मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
त्याग का विषय
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।18.12।।
अनिष्टम् – दुखद; इष्टम्-सुखद; मिश्रम्-मिश्रित; च – और; त्रिविधम् – तीन प्रकार के; कर्मणःफलम् – कर्मों के फल; भवति-होता है; अत्यागिनाम्-वे जो निजी पारितोषिक में आसक्त रहते हैं; प्रेत्य-मृत्यु के पश्चात; न-नहीं; तु-लेकिन; संन्यासिनाम्-कर्मों का त्याग करने वालों के लिए; क्वचित्-किसी समय।
जो निजी पारितोषिक के प्रति आसक्त होते हैं उन्हें मृत्यु के पश्चात भी सुखद, दुखद और मिश्रित अथवा शुभ , अशुभ और मिश्रित ये तीन प्रकार के कर्मफल प्राप्त होते हैं लेकिन जो अपने कर्मफलों का त्याग करते हैं उन्हें न तो इस लोक में और न ही मरणोपरांत ऐसे कर्मफल भोगने पड़ते हैं अर्थात कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों को कर्मों का इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित – ऐसे तीन प्रकार का फल मरनेके बाद भी होता है; परन्तु कर्म फल का त्याग करने वालों को कहीं भीनहीं होता।।18.12।।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् – कर्म का फल तीन तरह का होता है – इष्ट , अनिष्ट और मिश्र। जिस परिस्थिति को मनुष्य चाहता है वह इष्ट कर्मफल है , जिस परिस्थिति को मनुष्य नहीं चाहता वह अनिष्ट कर्मफल है और जिसमें कुछ भाग इष्टका तथा कुछ भाग अनिष्ट का है वह मिश्र कर्मफल है। वास्तव में देखा जाय तो संसार में प्रायः मिश्रित ही फल होता है । जैसे – धन होने से अनुकूल (इष्ट) और प्रतिकूल (अनिष्ट) – दोनों ही परिस्थितियाँ आती हैं । धन से निर्वाह होता है – यह अनुकूलता है और टैक्स लगता है , धन नष्ट हो जाता है , छिन जाता है – यह प्रतिकूलता है। तात्पर्य है कि इष्ट में भी आंशिक अनिष्ट और अनिष्ट में भी आंशिक इष्ट रहता ही है। कारण कि सम्पूर्ण संसार त्रिगुणात्मक है (गीता 18। 40) यह जन्म भी दुःखालय (8। 15) और सुखरहित है (9। 33)। अतः चाहे इष्ट (अनुकूल) परिस्थिति हो चाहे अनिष्ट (प्रतिकूल) परिस्थिति हो वह सर्वथा अनुकूल या प्रतिकूल होती ही नहीं। यहाँ इष्ट और अनिष्ट कहने का मतलब यह है कि इष्ट में अनुकूलता की और अनिष्ट में प्रतिकूलता की प्रधानता होती है। वास्तव में कर्मों का फल मिश्रित ही होता है क्योंकि कोई भी कर्म सर्वथा निर्दोष नहीं होता (18। 48)। भवत्यत्यागिनां प्रेत्य – उपर्युक्त सभी फल अत्यागियों को अर्थात् फल की इच्छा रखकर कर्म करने वालों को ही मिलते हैं , संन्यासियों को नहीं। कारण कि जितने भी कर्म होते हैं वे सब प्रकृति के द्वारा अर्थात् प्रकृतिके कार्य शरीर , इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि के द्वारा ही होते हैं तथा फलरूप परिस्थिति भी प्रकृति के द्वारा ही बनती है। इसलिये कर्मों का और उनके फलों का सम्बन्ध केवल प्रकृति के साथ है स्वयं(चेतन स्वरूप) के साथ नहीं परन्तु जब स्वयं उनसे सम्बन्ध तोड़ लेता है तो फिर वह भोगी नहीं बनता प्रत्युत त्यागी हो जाता है। अत्यागी का मतलब है – पीछे के दो ( 10वें , 11वें) श्लोकों में जिन त्यागियों की बात आयी है उनके समान जो त्यागी नहीं है अर्थात् जिन्होंने कर्मफल का त्याग नहीं किया है ऐसे अत्यागी मनुष्यों के सामने इष्ट , अनिष्ट और मिश्र – तीनों कर्मफल अनुकल या प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में आते रहते हैं जिनसे वे सुखी-दुःखी होते रहते हैं। उनसे सुखी-दुःखी होना ही वास्तव में बन्धन है। वास्तव में अनुकूलता से सुखी होना ही प्रतिकूलता में दुःखी होने का कारण है क्योंकि परिस्थितिजन्य सुख भोगने वाला कभी दुःख से बच ही नहीं सकता। जब तक वह सुख भोगता रहेगा तब तक वह प्रतिकूल परिस्थितियों में दुःखी होता ही रहेगा। चिन्ता , शोक , भय , उद्वेग आदि उसको कभी छोड़ नहीं सकते और वह भी इनसे कभी छूट नहीं सकता। प्रेत्य भवति कहने का तात्पर्य है कि जो कर्मफल के त्यागी नहीं हैं उनको इष्ट , अनिष्ट और मिश्र – ये तीनों कर्मफल मरने के बाद जरूर मिलते हैं परन्तु इसके साथ ‘न तु संन्यासिनां क्वचित्’ पदों में कहा गया है कि जो कर्मफल के त्यागी हैं उनको कहीं भी अर्थात् यहाँ और मरने के बाद भी कर्मफल नहीं मिलता। इससे सिद्ध होता है कि अत्यागियों को मरने के बाद तो कर्मफल मिलता ही है पर यहाँ जीतेजी भी कर्मफल मिल सकता है। न तु संन्यासिनां क्वचित् – संन्यासियों (त्यागियों) को कहीं भी अर्थात् इस लोक में या परलोक में , इस जन्म में या मरने के बाद भी कर्मफल भोगना नहीं पड़ता। हाँ , पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों के अनुसार इस जन्म में उनके सामने अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति तो आती है पर वे अपने विवेक के बल से उन परिस्थितियों के भोगी नहीं बनते , उनसे सुखी-दुःखी नहीं होते अर्थात् सर्वथा निर्लिप्त रहते हैं। संन्यासियों अर्थात् त्यागियों को फल क्यों नहीं भोगना पड़ता ? कारण कि वे अपने लिये कुछ भी नहीं करते। उनको अच्छी तरह से यह विवेक हो जाता है कि अपना जो सत्स्वरूप है उसके लिये किसी भी क्रिया और वस्तु की आवश्यकता है ही नहीं। अपने लिये पाने की इच्छा से साधक कुछ भी करता है तो वह अपने व्यक्तित्व को ही स्थिर रखता है क्योंकि वह संसारमात्र के हित से अपना हित अलग मानता है। जब वह संसारमात्र के हित से अपना हित अलग नहीं मानता अर्थात् सबके हित में ही अपना हित मानता है तब वह स्वतः ‘सर्वभूतहिते रताः’ हो जाता है। फिर उसके स्थूलशरीर से होने वाली क्रियाएँ , सूक्ष्मशरीर से होने वाला परहित चिन्तन और कारणशरीर से होने वाली स्थिरता – तीनों ही संसार के मात्र प्राणियों के हित के लिये होती हैं। कारण कि शरीर आदि सब की सब सामग्री संसार से अभिन्न है। उस सामग्री से अपना हित चाहता है – यही गलती होती है जो कि अपनी परिच्छिन्नता में हेतु है। यहाँ ‘संन्यासिनाम्’ पद में त्यागी (कर्मयोगी) और संन्यासी (सांख्ययोगी) – दोनों की एकता की गयी है जैसे – कर्मयोगी कर्मों से असङ्ग रहता है तो सांख्ययोगी भी कर्मों से सर्वथा निर्लिप्त रहता है। कर्मयोगी (निष्कामभाव से) कर्म करते हुए भी फल के साथ सम्बन्ध नहीं रखता तो सांख्ययोगी कर्ममात्र के साथ किञ्चित् भी सम्बन्ध नहीं रखता। कर्मयोगी फल से सम्बन्ध-विच्छेद करता है अर्थात् ममता का त्याग करता है तो सांख्ययोगी कर्तृत्वाभिमान अर्थात् अहंता का त्याग करता है। ममता का त्याग होने पर अहंता का भी स्वतः त्याग हो जाता है और अहंता का त्याग होने पर ममता का भी स्वतः त्याग हो जाता है। इसलिये भगवान ने कर्मयोग में ममता के त्याग के बाद अहंता का त्याग बताया है – निर्ममो निरहंकारः (2। 71) और सांख्ययोग में अहंता के त्याग के बाद ममता का त्याग बताया है – अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्। विमुच्य निर्ममः ৷৷. (18। 