The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

भक्ति सहित कर्मयोग का विषय

 

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।18.56।।

 

सर्व-सब; कर्माणि-कर्म; अपि-यद्यपि; सदा-सदैव; कुर्वाणः-निष्पादित करते हुए; मद्व्यपाश्रयः ( मत्-व्यपाश्रयः ) – मेरी पूर्ण शरणागति में; मत्प्रसादाद ( मत्-प्रसादात् ) – मेरी कृपा से; अवाप्नोति–प्राप्त करता है; शाश्वतम्-नित्य; पदम्-धाम; अव्ययम्-अविनाशी।

 

यदि मेरे भक्त सभी प्रकार के कार्यों को करते हुए मेरी पूर्ण शरण ग्रहण करते हैं। तब वे मेरी कृपा से मेरा नित्य एवं अविनाशी धाम प्राप्त करते हैं अर्थात मेरा आश्रय लेने वाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा और अनुग्रह से शाश्वत और अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है।।18.56।।

 

मद्व्यपाश्रयः – कर्मों का , कर्मों के फल का , कर्मों के पूरा होने अथवा न होने का , किसी घटना , परिस्थिति , वस्तु , व्यक्ति आदि का आश्रय न हो। केवल मेरा ही आश्रय (सहारा) हो। इस तरह जो सर्वथा मेरे ही परायण हो जाता है , अपना स्वतन्त्र कुछ नहीं समझता , किसी भी वस्तु को अपनी नहीं मानता , सर्वथा मेरे आश्रित रहता है , ऐसे भक्त को अपने उद्धार के लिये कुछ करना नहीं पड़ता। उसका उद्धार मैं कर देता हूँ (गीता 12। 7) उसको अपने जीवननिर्वाह या साधनसम्बन्धी किसी बात की कमी नहीं रहती , सबकी मैं पूर्ति कर देता हूँ (गीता 9। 22) – यह मेरा सदा का एक विधान है , नियम है जो कि सर्वथा शरण हो जाने वाले हरेक प्राणी को प्राप्त हो सकता है (गीता 9। 30 — 32)। सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणः – यहाँ ‘कर्माणि’ पद के साथ सर्व और ‘कुर्वाणः’ पद के साथ सदा पद देने का तात्पर्य है कि जिस ध्यानपरायण सांख्ययोगी ने शरीर , वाणी और मन का संयमन कर लिया है अर्थात् जिसने शरीर आदि की क्रियाओं को संकुचित कर लिया है और एकान्त में रहकर सदा ध्यानयोग में लगा रहता है उसको जिस पद की प्राप्ति होती है उसी पदको लौकिक , पारलौकिक , सामाजिक , शारीरिक आदि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को हमेशा करते हुए भी मेरा आश्रय लेने वाला भक्त मेरी कृपा से प्राप्त कर लेता है। हरेक व्यक्ति को यह बात तो समझ में आ जाती है कि जो एकान्त में रहता है और साधन-भजन करता है , उसका कल्याण हो जाता है परन्तु यह बात समझ में नहीं आती कि जो सदा मशीन की तरह संसार का सब काम करता है उसका कल्याण कैसे होगा ? उसका कल्याण हो जाय ऐसी कोई युक्ति नहीं दिखती क्योंकि ऐसे तो सब लोग कर्म करते ही रहते हैं। इतना ही नहीं मात्र जीव कर्म करते ही रहते हैं पर उन सबका कल्याण होता हुआ दिखता नहीं और शास्त्र भी ऐसा कहता नहीं । इसके उत्तर में भगवान कहते हैं — मत्प्रसादात्। तात्पर्य यह है कि जिसने केवल मेरा ही आश्रय ले लिया है उसका कल्याण मेरी कृपा से हो जायगा। कौन है मना करने वाला ? यद्यपि प्राणिमात्र पर भगवान का अपनापन और कृपा सदा-सर्वदा स्वतःसिद्ध है तथापि यह मनुष्य जब तक असत् संसार का आश्रय लेकर भगवान से विमुख रहता है तब तक भगवत्कृपा उसके लिये फलीभूत नहीं होती अर्थात् उसके काम में नहीं आती परन्तु यह मनुष्य भगवान का आश्रय लेकर ज्यों-ज्यों दूसरा आश्रय छोड़ता जाता है त्यों ही त्यों भगवान का आश्रय दृढ़ होता चला जाता है और ज्यों-ज्यों भगवान का आश्रय दृढ़ होता जाता है त्यों ही त्यों भगवत्कृपा का अनुभव होता जाता है। जब सर्वथा भगवान का आश्रय ले लेता है तब उसे भगवान की कृपा का पूर्ण अनुभव हो जाता है। अवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् – स्वतःसिद्ध परमपद की प्राप्ति अपने कर्मों से , अपने पुरुषार्थ से अथवा अपने साधन से नहीं होती। यह तो केवल भगवत्कृपा से ही होती है। शाश्वत अव्ययपद सर्वोत्कृष्ट है। उसी परमपद को भक्तिमार्ग में परमधाम , सत्यलोक , वैकुण्ठलोक , गोलोक , साकेतलोक आदि कहते हैं और ज्ञानमार्ग में विदेहकैवल्य , मुक्ति , स्वरूपस्थिति आदि कहते हैं। वह परमपद तत्त्व से एक होते हुए भी मार्गों और उपासनाओं का भेद होने से उपासकों की दृष्टि से भिन्न-भिन्न कहा जाता है (गीता 8। 21 14। 27)। भगवान का चिन्मय लोक एक देश-विशेष में होते हुए भी सब जगह व्यापकरूप से परिपूर्ण है। जहाँ भगवान हैं वहीं उनका लोक भी है क्योंकि भगवान और उनका लोक तत्त्व से एक ही हैं। भगवान सर्वत्र विराजमान हैं । अतः उनका लोक भी सर्वत्र विराजमान (सर्वव्यापी) है। जब भक्त की अनन्य निष्ठा सिद्ध हो जाती है तब परिच्छिन्नता का अत्यन्त अभाव हो जाता है और वही लोक उसके सामने प्रकट हो जाता है अर्थात् उसे यहाँ जीतेजी ही उस लोक की दिव्य लीलाओं का अनुभव होने लगता है परन्तु जिस भक्त की ऐसी धारणा रहती है कि वह दिव्य लोक एक देश-विशेष में ही है तो उसे उस लोक की प्राप्ति शरीर छोड़ने पर ही होती है। उसे लेने के लिये भगवान के पार्षद आते हैं और कहीं-कहीं स्वयं भगवान भी आते हैं। पूर्वश्लोक में अपना सामान्य विधान (नियम) बताकर अब भगवान आगे के श्लोक में अर्जुन के लिये विशेषरूप से आज्ञा देते हैं।

 

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