मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
भक्ति सहित कर्मयोग का विषय
सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।।18.64।।
सर्वगुह्यतमम्-सब गोपनीयों में से गोपनीय; भूयः-पुनः ; शृणु-सुनो; मे-मुझसे; परमम्-परम; वचः-आदेश; इष्ट:असि-अतिशय प्रिय हो; मे-मुझे ; दृढम्-अत्यन्तः इति -इस प्रकार; ततः-क्योंकि; वक्ष्यामि – कह रहा हूँ; ते – तुम्हारे; हितम्-लाभ के लिए;
पुन: एक बार तुम मुझसे समस्त गुह्यों में गुह्यतम अथवा गोपनीयों से भी गोपनीय परम वचन (उपदेश) को सुनो। तुम मुझे अतिशय प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारे हित की बात कहूंगा अर्थात मेरा परम उपदेश सुनो जो सबसे श्रेष्ठ गुह्य ज्ञान है। मैं इसे तुम्हारे लाभ के लिए प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे प्रिय मित्र हो।।18.64।।
सर्वगुह्यतमं भूयः श्रुणु मे परमं वचः – पहले 63वें श्लोक में भगवान ने गुह्य (कर्मयोग की) और गुह्यतर (अन्तर्यामी निराकार की शरणागति की) बात कही और ‘इदं तु ते गुह्यतमम्’ (9। 1) तथा ‘इति गुह्यतमं शास्त्रम्’ (15। 20) – इन पदों से गुह्यतम (अपने प्रभाव की) बात कह दी पर सर्वगुह्यतम बात गीता में पहले कहीं नहीं कही। अब यहाँ अर्जुन की घबराहट को देखकर भगवान कहते हैं कि मैं सर्वगुह्यतम अर्थात् सबसे अत्यन्त गोपनीय बात फिर कहूँगा। तू मेरे परम , सर्वश्रेष्ठ वचनों को सुन। इस श्लोक में ‘सर्वगुह्यतमम्’ पद से भगवान ने बताया कि यह हरेक के सामने प्रकट करने की बात नहीं है और 67वें श्लोक में ‘इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन’ पद से भगवान ने बताया कि इस बात को असहिष्णु और अभक्त से कभी मत कहना। इस प्रकार दोनों तरफ से निषेध करके बीच में (66वें श्लोक में) सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज – इस सर्वगुह्यतम बात को रखा है। दोनों तरफ से निषेध करने का तात्पर्य है कि यह गीता भर में अत्यन्त रहस्यमय खास उपदेश है। (टिप्पणी प0 966) दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में ‘धर्मसम्मूढचेताः’ कहकर अर्जुन अपने को धर्म का निर्णय करने में अयोग्य समझते हुए भगवान से पूछते हैं , उनके शिष्य बनते हैं और शिक्षा देने के लिये कहते हैं। अतः भगवान यहाँ (18। 66 में) कहते हैं कि तू धर्म के निर्णय का भार अपने ऊपर मत ले , वह भार मेरे पर छोड़ दे – मेरे ही अर्पण कर दे और अनन्यभाव से केवल मेरी शरण में आ जा। फिर तेरे को जो पाप आदि का डर है उन सब पापों से मैं तुझे मुक्त कर दूँगा। तू सब चिन्ताओं को छोड़ दे। यही भगवान का सर्वगुह्यतम परम वचन है। भूयः श्रृणु का तात्पर्य है कि मैंने यही बात दूसरे शब्दों में पहले भी कही थी पर तुमने ध्यान नहीं दिया। अतः मैं फिर वही बात कहता हूँ। अब इस बात पर तुम विशेषरूप से ध्यान दो। यह सर्वगुह्यतम वाली बात भगवान ने पहले मत्परः ৷৷. मच्चित्तः सततं भव (18। 57) और मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादत्तरिष्यसि (18। 