53)। इन दोनों की इस त्याग करने की प्रक्रिया में तो फरक है परन्तु परिवर्तनशील प्रकृति और प्रकृति का कार्य – इनमें से किसी के भी साथ इन दोनों का सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् तत्त्व में कर्मयोगी और सांख्ययोगी – दोनों एक हो जाते हैं। पहले अर्जुन ने यह पूछा था कि मैं संन्यास और त्याग का तत्त्व जानना चाहता हूँ । अतः भगवान ने यहाँ ‘संन्यासिनाम्’ पद से दोनों का यह तत्त्व बताया कि कर्मयोगी का यह भाव रहता है कि अपना कुछ नहीं है , अपने लिये कुछ नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ नहीं करना है। ऐसे ही सांख्ययोगी का यह भाव रहता है कि अपना कुछ नहीं है और अपने लिये कुछ नहीं चाहिये। सांख्ययोगी प्रकृति और प्रकृति के कार्य के साथ किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध नहीं मानता इसलिये उसके लिये अपने लिये कुछ नहीं करना है – यह कहना ही नहीं बनता। यहाँ ‘त्यागिनाम्’ पद न देकर ‘संन्यासिनाम्’ पद देने का यह तात्पर्य है कि जो निर्लिप्तता सांख्ययोग से होती है वही निर्लिप्तता त्याग से अर्थात् कर्मयोग से भी होती है (गीता 5। 4 — 5)। दूसरी बात – यहाँ तक भगवान ने कर्मयोग से निर्लिप्तता बतायी । अब ‘संन्यासिनाम्’ पद कहकर आगे सांख्ययोग से निर्लिप्तता बताने का बीज भी डाल देते हैं। कर्मसम्बन्धी विशेष बात – पुरुष और प्रकृति – ये दो हैं। इनमें से पुरुष में कभी परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति कभी परिवर्तनरहित नहीं होती। जब यह पुरुष प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तब प्रकृति की क्रिया पुरुष का कर्म बन जाता है क्योंकि प्रकृति के साथ सम्बन्ध मानने से तादात्म्य हो जाता है। तादात्म्य होने से जो प्राकृत वस्तुएँ प्राप्त हैं उनमें ममता होती है और उस ममता के कारण अप्राप्त वस्तुओं की कामना होती है। इस प्रकार जब तक कामना , ममता और तादात्म्य रहता है तब तक जो कुछ परिवर्तनरूप क्रिया होती है उसका नाम कर्म है। तादात्म्य के टूटने पर वही कर्म पुरुष के लिये अकर्म हो जाता है अर्थात् वह कर्म क्रियामात्र रह जाता है उसमें फलजनकता नहीं रहती – यह कर्म में अकर्म है। अकर्म अवस्था में अर्थात् स्वरूप का अनुभव होने पर उस महापुरुष के शरीर से जो क्रिया होती रहती है वह अकर्म में कर्म है (गीता 4। 18)। तात्पर्य यह हुआ कि अपने निर्लिप्त स्वरूप का अनुभव न होने पर भी वास्तव में सब क्रियाएँ प्रकृति और उसके कार्य शरीर में होती हैं परन्तु प्रकृति या शरीर से अपनी पृथक्ता का अनुभव न होने से वे क्रियाएँ कर्म बन जाती हैं (गीता 3। 27 13। 29)। कर्म तीन तरह के होते हैं – क्रियमाण , सञ्चित और प्रारब्ध। अभी वर्तमान में जो कर्म किये जाते हैं वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं (टिप्पणी प0 882.1)। वर्तमान से पहले इस जन्म में किये हुए अथवा पहले के अनेक मनुष्यजन्मों में किये हुए जो कर्म संगृहीत हैं वे सञ्चित कर्म कहलाते हैं। सञ्चित में से जो कर्म फल देने के लिये प्रस्तुत (उन्मुख) हो गये हैं अर्थात् जन्म , आयु और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में परिणत होने के लिये सामने आ गये हैं वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। क्रियमाण कर्म दो तरह के होते हैं – शुभ और अशुभ। जो कर्म शास्त्रानुसार विधि-विधान से किये जाते हैं वे शुभकर्म कहलाते हैं और काम , क्रोध , लोभ , आसक्ति आदि को लेकर जो शास्त्रनिषिद्ध कर्म किये जाते हैं वे अशुभकर्म कहलाते हैं।शुभ अथवा अशुभ प्रत्येक क्रियमाण कर्म का एक तो फलअंश बनता है और एक संस्कारअंश। ये दोनों भिन्न-भिन्न है। क्रियमाण कर्म- फलअंश-संस्कारअंश , दृष्ट-अदृष्ट , तात्कालिक-कालान्तिरक , लौकिक-पारलौकिक , शुद्ध-अशुद्ध क्रियमाण कर्म के फलअंश के दो भेद हैं – दृष्ट और अदृष्ट। इनमें से दृष्ट के भी दो भेद होते हैं – तात्कालिक और कालान्तिरक। जैसे भोजन करते हुए जो रस आता है , सुख होता है , प्रसन्नता होती है और तृप्ति होती है – यह दृष्ट का तात्कालिक फल है और भोजन के परिणाम में आयु , बल , आरोग्य आदि का बढ़ना — यह दृष्ट का कालान्तिरक फल है। ऐसे ही जिसका अधिक मिर्च खाने का स्वभाव है वह जब अधिक मिर्च वाले पदार्थ खाता है तब उसको प्रसन्नता होती है , सुख होता है और मिर्च की तीक्ष्णता के कारण मुँह में , जीभ में जलन होती है , आँखों से और नाक से पानी निकलता है , सिर से पसीना निकलता है – यह दृष्ट का तात्कालिक फल है और कुपथ्य के कारण परिणाम में पेट में जलन और रोग , दुःख आदि का होना – यह दृष्ट का कालान्तिरक फल है। इसी प्रकार अदृष्ट के भी दो भेद होते हैं – लौकिक और पारलौकिक। जीतेजी ही फल मिल जाय — इस भावसे यज्ञ , दान , तप , तीर्थ , व्रत , मन्त्रजप आदि शुभकर्मों को विधि-विधान से किया जाय और उसका कोई प्रबल प्रतिबन्ध न हो तो यहाँ ही पुत्र , धन , यश , प्रतिष्ठा आदि अनुकूल की प्राप्ति होना और रोग , निर्धनता आदि प्रतिकूल की निवृत्ति होना – यह अदृष्ट का लौकिक फल है (टिप्पणी प0 882.2) और मरने के बाद स्वर्ग आदि की प्राप्ति हो जाय – इस भाव से यथार्थ विधि-विधान और श्रद्धाविश्वासपूर्वक जो यज्ञ , दान , तप आदि शुभकर्म किये जाएं तो मरने के बाद स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होना – यह अदृष्ट का पारलौकिक फल है। ऐसे ही डाका डालने , चोरी करने , मनुष्य की हत्या करने आदि अशुभ कर्मों का फल यहाँ ही कैद , जुर्माना , फाँसी आदि होना – यह अदृष्ट का लौकिक फल है और पापों के कारण मरने के बाद नरकों में जाना और पशु-पक्षी , कीट-पतंग आदि बनना – यह अदृष्ट का पारलौकिक फल है। पाप-पुण्य के इस लौकिक और पारलौकिक फल के विषय में एक बात और समझने की है कि जिन पापकर्मों का फल यहीं कैद , जुर्माना , अपमान , निन्दा आदि के रूप में भोग लिया है उन पापों का फल मरने के बाद भोगना नहीं पड़ेगा परन्तु व्यक्ति के पाप कितनी मात्रा के थे और उनका भोग कितनी मात्रा में हुआ अर्थात् उन पापकर्मों का फल उसने पूरा भोगा या अधूरा भोगा – इसका पूरा पता मनुष्य को नहीं लगता क्योंकि मनुष्य के पास इसका कोई मापतौल नहीं है परन्तु भगवान को इसका पूरा पता है। अतः उनके कानून के अनुसार उन पापों का फल यहाँ जितने अंश में कम भोगा गया है उतना इस जन्म में या मरने के बाद भोगना ही पड़ेगा। इसलिये मनुष्य को ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिये कि मेरा पाप तो कम था पर दण्ड अधिक भोगना पड़ा अथवा मैंने पाप तो किया नहीं पर दण्ड मुझे मिल गया । कारण कि यह सर्वज्ञ , सर्वसुहृद् , सर्वसमर्थ भगवान का विधान है कि पाप से अधिक दण्ड कोई नहीं भोगता और जो दण्ड मिलता है वह किसी न किसी पाप का ही फल होता है (टिप्पणी प0 883)। इसी तरह धन-सम्पत्ति , मान , आदर , प्रशंसा , नीरोगता आदि अनुकूल परिस्थिति के रूप में पुण्यकर्मों का जितना फल यहाँ भोग लिया है उतना अंश तो यहाँ नष्ट हो ही गया और जितना बाकी रह गया है वह परलोक में फिर भोगा जा सकता है। यदि पुण्यकर्मों का पूरा फल यहीं भोग लिया गया तो पुण्य यहीं पर समाप्त हो जायँगे। क्रियमाणकर्म के संस्कारअंश के भी दो भेद हैं – शुद्ध एवं पवित्र संस्कार और अशुद्ध एवं अपवित्र संस्कार। शास्त्रविहित कर्म करने से जो संस्कार पड़ते हैं वे शुद्ध एवं पवित्र होते हैं और शास्त्र , नीति , लोकमर्यादा के विरुद्ध कर्म करने से जो