर्त्तव्य कर्म मान कर संपन्न करना ही चाहिये क्योंकि यज्ञ, दान और तप – ये तीनों ही कर्म महात्माओं और ज्ञानी जनों को पवित्र अथवा शुद्ध करने वाले हैं।।18.5।।

 

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् – यहाँ भगवान ने दूसरों के मत (18। 3) को ठीक बताया है। भगवान कठोर शब्दों से किसी के मत का खण्डन नहीं करते। आदर देने के लिये भगवान दूसरे के मत का वास्तविक अंश ले लेते हैं और उसमें अपना मत भी शामिल कर देते हैं। यहाँ भगवान ने दूसरे के मत के अनुसार कहा कि यज्ञ , दान और तपरूप कर्म छोड़ने नहीं चाहिये। इसके साथ भगवान ने अपना मत बताया कि इतना ही नहीं प्रत्युत उनको न करते हों तो जरूर करना चाहिये – कार्यमेव तत्। कारण कि यज्ञ , दान और तप – तीनों कर्म मनीषियों को पवित्र करने वाले हैं। यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् – यहाँ ‘चैव’ पद का तात्पर्य है कि नित्य , नैमित्तिक , जीविकासम्बन्धी , शरीरसम्बन्धी आदि जितने भी कर्तव्यकर्म हैं उनको भी जरूर करना चाहिये क्योंकि वे भी मनीषियों को पवित्र करने वाले हैं। जो मनुष्य समत्वबुद्धि से युक्त होकर कर्मजन्य फल का त्याग कर देते हैं वे मनीषी हैं – कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः (गीता 2। 51)। ऐसे मनीषियों को वे यज्ञादि कर्म पवित्र करते हैं परन्तु जो वास्तव में मनीषी नहीं हैं जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं अर्थात् अपने सुखभोग के लिये ही जो यज्ञ , दानादि कर्म करते हैं उनको वे कर्म पवित्र नहीं करते प्रत्युत वे कर्म बन्धनकारक हो जाते हैं। इस श्लोक के पूर्वार्ध में यज्ञदानतपःकर्म – ऐसा समासयुक्त पद दिया है और उत्तरार्ध में यज्ञो दानं तपः – ऐसे अलग-अलग पद दिये हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान ने समासयुक्त पद से यह बताया है कि यज्ञ , दान और तप का त्याग नहीं करना चाहिये प्रत्युत इनको जरूर करना चाहिये और अलग-अलग पदों से यह बताया है कि इनमें से एक-एक कर्म भी मनीषी को पवित्र करने वाला है।

 

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