58) पदों से कह दी थी परन्तु ‘सर्वगुह्यतमम्’ पद पहले नहीं कहा और अर्जुन का भी उस बात पर लक्ष्य नहीं गया। इसलिये अब फिर उस बात पर अर्जुन का लक्ष्य कराने के लिये और उस बात का महत्त्व बताने के लिये भगवान यहाँ ‘सर्वगुह्यतमम्’ पद देते हैं। इष्टोऽसि मे दृढमिति – इससे पहले भगवान ने कहा था कि जैसी मरजी आये वैसा कर। जो अनुयायी है , आज्ञापालक है , शरणागत है – उसके लिये ऐसी बात कहने के समान दूसरा क्या दण्ड दिया जा सकता है ? अतः इस बात को सुनकर अर्जुन के मन में भय पैदा हो गया कि भगवान मेरा त्याग कर रहे हैं। उस भय को दूर करनेके लिये भगवान यहाँ कहते हैं कि तुम मेरे अत्यन्त प्यारे मित्र हो (टिप्पणी प0 967.1)। यदि अर्जुन के मन में भय या संदेह न होता तो भगवान को तुम मेरे अत्यन्त प्यारे मित्र हो – यह कहकर सफाई देने की क्या जरूरत थी ? सफाई देना तभी बनता है जब दूसरे के मन में भय हो , सन्देह हो , हलचल हो। इष्टः कहने का दूसरा भाव यह है कि भगवान अपने शरणागत भक्त को अपना ईष्टदेव मान लेते हैं। भक्त सब कुछ छोड़कर केवल भगवान को अपना इष्ट मानता है तो भगवान भी उसको अपना इष्ट मान लेते हैं क्योंकि भक्ति के विषय में भगवान का यह कानून है – ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् (गीता 4। 11) अर्थात् जो भक्त जैसे मेरे शरण होते हैं मैं भी उनको वैसे ही आश्रय देता हूँ। भगवान की दृष्टि में भक्त के समान और कोई श्रेष्ठ नहीं है। भागवत में भगवान उद्धवजी से कहते हैं – तुम्हारे जैसे प्रेमी भक्त मुझे जितने प्यारे हैं उतने प्यारे न ब्रह्माजी हैं , न शंकरजी हैं , न बलरामजी हैं और तो क्या – मेरे शरीर में निवास करने वाली लक्ष्मीजी और मेरी आत्मा भी उतनी प्यारी नहीं है (टिप्पणी प0 967.2)। ‘दृढम्’ कहने का तात्पर्य है कि जब तुमने एक बार कह दिया कि मैं आपके शरण हूँ (2। 7) तो अब तुम्हें बिलकुल भी भय नहीं करना चाहिये। कारण कि जो मेरी शरण में आकर एक बार भी सच्चे हृदय से कह देता है कि मैं आपका ही हूँ उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय (सुरक्षित) कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है (टिप्पणी प0 967.3)। ततो वक्ष्यामि ते हितम् – तू मेरा अत्यन्त प्यारा मित्र है इसलिये अपने हृदय की अत्यन्त गोपनीय और अपने दरबार की श्रेष्ठ से श्रेष्ठ बात तुझे कहूँगा। दूसरी बात – मैं जो आगे शरणागति की बात कहूँगा उसका यह तात्पर्य नहीं है कि मेरी शरण में आने से मुझे कोई लाभ हो जायगा प्रत्युत इसमें केवल तेरा ही हित होगा। इससे सिद्ध होता है कि प्राणिमात्र का हित केवल इसी बात में है कि वह किसी दूसरे का सहारा न लेकर केवल भगवान की ही शरण ले। भगवान की शरण होने के सिवाय जीव का कहीं भी , किञ्चन्मात्र भी हित नहीं है। कारण यह है कि जीव साक्षात् परमात्मा का अंश है। इसलिये वह परमात्मा को छोड़कर किसी का भी सहारा लेगा तो वह सहारा टिकेगा नहीं। जब संसार की कोई भी वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति , अवस्था आदि स्थिर नहीं है तो फिर उनका सहारा कैसे स्थिर रह सकता है ? उनका सहारा तो रहेगा नहीं पर चिन्ता , शोक , दुःख आदि रह जायँगे । जैसे अग्निसे अङ्गार दूर हो जाता है तो वह काला कोयला बन जाता है – कोयला होय नहीं उजला सौ मन साबुन लगाय। पर वही कोयला जब पुनः अग्नि से मिल जाता है तब वह अङ्गार (अग्निरूप) बन जाता है और चमक उठता है। ऐसे ही यह जीव भगवान से विमुख हो जाता है तो बार-बार जन्मता-मरता और दुःख पाता रहता है पर जब यह भगवान के सम्मुख हो जाता है अर्थात् अनन्यभाव से भगवान की शरण में हो जाता है तब यह भगवत्स्वरूप बन जाता है और चमक उठता है तथा संसारमात्र का कल्याण करने वाला हो जाता है।