संस्कार पड़ते हैं वे अशुद्ध एवं अपवित्र होते हैं। इन दोनों शुद्ध और अशुद्ध संस्कारों को लेकर स्वभाव (प्रकृति , आदत) बनता है। उन संस्कारों में से अशुद्ध अंश का सर्वथा नाश करने पर स्वभाव शुद्ध , निर्मल , पवित्र हो जाता है परन्तु जिन पूर्वकृत कर्मों से स्वभाव बना है उन कर्मों की भिन्नता के कारण जीवन्मुक्त पुरुषों के स्वभावों में भी भिन्नता रहती है। इन विभिन्न स्वभावों के कारण ही उनके द्वारा विभिन्न कर्म होते हैं पर वे कर्म दोषी नहीं होते प्रत्युत सर्वथा शुद्ध होते हैं और उन कर्मों से दुनिया का कल्याण होता है। संस्कारअंश से जो स्वभाव बनता है वह एक दृष्टि से महान प्रबल होता है – स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते । अतः उसे मिटाया नहीं जा सकता (टिप्पणी प0 884)। इसी प्रकार ब्राह्मण , क्षत्रिय आदि वर्णों का जो स्वभाव है उसमें कर्म करने की मुख्यता रहती है। इसलिये भगवान ने अर्जुन से कहा है कि जिस कर्म को तू मोहवश नहीं करना चाहता उसको भी अपने स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा (गीता 18। 60)। अब इसमें विचार करने की एक बात है कि एक ओर तो स्वभाव की महान प्रबलता है कि उसको कोई छोड़ ही नहीं सकता और दूसरी ओर मनुष्यजन्म के उद्योग की महान प्रबलता है कि मनुष्य सब कुछ करने में स्वतन्त्र है। अतः इन दोनों में किसकी विजय होगी और किसकी पराजय होगी? इसमें विजय-पराजय की बात नहीं है। अपनी-अपनी जगह दोनों ही प्रबल हैं परन्तु यहाँ स्वभाव न छोड़ने की जो बात है वह जातिविशेष के स्वभाव की बात है। तात्पर्य है कि जीव जिस वर्ण में जन्मा है , जैसा रजवीर्य था उसके अनुसार बना हुआ जो स्वभाव है उसको कोई बदल नहीं सकता । अतः वह स्वभाव दोषी नहीं है , निर्दोष है। जैसे ब्राह्मण , क्षत्रिय आदि वर्णों का जो स्वभाव है वह स्वभाव नहीं बदल सकता और उसको बदलने की आवश्कयकता भी नहीं है तथा उसको बदलने के लिये शास्त्र भी नहीं कहता परन्तु उस स्वभाव में जो अशुद्धअंश (राग-द्वेष) है उसको मिटाने की सामर्थ्य भगवान ने मनुष्य को दी है। अतः जिन दोषों से मनुष्य का स्वभाव अशुद्ध बना है उन दोषों को मिटाकर मनुष्य स्वतन्त्रतापूर्वक अपने स्वभाव को शुद्ध बना सकता है। मनुष्य चाहे तो कर्मयोग की दृष्टि से अपने प्रयत्न से राग-द्वेष को मिटाकर स्वभाव शुद्ध बना ले (गीता 3। 34) , चाहे भक्तियोग की दृष्टि से सर्वथा भगवान के शरण होकर अपना स्वभाव शुद्ध बना ले (गीता 18। 62)। इस प्रकार प्रकृति (स्वभाव) की प्रबलता भी सिद्ध हो गयी और मनुष्य की स्वतन्त्रता भी सिद्ध हो गयी। तात्पर्य यह हुआ कि शुद्ध स्वभाव को रखने में प्रकृति की प्रबलता है और अशुद्ध स्वभाव को मिटाने में मनुष्य की स्वतन्त्रता है। जैसे लोहे की तलवार को पारस छुआ दिया जाय तो तलवार सोना बन जाती है परन्तु उसकी मार , धार और आकार – ये तीनों नहीं बदलते। इस प्रकार सोना बनाने में पारस की प्रधानता रही और मार-धार-आकार में तलवार की प्रधानता रही। ऐसे ही जिन लोगों ने अपने स्वभाव को परम शुद्ध बना लिया है उनके कर्म भी सर्वथा शुद्ध होते हैं परन्तु स्वभाव के शुद्ध होने पर भी वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय , साधनपद्धति , मान्यता आदि के अनुसार आपस में उनके कर्मों की भिन्नता रहती है। जैसे किसी ब्राह्मण को तत्त्वबोध हो जाने पर भी वह खान-पान आदि में पवित्रता रखेगा और अपने हाथ से बनाया हुआ भोजन ही ग्रहण करेगा क्योंकि उसके स्वभाव में पवित्रता है परन्तु किसी हरिजन आदि साधारण वर्णवाले को तत्त्वबोध हो जाय तो वह खानपान आदि में पवित्रता नहीं रखेगा और दूसरों की जूठन भी खा लेगा क्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा पड़ा हुआ है। पर ऐसा स्वभाव उसके लिये दोषी नहीं होगा। जीव का असत् के साथ सम्बन्ध जोड़ने का स्वभाव अनादिकाल से बना हुआ है जिसके कारण वह जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा हुआ है और बार-बार ऊँच-नीच योनियों में जाता है। उस स्वभाव को मनुष्य शुद्ध कर सकता है अर्थात् उसमें जो कामना , ममता और तादात्म्य हैं उनको मिटा सकता है। कामना , ममता और तादात्म्य के मिटने के बाद जो स्वभाव रहता है वह स्वभाव दोषी नहीं रहता। इसलिये उस स्वभाव को मिटाना नहीं है और मिटाने की आवश्यकता भी नहीं है। जब मनुष्य अहंकार का आश्रय छोड़ कर सर्वथा भगवान के शरण हो जाता है तब उसका स्वभाव शुद्ध हो जाता है जैसे – लोहा पारस के स्पर्श से शुद्ध सोना बन जाता है। स्वभाव शुद्ध होने से फिर वह स्वभावज कर्म करते हुए भी दोषी और पापी नहीं बनता (गीता 18। 47)। सर्वथा भगवान के शरण होने के बाद भक्त का प्रकृति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। फिर भक्त के जीवन में भगवान का स्वभाव काम करता है। भगवान समस्त प्राणियों के सुहृद् हैं – सुहृदं सर्वभूतानाम् (गीता 5। 29) तो भक्त भी समस्त प्राणियों का सुहृद् हो जाता है – सुहृदः सर्वदेहिनाम् (श्रीमद्भा0 3। 25। 21)। इसी तरह कर्मयोग की दृष्टि से जब मनुष्य राग-द्वेष को मिटा देता है तब उसके स्वभाव की शुद्धि हो जाती है जिससे अपने स्वार्थ का भाव मिटकर केवल दुनिया के हित का भाव स्वतः हो जाता है। जैसे भगवान का स्वभाव प्राणिमात्र का हित करने का है ऐसे ही उसका स्वभाव भी प्राणिमात्र का हित करने का हो जाता है। जब उसकी सब चेष्टाएँ प्राणिमात्र के हित में हो जाती हैं तब उसकी भगवान की सर्वभूतसुहृत्ताशक्ति के साथ एकता हो जाती है। उसके उस स्वभाव में भगवान की सुहृत्ताशक्ति कार्य करने लगती है। वास्तव में भगवान की यह सर्वभूतसुहृत्ताशक्ति मनुष्यमात्र के लिये समान रीति से खुली हुई है परन्तु अपने अहंकार और राग-द्वेष के कारण उस शक्ति में बाधा लग जाती है अर्थात् वह शक्ति कार्य नहीं करती। महापुरुषों में अहंकार (व्यक्तित्व) और राग-द्वेष नहीं रहते इसलिये उनमें यह शक्ति कार्य करने लग जाती है। सञ्चित कर्म – फलअंश , संस्कारअंश , प्रारब्ध , स्फुरणा अनेक मनुष्यजन्मों में किये हुए जो कर्म (फलअंश और संस्कारअंश) अन्तःकरण में संगृहीत रहते हैं वे सञ्चित कर्म कहलाते हैं। उनमें फलअंश से तो प्रारब्ध बनता है और संस्कारअंश से स्फुरणा होती रहती है। उन स्फुरणाओं में भी वर्तमान में किये गये जो नये क्रियमाण कर्म सञ्चित में भरती हुए हैं प्रायः उनकी ही स्फुरणा होती है। कभी-कभी सञ्चित में भरती हुए पुराने कर्मों की स्फुरणा भी हो जाती है (टिप्पणी प0 885) जैसे किसी बर्तन में पहले प्याज डाल दें और उसके ऊपर क्रमशः गेहूँ , चना , ज्वार , बाजरा , डाल दें तो निकालते समय जो सबसे पीछे डाला था वही (बाजरा) सबसे पहले निकलेगा पर बीच में कभी-कभी प्याज का भी भभका आ जायेगा परन्तु यह दृष्टान्त पूरा नहीं घटता क्योंकि प्याज , गेहूँ आदि सावयव पदार्थ हैं और सञ्चित कर्म निरवयव हैं। यह दृष्टान्त केवल इतने ही अंश में बताने के लिये दिया है कि नये क्रियमाण कर्मों की स्फुरणा ज्यादा होती है और कभी-कभी पुराने कर्मों की भी स्फुरणा होती है। इसी तरह जब नींद आती है तो उसमें भी स्फुरणा होती है। नींद में जाग्रत्अवस्था के दब जाने के कारण सञ्चित की वह