The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

श्री गीताजी का माहात्म्य

 

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।

भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।18.69।।

 

न – कभी नहीं; च और; तस्मात्-उनकी उपेक्षा; मनुष्येषु-मनुष्यों में; कश्चित्-कोई; मे-मुझको; प्रियकृत्त- मः-अतिशय प्रिय; भविता-होगा; न- न तो; च-तथा; मे-मुझे; तस्मात्-उनकी अपेक्षा; अन्यः-दूसरा; प्रियतरः-अधिक प्रिय; भुवि-इस पृथ्वी पर।

 

उसके समान मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है और इस भूमण्डल पर उसके समान मेरा दूसरा कोई प्रियतर होगा भी नहीं। न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा।।18.69।।

 

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः – जो अपने में लौकिक-पारलौकिक प्राकृत पदार्थों की महत्ता , लिप्सा , आवश्यकता रखता है और रखना चाहता है वह पराभक्ति ( 18। 68) के अन्तर्गत नहीं आ सकता। पराभक्ति के अन्तर्गत नहीं आ सकता है जिसका प्राकृत पदार्थों को प्राप्त करने का किञ्चिन्मात्र भी उद्देश्य नहीं है और जो भगवत्प्राप्ति , भगवद्दर्शन , भगवत्प्रेम आदि पारमार्थिक उद्देश्य रखकर गीता के अनुसार ही अपना जीवन बनाना चाहता है। ऐसा पुरुष ही भगवद्गीता के प्रचार का अधिकारी होता है। यदि उसमें कभी मान-बड़ाई आदि की इच्छा आ भी जाय तो वह टिकेगी नहीं क्योंकि मान-बड़ाई आदि प्राप्त करना उसका उद्देश्य नहीं है। भगवान के भक्तों में गीता का प्रचार करने वाले उपर्युक्त अधिकारी मनुष्य के लिये ही ‘तस्मात्’ पद देकर भगवान कहते हैं कि मनुष्यों में उसके समान मेरा प्रियकृत्तम अर्थात् अत्यन्त प्रिय कार्य करने वाला कोई भी नहीं है क्योंकि गीताप्रचार के समान दूसरा मेरा कोई प्रिय कार्य है ही नहीं। ‘प्रियकृत्तमः’ पद में जो ‘कृत्’ पद आया है उसका तात्पर्य है कि गीता का प्रचार करने में उसका अपना कोई स्वार्थ नहीं है। मान-बड़ाई , आदर-सत्कार आदि की कोई कामना नहीं है केवल भगवत्प्रीत्यर्थ गीता के भावों का प्रचार करता है। इसलिये वह प्रियकृत्तम – भगवान का अत्यन्त प्रिय कार्य करने वाला है। मनुष्यों में प्रियकृत्तम कहने का तात्पर्य है कि भगवान का अत्यन्त प्यारा बनने के लिये मनुष्यों को ही अधिकार है। संसार में कामनाओं की पूर्ति कर लेना कोई महत्त्व की , बहादुरी की बात नहीं है। देवता , पशु-पक्षी , नारकीय जीव , कीट-पतङ्ग , वृक्ष-लता आदि सभी योनियों में कामना की पूर्ति करने का अवसर मिलता है परन्तु कामना का त्याग करके परमात्मा की प्राप्ति करने का अवसर तो केवल मनुष्ययोनि में ही मिलता है। इस मनुष्ययोनि को प्राप्त करके परमात्मा की प्राप्ति करने में , परमात्मा का अत्यन्त प्यारा बनने में ही मनुष्यजन्म की सफलता है। भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि – जिसमें अपनी मान-बड़ाई की वासना है , कुछ स्वार्थभाव भी है और जिसका अपना उद्धार करने का तथा गीता के अनुसार जीवन बनाने का उद्देश्य वैसा (प्रियकृत्तम के समान) नहीं बना है परन्तु जिसके हृदय में गीता का विशेष आदर है और गीता का पाठ करवाना , गीता कण्ठस्थ करवाना , गीता मुद्रित करवाकर , उसकी सस्ती बिक्री करना आदि किसी तरह से गीता का प्रचार करता है और लोगों को गीता में लगाता है , उसके समान पृथ्वीमण्डल पर मेरा दूसरा कोई प्रियतर नहीं होगा। अपने धर्म , सम्प्रदाय , सिद्धान्त आदि का प्रचार करने वाला व्यक्ति भगवान का प्रिय तो हो सकता है पर प्रियतर नहीं होगा। प्रियतर तो किसी तरह से गीता का प्रचार करने वाला ही होगा। भगवद्गीता में अपना उद्धार करने की ऐसी-ऐसी विलक्षण , सुगम और सरल युक्तियाँ बतायी गयी हैं जिनको मनुष्यमात्र अपने आचरणों में ला सकता है। तात्पर्य यह है कि जो गीता का आदर करता है – ऐसा मनुष्य हिंदू , मुसलमान , ईसाई , यहूदी , पारसी , बौद्ध आदि किसी भी धर्म को मानने वाला क्यों न हो ? किसी भी देश , वेश , वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि का क्यों न हो ? अपनी रुचि के अनुसार किसी भी शैली , उपाय , सिद्धान्त , साधन को मानने वाला क्यों न हो? वह यदि अपना किसी तरह का आग्रह न रख कर , पक्षपात-विषमता को छोड़कर किसी भी प्राणी को दुःख पहुँचाने वाली चेष्टा का त्याग करके मन में किसी भी लौकिक-पारलौकिक उत्पन्न और नष्ट होने वाली वस्तु की कामना न रखकर अपना सम्प्रदाय , अपनी टोनी बनाने का उद्देश्य न रखकर केवल अपने कल्याण का उद्देश्य रखकर गीता के अनुसार चलता है (अकर्तव्य का सर्वथा त्याग करके प्राप्त परिस्थिति के अनुसार अपने कर्तव्य का लोकहितार्थ , निष्कामभावपूर्वक पालन करता है) तो वह भी जीविकासम्बन्धी और खाना-पीना , सोना-जागना आदि शरीरसम्बन्धी सब काम करते हुए परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है। महान आनन्द , महान सुख को (गीता 6। 22) प्राप्त कर सकता है। गीता वेश , आश्रम , अवस्था , क्रिया आदि का परिवर्तन करने के लिये नहीं कहती प्रत्युत परिमार्जन करने के लिये कहती है अर्थात् केवल अपने भाव और उद्देश्य को शुद्ध बनाने के लिये कहती है। गीता की ऐसी युक्तियों को जो भगवान की तरफ चलने वाले भक्तों में कहेगा , उससे उन भक्तों को पारमार्थिक मार्ग में बढ़ने की युक्तियाँ मिलेंगी , शंकाओं का समाधान होगा , साधन की उलझनें सुलझेंगी , पारमार्थिक मार्ग की बाधाएँ दूर होंगी जिससे वे उत्साह से सुगमतापूर्वक बहुत ही जल्दी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। इसलिये वह भगवान को सबसे अधिक प्यारा होगा क्योंकि भगवान जीव के उद्धार से बड़े प्रसन्न होते हैं। जिसमें गीता का प्रचार करने की योग्यता नहीं है वह क्या करे ? इसको भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं।

 

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