स्फुरणा स्वप्न रूप से दिखने लग जाती है उसी को स्वप्नावस्था कहते हैं (टिप्पणी प0 886)। स्वप्नावस्था में बुद्धि की सावधानी न रहने के कारण क्रम , व्यतिक्रम और अनुक्रम ये नहीं रहते। जैसे शहर तो दिल्ली का दिखता है और बाजार बम्बई का तथा उस बाजार में दूकानें कलकत्ता की दिखती हैं , कोई जीवित आदमी दिख जाता है अथवा किसी मरे हुए आदमी से मिलना हो जाता है , बातचीत हो जाती है आदि आदि। जाग्रत्अवस्था में हरेक मनुष्य के मन में अनेक तरह की स्फुरणाएँ होती रहती हैं। जब जाग्रत्अवस्था में शरीर , इन्द्रियाँ और मन पर से बुद्धि का अधिकार हट जाता है तब मनुष्य जैसा मन में आता है वैसा बोलने लगता है। इस तरह उचित-अनुचित का विचार करने की शक्ति काम न करने से वह सीधा-सरल पागल कहलाता है परन्तु जिसके शरीर , इन्द्रियाँ और मन पर बुद्धि का अधिकार रहता है वह जो उचित समझता है वही बोलता है और जो अनुचित समझता है वह नहीं बोलता। बुद्धि सावधान रहने से वह सावचेत रहता है इसलिये वह चतुर पागल है । इस प्रकार मनुष्य जब तक परमात्मप्राप्ति नहीं कर लेता तब तक वह अपने को स्फुरणाओं से बचा नहीं सकता। परमात्मप्राप्ति होने पर बुरी स्फुरणाएँ सर्वथा मिट जाती हैं। इसलिये जीवन्मुक्त महापुरुष के मन में अपवित्र पुरे विचार कभी आते ही नहीं। अगर उसके कहलाने वाले शरीर में प्रारब्धवश (व्याधि आदि किसी कारणवश) कभी बेहोशी , उन्माद आदि हो जाता है तो उसमें भी वह न तो शास्त्रनिषिद्ध बोलता है और न शास्त्रनिषिद्ध कुछ करता ही है क्योंकि अन्तःकरण शुद्ध हो जाने से शास्त्रनिषिद्ध बोलना या करना उसके स्वभाव में नहीं रहता। प्रारब्ध कर्म – प्रारब्ध कर्म अनुकूल परिस्थिति , मिश्रित (अनुकूल-प्रतिकूल) परिस्थिति , प्रतिकूल परिस्थिति , स्वेच्छापूर्वक क्रिया (प्रवृत्ति) , अनिच्छापूर्वक क्रिया , परेच्छापूर्वक क्रिया , स्वेच्छापूर्वक क्रिया सञ्चित में से जो कर्म फल देने के लिये सम्मुख होते हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते हैं (टिप्पणी प0 887)। प्रारब्ध कर्मों का फल तो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में सामने आता है परन्तु उन प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिये प्राणियों की प्रवृत्ति तीन प्रकार से होती है – (1) स्वेच्छापूर्वक (2) अनिच्छा (दैवेच्छा) पूर्वक और (3) परेच्छापूर्वक। उदाहरणार्थ -(1) किसी व्यापारी ने माल खरीदा तो उसमें मुनाफा हो गया। ऐसे ही किसी दूसरे व्यापारी ने माल खरीदा तो उसमें घाटा लग गया। इन दोनों में मुनाफा होना और घाटा लगना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं परन्तु माल खरीदने में उनकी प्रवृत्ति स्वेच्छापूर्वक हुई है। (2) कोई सज्जन कहीं जा रहा था तो आगे आने वाली नदी में बाढ़ के प्रवाह के कारण एक धन का टोकरा बहकर आया और उस सज्जन ने उसे निकाल लिया। ऐसे ही कोई सज्जन कहीं जा रहा था तो उस पर वृक्ष की एक टहनी गिर पड़ी और उसको चोट लग गयी। इन दोनों में धन का मिलना और चोट लगना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं परन्तु धन का टोकरा मिलना और वृक्ष की टहनी गिरना – यह प्रवृत्ति अनिच्छा (दैवेच्छा) पूर्वक हुई है। (3) किसी धनी व्यक्ति ने किसी बच्चे को गोद ले लिया अर्थात् उसको पुत्ररूप में स्वीकार कर लिया जिससे उसका सब धन उस बच्चे को मिल गया। ऐसे ही चोरों ने किसी का सब धन लूट लिया। इन दोनों में बच्चे को धन मिलना और चोरी में धन का चला जाना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं परन्तु गोद में जाना और चोरी होना – यह प्रवृत्ति परेच्छापूर्वक हुई है। यहाँ एक बात और समझ लेनी चाहिये कि कर्मों का फल कर्म नहीं होता प्रत्युत परिस्थिति होती है अर्थात् प्रारब्ध कर्मों का फल परिस्थितिरूप से सामने आता है। अगर नये (क्रियमाण) कर्म को प्रारब्ध का फल मान लिया जाय तो फिर ऐसा करो , ऐसा मत करो – यह शास्त्रों का , गुरुजनों का विधिनिषेध निरर्थक हो जायगा। दूसरी बात – पहले जैसे कर्म किये थे उन्हीं के अनुसार जन्म होगा और उन्हीं के अनुसार कर्म होंगे तो वे कर्म फिर आगे नये कर्म पैदा कर देंगे जिससे यह कर्मपरम्परा चलती ही रहेगी अर्थात् इसका कभी अन्त ही नहीं जायेगा। प्रारब्ध कर्म से मिलने वाले फल के दो भेद हैं – प्राप्त फल और अप्राप्त फल। अभी प्राणियों के सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आ रही है वह प्राप्त फल है और इसी जन्म में जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य में आने वाली है वह अप्राप्त फल है। क्रियमाण कर्मों का जो फलअंश सञ्चित में जमा रहता है वही प्रारब्ध बनकर अनुकूल , प्रतिकूल और मिश्रित परिस्थिति के रूप में मनुष्य के सामने आता है। अतः जब तक सञ्चित कर्म रहते हैं तब तक प्रारब्ध बनता ही रहता है और प्रारब्ध परिस्थिति के रूप में परिणत होता ही रहता है। यह परिस्थिति मनुष्य को सुखी-दुःखी होने के लिये बाध्य नहीं करती। सुखी-दुःखी होने में तो परिवर्तनशील परिस्थिति के साथ सम्बन्ध जो़ड़ना ही मुख्य कारण है। परिस्थिति के साथ सम्बन्ध जोड़ने अथवा न जोड़ने में यह मनुष्य सर्वथा स्वाधीन है , पराधीन नहीं है। जो परिवर्तनशील परिस्थिति के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है वह अविवेकी पुरुष तो सुखी-दुःखी होता ही रहता है परन्तु जो परिस्थिति के साथ सम्बन्ध नहीं मानता वह विवेकी पुरुष कभी सुखी-दुःखी नहीं होता अतः उसकी स्थिति स्वतः साम्यावस्था में होती है जो कि उसका स्वरूप है। कर्मों में मनुष्य के प्रारब्ध की प्रधानता है या पुरुषार्थ की अथवा प्रारब्ध बलवान है या पुरुषार्थ – इस विषय में बहुत सी शङ्काएँ हुआ करती हैं। उनके समाधान के लिये पहले यह समझ लेना जरूरी है कि प्रारब्ध और पुरुषार्थ क्या है ? मनुष्य में चार तरह की चाहना हुआ करती है – एक धन की , दूसरी धर्म की , तीसरी भोग की और चौथी मुक्ति की। प्रचलित भाषा में इन्हीं चारों को अर्थ , धर्म , काम और मोक्ष के नाम से कहा जाता है (1) अर्थ – धन को अर्थ कहते हैं। वह धन दो तरह का होता है – स्थावर और जङ्गम। सोना , चाँदी , रुपये , जमीन , जायदाद , मकान आदि स्थावर हैं और गाय , भैंस , घोड़ा , ऊँट , भेड़ , बकरी आदि जङ्गम हैं। (2) धर्म – सकाम अथवा निष्कामभाव से जो यज्ञ , तप , दान , व्रत , तीर्थ आदि किये जाते हैं उसको धर्म कहते हैं। (3) काम – सांसारिक सुखभोग को काम कहते हैं। वह सुखभोग आठ तरह का होता है – शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गन्ध , मान , बड़ाई और आराम। (क) शब्द – शब्द दो तरह का होता है – वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। व्याकरण , कोश , साहित्य , उपन्यास , गल्प , कहानी आदि वर्णात्मक शब्द हैं (टिप्पणी प0 888.1)। खाल , तार और फूँक के तीन बाजे और ताल का आधा बाजा – ये साढ़े तीन प्रकार के बाजे ध्वन्यात्मक शब्द को प्रकट करने वाले हैं (टिप्पणी प0 888.2)। इन वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक शब्दों को सुनने से जो सुख मिलता है वह शब्द का सुख है।(ख) स्पर्श – स्त्री , पुत्र , मित्र आदि के साथ मिलने से तथा ठण्डा , गरम , कोमल आदि से अर्थात् उनका त्वचा के साथ संयोग होने से जो सुख होता है वह स्पर्श का सुख है। (ग) रूप – नेत्रों से खेल , तमाशा , सिनेमा , बाजीगरी , वन , पहाड़ , सरोवर , मकान आदि की सुन्दरता को देखकर जो सुख होता है वह रूप का सुख है। (घ) रस – मधुर (मीठा) , अम्ल (खट्टा) , लवण (नमकीन) , कटु (कड़वा) , तिक्त (तीखा) और कषाय (कसैला) – इन छः रसों को चखने से जो सुख होता है वह रस का सुख है। (ङ) गन्ध – नाक से अतर , तेल , फुलेल , लवेण्डर , पुष्प आदि सुगन्ध वाले और लहसुन , प्याज आदि दुर्गन्ध वाले पदार्थों को सूघँने से जो सुख होता है वह गन्ध का सुख है। (च) मान – शरीर का आदर-सत्कार होने से जो सुख होता है वह मान का सुख है। (छ) बड़ाई – नाम की प्रशंसा , वाह-वाह होने से जो सुख होता है वह बड़ाई का सुख है। (ज) आराम – शरीर से परिश्रम न करने से अर्थात् निकम्मे पड़े रहने से जो सुख होता है वह आराम का सुख है। (4) मोक्ष – आत्मसाक्षात्कार , तत्त्वज्ञान , कल्याण , उद्धार , मुक्ति , भगवद्दर्शन , भगवत्प्रेम आदि का नाम मोक्ष है। इन चारों (अर्थ , धर्म , काम और मोक्ष) में देखा जाये तो अर्थ और धर्म – दोनों ही परस्पर एक-दूसरे की वृद्धि करने वाले हैं अर्थात् अर्थ से धर्म की और धर्म से अर्थ की वृद्धि होती है परन्तु धर्म का पालन कामनापूर्ति के लिये किया जाय तो वह धर्म भी कामनापूर्ति करके नष्ट हो जाता है और अर्थ को कामनापूर्ति में लगाया जाय तो वह अर्थ भी कामनापूर्ति करके नष्ट हो जाता है। तात्पर्य है कि कामना धर्म और अर्थ – दोनों को खा जाती है। इसीलिये गीता में भगवान ने कामना को महाशन (बहुत खाने वाला) बताते हुए उसके त्याग की बात विशेषता से कही है (3। 37 — 43)। यदि धर्म का अनुष्ठान कामना का त्याग करके किया जाय तो वह अन्तःकरण शुद्ध करके मुक्त कर देता है। ऐसे ही धन को कामना का त्याग करके दूसरों के उपकार में , हित में , सुख में खर्च किया जाय तो वह भी अन्तःकरण शुद्ध करके मुक्त कर देता है।अर्थ , धर्म , काम और मोक्ष – इन चारों में अर्थ (धन) और काम (भोग) की प्राप्ति में प्रारब्ध की मुख्यता और पुरुषार्थ की गौणता है तथा धर्म और मोक्ष में पुरुषार्थ की मुख्यता और प्रारब्ध की गौणता है। प्रारब्ध और पुरुषार्थ – दोनोंका क्षेत्र अलग-अलग है और दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में प्रधान हैं। इसलिये कहा है – संतोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने। त्रिषु चैव न कर्तव्यः स्वध्याये जपदानयोः।। अर्थात् अपनी स्त्री , पुत्र , परिवार , भोजन और धनमें तो सन्तोष करना चाहिये और स्वाध्याय , पाठपूजा , नामजप , कीर्तन और दान करने में कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये। तात्पर्य यह हुआ कि प्रारब्ध के फल – धन और भोग में तो सन्तोष करना चाहिये क्योंकि वे प्रारब्ध के अनुसार जितने मिलने वाले हैं उतने ही मिलेंगे उससे अधिक नहीं परन्तु धर्म का अनुष्ठान और अपना कल्याण करने में कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये क्योंकि यह नया पुरुषार्थ है और इसी पुरुषार्थ के लिये मनुष्यशरीर मिला है। कर्म के दो भेद हैं – शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप)। शुभकर्म का फल अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होना है और अशुभकर्म का फल प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होना है। कर्म बाहर से किये जाते हैं इसलिये उन कर्मों का फल भी बाहर की परिस्थिति के रूप में ही प्राप्त होता है परन्तु उन परिस्थितियों से जो सुख-दुःख होते हैं वे भीतर होते हैं। इसलिये उन परिस्थितियों में सुखी तथा दुःखी होना शुभाशुभकर्मों का अर्थात् प्रारब्ध का फल नहीं है प्रत्युत अपनी मूर्खता का फल है। अगर वह मूर्खता चली जाय , भगवान पर (टिप्पणी प0 889.1) अथवा प्रारब्ध पर (टिप्पणी प0 889.2) विश्वास हो जाय तो प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति आने पर भी चित्त में प्रसन्नता होगी , हर्ष होगा। कारण कि प्रतिकूल परिस्थिति में पाप कटते हैं , आगे पाप न करने में सावधानी आती है और पापों के नष्ट होने से अन्तःकरण की शुद्ध होती है। साधक को अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति का सदुपयोग करना चाहिये , दुरुपयोग नहीं। अनुकूल परिस्थिति आ जाय तो अनुकूल सामग्री को दूसरों के हित के लिये सेवाबुद्धि से खर्च करना अनुकूल परिस्थिति का सदुपयोग है और उसका सुखबुद्धि से भोग करना दुरुपयोग है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सुख की इच्छा का त्याग करना और मेरे पूर्वकृत पापों का नाश करने के लिये , भविष्यमें पाप न करने की सावधानी रखने के लिये और मेरी उन्नति करने के लिये ही प्रभुकृपा से ऐसी परिस्थिति आयी है – ऐसा समझकर परम प्रसन्न रहना प्रतिकूल परिस्थिति का सदुपयोग है और उससे दुःखी होना दुरुपयोग है। मनुष्यशरीर सुख-दुःख भोगने के लिये नहीं है। सुख भोगने के स्थान स्वर्गादिक हैं और दुःख भोगने के स्थान नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ हैं। इसलिये वे भोगयोनियाँ हैं और मनुष्य कर्मयोनि है। परन्तु यह कर्मयोनि उनके लिये है जो मनुष्यशरीर में सावधान नहीं होते केवल जन्ममरण के सामान्य प्रवाह में ही पड़े हुए हैं। वास्तव में मनुष्यशरीर सुख-दुःख से ऊँचा उठने के लिये अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति के लिये ही मिला है। इसलिये इसको कर्मयोनि न कहकर साधनयोनि ही कहना चाहिये। प्रारब्धकर्मों के फलस्वरूप जो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आती है उन दोनों में अनुकूल परिस्थिति का स्वरूप से त्याग करने में तो मनुष्य स्वतन्त्र है पर प्रतिकूल परिस्थिति का स्वरूप से त्याग करने में मनुष्य परतन्त्र है अर्थात् उसका स्वरूप से त्याग नहीं किया जा सकता। कारण यह है कि अनुकूल परिस्थिति दूसरों का हित करने , उन्हें सुख देने के फलस्वरूप बनी है और प्रतिकूल परिस्थिति दूसरों को दुःख देने के फलस्वरूप बनी है। इसको एक दृष्टान्त से इस प्रकार समझ सकते हैं – श्यामलाल ने रामलाल को सौ रुपये उधार दिये। रामलाल ने वायदा किया कि अमुक महीने मैं ब्याजसहित रुपये लौटा दूँगा। महीना बीत गया पर रामलाल ने रुपये नहीं लौटाये तो श्यामलाल रामलाल के घर पहुँचा और बोला – तुमने वायदे के अनुसार रुपये नहीं दिये अब दो। रामलाल ने कहा – अभी मेरे पास रुपये नहीं हैं परसों दे दूँगा। श्यामलाल तीसरे दिन पहुँचा और बोला – लाओ मेरे रुपये तो रामलाल ने कहा – अभी मैं आपके पैसे नहीं जुटा सका परसों आपके रुपये जरूर दूँगा। तीसरे दिन फिर श्यामलाल पहुँचा और बोला – रुपये दो तो रामलाल ने कहा – कल जरूर दूँगा। दूसरे दिन श्यामलाल फिर पहुँचा और बोला – लाओ मेरे रुपये । रामलाल ने कहा – रुपये जुटे नहीं , मेरे पास रुपये हैं नहीं तो मैं कहाँ से दूँ परसों आना। रामलाल की बातें सुनकर श्यामलाल को गुस्सा आ गया और परसों-परसों करता है , रुपये देता नहीं – ऐसा कहकर उसने रामलाल को पाँच जूते मार दिये। रामलाल ने कोर्ट में नालिश (शिकायत) कर दी। श्यामलाल को बुलाया गया और पूछा गया – तुमने इसके घर पर जाकर जूता मारा है तो श्यामलाल ने कहा – हाँ साहब , मैंने जूता मारा है। मैजिस्ट्रेट ने पूछा – क्यों मारा ? श्यामलाल ने कहा – इसको मैंने रुपये दिये थे और इसने वायदा किया था कि मैं इस महीने रुपये लौटा दूँगा। महीना बीत जाने पर मैंने इसके घर पर जाकर रुपये माँगे तो कल-परसों , कल-परसों कहकर इसने मुझे बहुत तंग किया। इस पर मैंने गुस्से में आकर इसे पाँच जूते मार दिये। तो सरकार पाँच जूतों के पाँच रुपये काटकर शेष रुपये मुझे दिला दीजिये। मैजिस्ट्रेट ने हँसकर कहा – यह फौजदारी कोर्ट है। यहाँ रुपये दिलाने का कायदा (नियम) नहीं है। यहाँ दण्ड देने का कायदा है। इसलिये आपको जूता मारने के बदले में कैद या जुर्माना भोगना ही पड़ेगा। आपको रुपये लेने हों तो दीवानी कोर्ट में जाकर नालिश करो , वहाँ रुपये दिलाने का कायदा है क्योंकि वह विभाग अलग है। इस तरह अशुभकर्मों का फल जो प्रतिकूल परिस्थिति है वह फौजदारी है । इसलिये उसका स्वरूप से त्याग नहीं कर सकते और शुभकर्मों का फल जो अनुकूल परिस्थिति है वह दीवानी है । इसलिये उसका स्वरूप से त्याग किया जा सकता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्य के शुभ-अशुभ कर्मों का विभाग अलग-अलग है। इसलिये शुभकर्मों (पुण्यों) और अशुभकर्मों (पापों) का अलग-अलग संग्रह होता है। स्वभाविकरूप से ये दोनों एक-दूसरे से कटते नहीं अर्थात् पापों से पुण्य नहीं कटते और पुण्यों से पाप नहीं कटते। हाँ , अगर मनुष्य पाप काटने के उद्देश्य से (प्रायश्चित्तरूप से) शुभकर्म करता है तो उसके पाप कट सकते हैं। संसार में एक आदमी पुण्यात्मा है , सदाचारी है और दुःख पा रहा है तथा एक आदमी पापात्मा है , दुराचारी है और सुख भोग रहा है – इस बात को लेकर अच्छे-अच्छे पुरुषों के भीतर भी यह शङ्का हो जाया करती है कि इसमें ईश्वर का न्याय कहाँ है ? (टिप्पणी प0 890)। इसका समाधान यह है कि अभी पुण्यात्मा जो दुःख पा रहा है यह पूर्व के किसी जन्म में किये हुए पाप का फल है , अभी किये हुए पुण्य का नहीं। ऐसे ही अभी पापात्मा जो सुख भोग रहा है यह भी पूर्व के किसी जन्म में किये हुए पुण्य का फल है अभी किये हुए पाप का नहीं। इसमें एक तात्त्विक बात और है। कर्मों के फलरूप में जो अनुकूल परिस्थिति आती है उससे सुख ही होता है और प्रतिकूल परिस्थिति आती है उससे दुःख ही होता है – ऐसी बात है नहीं। जैसे अनुकूल परिस्थिति आने पर मन में अभिमान होता है , छोटों से घृणा होती है , अपने से अधिक सम्पत्तिवालों को देखकर उनसे ईर्ष्या होती है , असहिष्णुता होती है , अन्तःकरण में जलन होती है और मन में ऐसे दुर्भाव आते हैं कि उनकी सम्पत्ति कैसे नष्ट हो तथा वक्त पर उनको नीचा दिखाने की चेष्टा भी होती है। इस तरह सुख-सामग्री और धन-सम्पत्ति पास में रहने पर भी वह सुखी नहीं हो सकता परन्तु बाहरी सामग्री को देखकर अन्य लोगों को यह भ्रम होता है कि वह बड़ा सुखी है। ऐसे ही किसी विरक्त और त्यागी मनुष्य को देखकर भोगसामग्री वाले मनुष्य को उस पर दया आती है कि बेचारे के पास धन-सम्पत्ति आदि सामग्री नहीं है , बेचारा बड़ा दुःखी है परन्तु वास्तव में विरक्त के मन में बड़ी शान्ति और बड़ी प्रसन्नता रहती है। वह शान्ति और प्रसन्नता धन के कारण किसी धनी में नहीं रह सकती। इसलिये धन का होनामात्र सुख नहीं है और धन का अभावमात्र दुःख नहीं है। सुख नाम हृदय की शान्ति और प्रसन्नता का है और दुःख नाम हृदय की जलन और सन्ताप का है। पुण्य और पाप का फल भोगने में एक नियम नहीं है। पुण्य तो निष्कामभाव से भगवान के अर्पण करने से समाप्त हो सकता है परन्तु पाप भगवान के अर्पण करने से समाप्त नहीं होता। पाप का फल तो भोगना ही पड़ता है क्योंकि भगवान की आज्ञा के विरुद्ध किये हुए कर्म भगवान के अर्पण कैसे हो सकते हैं और अर्पण करने वाला भी भगवान के विरुद्ध कर्मों को भगवान के अर्पण कैसे कर सकता है ? बल्कि भगवान की आज्ञा के अनुसार किये हुए कर्म ही भगवान के अर्पण होते हैं। इस विषय में एक कहानी आती है। एक राजा अपनी प्रजासहित हरिद्वार गया। उसके साथ में सब तरह के लोग थे। उनमें एक चमार भी था। उस चमार ने सोचा कि ये बनिये लोग बड़े चतुर होते हैं। ये अपनी बुद्धिमानी से धनी बन गये हैं। अगर हम भी उनकी बुद्धिमानी के अनुसार चलें तो हम भी धनी बन जाएं । ऐसा विचार करके वह एक चतुर बनिये की क्रियाओं पर निगरानी रखकर चलने लगा। जब हरिद्वार के ब्रह्मकुण्ड में पण्डा दान-पुण्य का संकल्प कराने लगा तब उस बनिये ने कहा – मैंने अमुक ब्राह्मण को सौ रुपये उधार दिये थे। आज मैं उनको दानरूप में श्रीकृष्णार्पण करता हूँ । पण्डे ने संकल्प भरवा दिया। चमार ने देखा कि इसने एक कौड़ी भी नहीं दी और लोगों में प्रसिद्ध हो गया कि इसने सौ रुपयों का दान कर दिया। कितना बुद्धिमान है मैं भी इससे कम नहीं रहूँगा। जब पण्डे ने चमार से संकल्प भरवाना शुरू किया तब चमार ने कहा – अमुक बनिये ने मुझै सौ रुपये उधार दिये थे तो उन सौ रुपयोंको मैं श्रीकृष्णार्पण करता हूँ। उसकी ग्रामीण बोली को पण्डा पूरी तरह समझा नहीं और संकल्प भरवा दिया। इससे चमार बड़ा खुश हो गया कि मैंने भी बनिये के समान सौ रुपयों का दान-पुण्य कर दिया । सब घर पहुँचे। समय पर खेती हुई। ब्राह्मण और चमार के खेतों में खूब अनाज पैदा हुआ। ब्राह्मण देवता ने बनिये से कहा – सेठ आप चाहें तो सौ रुपयों का अनाज ले लो इससे आपको नफा भी हो सकता है। मुझे तो आपका कर्जा चुकाना है। बनिये ने कहा – ब्राह्मण देवता जब मैं हरिद्वार गया था तब मैंने आपको उधार दिये हुए सौ रुपये दान कर दिये। ब्राह्मण बोला – सेठ मैंने आपसे सौ रुपये उधार लिये हैं , दान नहीं लिये। इसलिये इन रुपयों को मैं रखना नहीं चाहता , ब्याजसहित पूरा चुकाना चाहता हूँ। सेठ ने कहा – आप देना ही चाहते हैं तो अपनी बहन अथवा कन्या को दे सकते हैं। मैंने सौ रुपये भगवान के अर्पण कर दिये हैं इसलिये मैं तू लूँगा नहीं। अब ब्राह्मण और क्या करता वह अपने घर लौट गया। अब जिस बनिये से चमार ने सौ रुपये लिये थे वह बनिया चमार के खेत में पहुँचा और बोला – लाओ मेरे रुपये। तुम्हारा अनाज हुआ है , सौ रुपयों का अनाज ही दे दो। चमार ने सुन रखा था कि ब्राह्मण के देने पर भी बनिये ने उससे रुपये नहीं लिये। अतः उसने सोचा कि मैंने भी संकल्प कर रखा है तो मेरे को रुपये क्यों देने पड़ेंगे ? ऐसा सोचकर चमार बनिये से बोला – मैंने तो अमुक सेठ की तरह गङ्गाजी में खड़े होकर सब रुपये श्रीकृष्णार्पण कर दिये तो मेरे को रुपये क्यों देने पड़ेंगे ? बनिया बोला – तेरे अर्पण कर देने से कर्जा नहीं छूट सकता क्योंकि तूने मेरे से कर्जा लिया है तो तेरे छोड़ने से कैसे छूट जायगा ? मैं तो अपने सौ रुपये ब्याजसहित पूरे लूँगा । लाओ मेरे रुपये। ऐसा कहकर उसने चमार से अपने रुपयों का अनाज ले लिया। इस कहानी से यह सिद्ध होता है कि हमारे पर दूसरों का जो कर्जा है वह हमारे छोड़ने से नहीं छूट सकता। ऐसे ही हम भगवदाज्ञानुसार शुभकर्मों को तो भगवान के अर्पण करके उनके बन्धन से छूट सकते हैं पर अशुभकर्मों का फल तो हमारे को भोगना ही पड़ेगा। इसलिये शुभ और अशुभकर्मों में एक कायदा – कानून नहीं है। अगर ऐसा नियम बन जाय कि भगवान के अर्पण करने से ऋण और पापकर्म छूट जाएं तो फिर सभी प्राणी मुक्त हो जाएं परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है। हाँ , इसमें एक मार्मिक बात है कि अपने आपको सर्वथा भगवान के अर्पित कर देने पर अर्थात् सर्वथा भगवान के शरण हो जाने पर पाप-पुण्य सर्वथा नष्ट हो जाते हैं (गीता 18। 66)। दूसरी शङ्का यह होती है कि धन और भोगों की प्राप्ति प्रारब्ध कर्म के अनुसार होती है – ऐसी बात समझ में नहीं आती क्योंकि हम देखते हैं कि इन्कम टैक्स , सेल्स टैक्स आदि की चोरी करते हैं तो धन बच जाता है और टैक्स पूरा देते हैं तो धन चला जाता है तो धन का आना-जाना प्रारब्ध के अधीन कहाँ हुआ ? यह तो चोरी के ही अधीन हुआ । इसका समाधान इस प्रकार है। वास्तव में धन प्राप्त करना और भोग भोगना – इन दोनों में ही प्रारब्ध की प्रधानता है परन्तु इन दोनों में भी किसी का धनप्राप्ति का प्रारब्ध होता है , भोगका नहीं और किसी का भोग का प्रारब्ध होता है , धनप्राप्तिका नहीं तथा किसी का धन और भोग दोनों का ही प्रारब्ध होता है। जिसका धनप्राप्ति का प्रारब्ध तो है पर भोग का प्रारब्ध नहीं है उसके पास लाखों रुपये रहने पर भी बीमारी के कारण वैद्य , डॉक्टर के मना करने पर वह भोगों को भोग नहीं सकता । उसके खाने में रूखा-सूखा ही मिलता है। जिसका भोग का प्रारब्ध तो है पर धन का प्रारब्ध नहीं है उसके पास धन का अभाव होने पर भी उसके सुख-आराम में किसी तरह की कमी नहीं रहती (टिप्पणी प0 891)। उसको किसी की दया से , मित्रता से काम-धंधा मिल जाने से प्रारब्ध के अनुसार जीवननिर्वाह की सामग्री मिलती रहती है। अगर धन का प्रारब्ध नहीं है तो चोरी करने पर भी धन नहीं मिलेगा प्रत्युत चोरी किसी प्रकार से प्रकट हो जायगी तो बचा हुआ धन भी चला जायगा तथा दण्ड और मिलेगा। यहाँ दण्ड मिले या न मिले पर परलोक में तो दण्ड जरूर मिलेगा। उससे वह बच नहीं सकेगा। अगर प्रारब्धवश चोरी करने से धन मिल भी जाय तो भी उस धन का उपभोग नहीं हो सकेगा। वह धन बीमारी में , चोरी में , डाके में , मुकदमे में , ठगाई में चला जायगा। तात्पर्य यह है कि वह धन जितने दिन टिकने वाला है उतने ही दिन टिकेगा और फिर नष्ट हो जायगा। इतना ही नहीं इन्कमटैक्स आदि की चोरी करने के जो संस्कार भीतर पड़े हैं वे संस्कार जन्मजन्मातर तक उसे चोरी करने के लिये उकसाते रहेंगे और वह उनके कारण दण्ड पाता रहेगा। अगर धन का प्रारब्ध है तो कोई गोद ले लेगा अथवा मरता हुआ कोई व्यक्ति उसके नाम से वसीयतनामा लिख देगा अथवा मकान बनाते समय नींव खोदते ही जमीन में गड़ा हुआ धन मिल जायगा आदिआदि। इस प्रकार प्रारब्ध के अनुसार जो धन मिलने वाला है वह किसी न किसी कारण से मिलेगा ही (टिप्पणी प0 892) परन्तु मनुष्य प्रारब्ध पर तो विश्वास करता नहीं कम से कम अपने पुरुषार्थ पर भी विश्वास नहीं करता कि हम मेहनत से कमाकर खा लेंगे। इसी कारण उसकी चोरी आदि दुष्कर्मों में प्रवृत्ति हो जाती है जिससे हृदय में जलन रहती है , दूसरों से छिपाव करना पड़ता है , पकड़े जाने पर दण्ड पाना पड़ता है आदिआदि। अगर मनुष्य विश्वास और सन्तोष रखे तो हृदय में महान शान्ति , आनन्द , प्रसन्नता रहती है तथा आने वाला धन भी आ जाता है और जितना जीने का प्रारब्ध है उतनी जीवननिर्वाह की सामग्री भी किसी न किसी तरह मिलती ही रहती है। जैसे व्यापार में घाटा लगना , घर में किसी की मृत्यु होना , बिना कारण अपयश और अपमान होना आदि प्रतिकूल परिस्थिति को कोई भी नहीं चाहता पर फिर भी वह आती ही है। ऐसे ही अनुकूल परिस्थिति भी आती ही है उसको कोई रोक नहीं सकता। भागवत में आया है – सुखमैन्द्रियकं राजन् स्वर्गे नरक एव च। देहिनां यद् यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद् बुधः।।(श्रीमद्भा0 11। 8। 1 ) राजन प्राणियों को जैसे इच्छा के बिना प्रारब्धानुसार दुःख प्राप्त होते हैं ऐसे ही इन्द्रियजन्य सुख स्वर्ग में और नरक में भी प्राप्त होते हैं। अतः बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह उन सुखों की इच्छा न करे। जैसे धन और भोग का प्रारब्ध अलग-अलग होता है अर्थात् किसी का धन का प्रारब्ध होता है और किसी का भोग का प्रारब्ध होता है । ऐसे ही धर्म और मोक्ष का पुरुषार्थ भी अलग-अलग होता है अर्थात् कोई धर्म के लिये पुरुषार्थ करता है और कोई मोक्ष के लिये पुरुषार्थ करता है। धर्म के अनुष्ठान में शरीर , धन आदि वस्तुओं की मुख्यता रहती है और मोक्ष की प्राप्ति में भाव तथा विचार की मुख्यता रहती है। एक करना होता है और एक होना होता है। दोनों विभाग अलग-अलग हैं। करने की चीज है – कर्तव्य और होने की चीज है – फल। मनुष्य का कर्म करने में अधिकार है , फल में नहीं – कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (गीता 2। 47)। तात्पर्य यह है कि होने की पूर्ति प्रारब्ध के अनुसार अवश्य होती है , उसके लिये यह होना चाहिये और यह नहीं होना चाहिये – ऐसी इच्छा नहीं करनी चाहिये और करने में शास्त्र तथा लोकमर्यादा के अनुसार कर्तव्यकर्म करना चाहिये। करना पुरुषार्थ के अधीन है और होना प्रारब्ध के अधीन है। इसलिये मनुष्य करने में स्वाधीन है और होने में पराधीन है। मनुष्य की उन्नति में खास बात है – करने में सावधान रहे और होने में प्रसन्न रहे। क्रियमाण , सञ्चित और प्रारब्ध – तीनों कर्मों से मुक्त होने का क्या उपाय है । प्रकृति और पुरुष – ये दो हैं। प्रकृति सदा क्रियाशील है पर पुरुष में कभी परिवर्तनरूप क्रिया नहीं होती। प्रकृति से अपना सम्बन्ध मानने वाला प्रकृतिस्थ पुरुष ही कर्ता भोक्ता बनता है। जब वह प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है अर्थात् अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है तब उस पर कोई भी कर्म लागू नहीं होता। प्रारब्धसम्बन्धी अन्य बातें इस प्रकार हैं – (1) बोध हो जाने पर भी ज्ञानी का प्रारब्ध रहता है – यह कथन केवल अज्ञानियों को समझानेमात्र के लिये है। कारण कि अनुकूल या प्रतिकूल घटना का घट जाना ही प्रारब्ध है। प्राणी को सुखी या दुःखी करना प्रारब्ध का काम नहीं है प्रत्युत अज्ञान का काम है। अज्ञान मिटने पर मनुष्य सुखी-दुःखी नहीं होता। उसे केवल अनुकूलता-प्रतिकूलता का ज्ञान होता है। ज्ञान होना दोषी नहीं है प्रत्युत सुख-दुःख रूप विकार होना दोषी है। इसलिये वास्तव में ज्ञानी का प्रारब्ध नहीं होता। (2) जैसा प्रारब्ध होता है वैसी बुद्धि बन जाती है। जैसे एक ही बाजार में एक व्यापारी माल की बिक्री कर देता है और एक व्यापारी माल खरीद लेता है। बाद में जब बाजार भाव तेज हो जाता है तब बिक्री करने वाले व्यापारी को नुकसान होता है तथा खरीदने वाले व्यापारी को नफा होता है और जब बाजार भाव मन्दा हो जाता है तब बिक्री करने वाले व्यापारी को नफा होता है तथा खरीदने वाले व्यापारी को नुकसान होता है। अतः खरीदने और बेचनेकी बुद्धि प्रारब्ध से बनती है अर्थात् नफा या नुकसान का जैसा प्रारब्ध होता है उसी के अनुसार पहले बुद्धि बन जाती है जिससे प्रारब्ध के अनुसार फल भुगताया जा सके परन्तु खरीदने और बेचने की क्रिया न्याययुक्त की जाय अथवा अन्याययुक्त की जाय – इसमें मनुष्य स्वतन्त्र है क्योंकि यह क्रियमाण (नया कर्म) है , प्रारब्ध नहीं। (3) एक आदमी के हाथसे गिलास गिरकर टूट गया तो यह उसकी असावधानी है या प्रारब्धकर्म करते समय तो सावधान रहना चाहिये पर जो (अच्छा या बुरा) हो गया उसे पूरी तरह से प्रारब्ध – होनहार ही मानना चाहिये। उस समय जो यह कहते हैं कि यदि तू सावधानी रखता तो गिलास न टूटता – इससे यह समझना चाहिये कि अब आगेसे मुझे सावधानी रखनी है कि दुबारा ऐसी गलती न हो जाय। वास्तव में जो हो गया उसे असावधानी न मानकर होनहार मानना चाहिये। इसलिये करने में सावधान और होने में प्रसन्न रहे। (4) प्रारब्ध से होने वाले और कुपथ्य से होने वाले राग में क्या फरक है ? कुपथ्यजन्य रोग दवाई से मिट सकता है परन्तु प्रारब्धजन्य रोग दवाई से नहीं मिटता। महामृत्युञ्जय आदि का जप और यज्ञयागादि अनुष्ठान करने से प्रारब्धजन्य रोग भी कट सकता है अगर अनुष्ठान प्रबल हो तो। रोग के दो प्रकार हैं – आधि (मानसिक रोग) और व्याधि (शारीरिक रोग)। आधिके भी दो भेद हैं – एक तो शोक , चिन्ता आदि और दूसरा पागलपन। चिन्ता , शोक आदि तो अज्ञान से होते हैं और पागलपन प्रारब्ध से होता है। अतः ज्ञान होने पर चिन्ताशोकादि तो मिट जाते हैं पर प्रारब्ध के अनुसार पागलपन हो सकता है। हाँ , पागलपन होने पर भी ज्ञानी के द्वारा कोई अनुचित शास्त्रनिषिद्ध क्रिया नहीं होती। (5) आकस्मिक मृत्यु और अकाल मृत्यु में क्या फरक है कोई व्यक्ति साँप काटने से मर जाये , अचानक ऊपर से गिरकर मर जाय , पानी में डूबकर मर जाय , हार्टफेल होने से मर जाय , किसी दुर्घटना आदि से मर जाय तो यह उसकी आकस्मिक मृत्यु है। स्वाभाविक मृत्यु की तरह आकस्मिक मृत्यु भी प्रारब्ध के अनुसार (आयु पूरी होने पर) होती है। कोई व्यक्ति जानकर आत्महत्या कर ले अर्थात् फाँसी लगाकर कुएँ में कूदकर , गाड़ी के नीचे आकर , छत से कूदकर , जहर खाकर , शरीर में आग लगाकर मर जाय तो यह उसकी अकाल मृत्यु है। यह मृत्यु आयु के रहते हुए ही होती है। आत्महत्या करने वाले को मनुष्य की हत्या का पाप लगता है। अतः यह नया पापकर्म है , प्रारब्ध नहीं। मनुष्य शरीर परमात्मप्राप्ति के लिये ही मिला है । अतः उसको आत्महत्या करके नष्ट करना बड़ा भारी पाप है। कई बार आत्महत्या करने की चेष्टा करने पर भी मनुष्य बच जाता है मरता नहीं। इसका कारण यह है कि उसका दूसरे मनुष्य के प्रारब्ध के साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ रहता है । अतः उसके प्रारब्ध के कारण वह बच जाता है। जैसे भविष्य में किसी का पुत्र होने वाला है और वह आत्महत्या करने का प्रयास करे तो उस (आगे होने वाले) लड़के का प्रारब्ध उसको मरने नहीं देगा। अगर उस व्यक्ति के द्वारा भविष्य में कोई विशेष अच्छा काम होने वाला हो लोगों का उपकार होने वाला हो अथवा इसी जन्म में इसी शरीर में प्रारब्ध का कोई उत्कट भोग (सुख-दुःख) आने वाला हो तो आत्महत्या का प्रयास करने पर भी वह मरेगा नहीं। (6) एक आदमी ने दूसरे आदमी को मार दिया तो यह उसने पिछले जन्म के वैर का बदला लिया और मरने वाले ने पुराने कर्मों का फल पाया फिर मारने वाले का क्या दोष मारने वाले का दोष है। दण्ड देना शासक का काम है , सर्वसाधारण का नहीं। एक आदमी को दस बजे फाँसी मिलनी है। एक-दूसरे आदमी ने उस (फाँसी की सजा पाने वाले) आदमी को जल्लादों के हाथों से छुड़ा लिया और ठीक दस बजे उसे कत्ल कर दिया । ऐसी हालत में उस कत्ल करने वाले आदमी को भी फाँसी होगी कि यह आज्ञा तो राज्य ने जल्लादों को दी थी पर तुम्हें किसने आज्ञा दी थी मारने वाले को यह याद नहीं है कि मैं पूर्वजन्म का बदला ले रहा हूँ फिर भी मारता है तो यह उसका दोष है। दूसरे को मारने का अधिकार किसी को भी नहीं है। मरना कोई भी नहीं चाहता। दूसरे को मारना अपने विवेक का अनादर है। मनुष्यमात्र को विवेकशक्ति प्राप्त है और उस विवेक के अनुसार अच्छे या बुरे कार्य करने में वह स्वतन्त्र है। अतः विवेक का अनादर करके दूसरे को मारना अथवा मारने की नीयत रखना दोष है। यदि पूर्वजन्म का बदला एक-दूसरे ऐसे ही चुकाते रहें तो यह श्रृङ्खला कभी खत्म नहीं होगी और मनुष्य कभी मुक्त नहीं हो सकेगा। पिछले जन्म का बदला अन्य (साँप आदि) योनियों में लिया जा सकता है। मनुष्ययोनि बदला लेने के लिये नहीं है। हाँ , यह हो सकता है कि पिछले जन्म का हत्यारा व्यक्ति हमें स्वाभाविक ही अच्छा नहीं लगेगा , बुरा लगेगा परन्तु बुरे लगने वाले व्यक्ति से द्वेष करना या उसे कष्ट देना दोष है क्योंकि यह नया कर्म है। जैसा प्रारब्ध है उसी के अनुसार उसकी बुद्धि बन गयी फिर दोष किस बात का बुद्धि में जो द्वेष है उसके वश में हो गया – यह दोष है। उसे चाहिये कि वह उसके वश में न होकर विवेक का आदर करे। गीता भी कहती है कि बुद्धि में जो राग-द्वेष रहते हैं (3। 40) उनके वश में न हो – तयोर्न वशमागच्छेत् (3। 34)।(7) प्रारब्ध और भगवत्कृपा में क्या अन्तर है ? इस जीव को जो कुछ मिलता है वह प्रारब्ध के अनुसार मिलता है पर प्रारब्धविधान के विधाता स्वयं भगवान हैं। कारण कि कर्म जड होने से स्वतन्त्र फल नहीं दे सकते वे तो भगवान के विधान से ही फल देते है। जैसे एक आदमी किसी के खेत में दिन भर काम करता है तो उसको शाम के समय काम के अनुसार पैसे मिलते हैं पर मिलते हैं खेत के मालिक से। पैसे तो काम करने से ही मिलते हैं बिना काम किये पैसे मिलते हैं। क्या पैसे तो काम करने से ही मिलते हैं? बिना काम किये पैसे पैसा देगा कौन ? यदि कोई जंगल में जाकर दिन भर मेहनत करे तो क्या उसको पैसे मिल जायँगे ? नहीं मिल सकते। उसमें यह देखा जायगा कि किसके कहने से काम किया और किसकी जिम्मेवारी रही।अगर कोई नौकर काम को बड़ी तत्परता , चतुरता और उत्साह से करता है पर करता है केवल मालिक की प्रसन्नता के लिये तो मालिक उसको मजदूरी से अधिक पैसे भी दे देता है और तत्परता आदि गुणों को देखकर उसको अपने खेत का हिस्सेदार भी बना देता है। ऐसे ही भगवान मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार फल देते हैं। अगर कोई मनुष्य भगवान की आज्ञा के अनुसार उन्हीं की प्रसन्नता के लिये सब कार्य करता है उसे भगवान दूसरों की अपेक्षा अधिक ही देते हैं परन्तु जो भगवान के सर्वथा समर्पित होकर सब कार्य करता है उस भक्त के भगवान भी भक्त बन जाते हैं (टिप्पणी प0 894) संसार में कोई भी नौकर को अपना मालिक नहीं बनाता परन्तु भगवान शरणागत भक्त को अपना मालिक बना लेते हैं। ऐसी उदारता केवल प्रभु में ही है। ऐसे प्रभु के चरणों की शरण न होकर जो मनुष्य प्राकृत – उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों के पराधीन रहते हैं उनकी बुद्धि सर्वथा ही भ्रष्ट हो चुकी है। वे इस बात को समझ ही नहीं सकते कि हमारे सामने प्रत्यक्ष उत्पन्न और नष्ट होने वाले पदार्थ हमें कहाँ तक सहारा दे सकते हैं। जिस प्रकार कर्मयोग में कर्मों का अपने साथ सम्बन्ध नहीं रहता ऐसे ही सांख्यसिद्धान्त में भी कर्मों का अपने साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता – इसका विवेचन आगे करते हैं।