मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।18.17।।
यस्य – जिसके; न-नहीं; अहंकृतः-कर्तापन के अहंकार से मुक्त; भावः-प्रकृति; बुद्धिः-बुद्धि; यस्य-जिसकी; न लिप्यते – अनासक्त; हत्वा-मारकर; अपि – भी; सः-वे; इमान् – इस; लोकान् – जीवों को; न – कभी नहीं; हन्ति – मारता है; न – कभी नहीं; निबध्यते – बंधन में पड़ता है।
जो कर्तापन के अहंकार से मुक्त होते हैं और जिनकी बुद्धि मोहग्रस्त नहीं है, यद्यपि वे जीवों को मारते हैं तथापि वे न तो जीवों को मारते हैं और न कर्मों के बंधन में पड़ते हैं अर्थात जिस मनुष्य में अहंकार का भाव नहीं है और जिसकी बुद्धि किसी गुण दोष से लिप्त नहीं होती, वह मनुष्य इन समस्त प्राणियों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है।।18.17।।
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते – जिससे मैं करता हूँ – ऐसा अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि में मेरे को फल मिलेगा – ऐसे स्वार्थभाव का लेप नहीं है। इसको ऐसे समझना चाहिये – जैसे शास्त्रविहित और शास्त्रनिषिद्ध – ये सभी क्रियाएँ एक प्रकाश में होती हैं और प्रकाश के ही आश्रित होती हैं परन्तु प्रकाश किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं बनता अर्थात् प्रकाश उन क्रियाओं को न करने वाला है और न कराने वाला है। ऐसे ही स्वरूप की सत्ता के बिना विहित और निषिद्ध – कोई भी क्रिया नहीं होती परन्तु वह सत्ता उन क्रियाओं को न करने वाली है और न कराने वाली है – ऐसा जिसको साक्षात् अनुभव हो जाता है उसमें मैं क्रियाओं को करने वाला हूँ – ऐसा अहंकृतभाव नहीं रहता और अमुक चीज चाहिये , अमुक चीज नहीं चाहिये , अमुक घटना होनी चाहिये , अमुक घटना नहीं होनी चाहिये – ऐसा बुद्धि में लेप (द्वन्द्व-मोह) नहीं रहता। अहंकृतभाव और बुद्धि में लेप न रहने से उसके कर्तृत्व और भोक्तृत्व – दोनों नष्ट हो जाते हैं अर्थात् अपने में कर्तृत्व और भोक्तृत्व – ये दोनों ही नहीं हैं इसका वास्तविक अनुभव हो जाता है। प्रकृति का कार्य स्वतःस्वाभाविक ही चल रहा है , परिवर्तित हो रहा है और अपना स्वरूप केवल उसका प्रकाशक है – ऐसा समझकर जो अपने स्वरूप में स्थित रहता है। उसमें ‘मैं करता हूँ’ – ऐसा अहंकृतभाव नहीं होता क्योंकि अंहकृतभाव प्रकृति के कार्य शरीर को स्वीकार करने से ही होता है। अहंकृतभाव सर्वथा मिटने पर उसकी बुद्धि में फल मेरे को मिले ऐसा लेप भी नहीं होता अर्थात् फल की कामना नहीं होती। अहंकृतभाव एक मनोवृत्ति है। मनोवृत्ति होते हुए भी यह भाव स्वयं (कर्ता) में रहता है क्योंकि कर्तृत्व और अकर्तृत्व भाव स्वयं ही स्वीकार करता है।हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते – वह इन सम्पूर्ण प्राणियों को एक साथ मार डाले तो भी वह मारता नहीं क्योंकि उसमें कर्तृत्व नहीं है और वह बँधता भी नहीं क्योंकि उसमें भोक्तृत्व नहीं है। तात्पर्य यह है कि उसका न क्रियाओं के साथ सम्बन्ध है और न फल के साथ सम्बन्ध है। वास्तव में प्रकृति ही क्रिया और फल में परिणत होती है परन्तु इस वास्तविकता का अनुभव न होने से ही पुरुष (चेतन) कर्ता और भोक्ता बनता है। कारण कि जब अहंकारपूर्वक क्रिया होती है तब कर्ता , करण और कर्म – तीनों मिलते हैं और तभी कर्मसंग्रह होता है परन्तु जिसमें अहंकृतभाव नहीं रहा केवल सबका प्रकाशक , आश्रय , सामान्य चेतन ही रहा फिर वह कैसे किसको मारे और कैसे किससे बँधे ? उसका मारना और बँधना सम्भव ही नहीं है (गीता 2। 19)। सम्पूर्ण प्राणियों को मारना क्या है ? जिसमें अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि में लेप नहीं है – ऐसे मनुष्य का शरीर जिस वर्ण और आश्रम में रहता है उसके अनुसार उसके सामने जो परिस्थिति आ जाती है उसमें प्रवृत्त होने पर उसे पाप नहीं लगता। जैसे किसी जीवन्मुक्त क्षत्रिय के लिये स्वतः युद्ध की परिस्थिति प्राप्त हो जाय तो वह उसके अनुसार सबको मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है। कारण कि उसमें अभिमान और स्वार्थभाव नहीं है। यहाँ अर्जुन के सामने भी युद्ध का प्रसङ्ग है। इसलिये भगवान ने ‘हत्वापि’ पद से अर्जुन को युद्ध के लिये प्रेरणा की है। ‘अपि’ पद का भाव हैं – कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः (गीता 4। 20) कर्मों में अच्छी तरह प्रवृत्त होने पर भी वह कुछ नहीं करता। सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते (गीता 6। 31) – सर्वथा बर्ताव करता हुआ भी वह योगी मेरे में रहता है। ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता 13। 31) – शरीर में स्थित होने पर भी न करता है और न लिप्त होता है। तात्पर्य यह है कि कर्मों में साङ्गोपाङ्ग प्रवृत्त होने के समय और जिस समय कर्मों में प्रवृत्त नहीं है उस समय भी स्वरूप की निर्विकल्पता ज्यों की त्यों रहती है अर्थात् क्रिया करने से अथवा क्रिया न करने से स्वरूप में कुछ भी फरक नहीं पड़ता। कारण कि क्रियाविभाग प्रकृति में है , स्वरूप में नहीं। वास्तव में यह अहंभाव (व्यक्तित्व) ही मनुष्य में भिन्नता करने वाला है। अहंभाव न रहने से परमात्मा के साथ भिन्नता का कोई कारण ही नहीं है। फिर तो केवल सबका आश्रय , प्रकाशक सामान्य चेतन रहता है। वह न तो क्रिया का कर्ता बनता है और न फल का भोक्ता ही बनता है। क्रियाओं का कर्ता और फल का भोक्ता तो वह पहले भी नहीं था। केवल नाशवान शरीर के साथ सम्बन्ध मानकर जिस अहंभाव को स्वीकार किया है उसी अहंभाव से उसमें कर्तापन और भोक्तापन आया है। ‘अहम्’ दो प्रकार का होता है – अहंस्फूर्ति और अहंकृति। गाढ़ नींद से उठते ही सबसे पहले मनुष्य को अपने होनेपन (सत्तामात्र) का भान होता है इसको अहंस्फूर्ति कहते हैं। इसके बाद वह अपने में मैं अमुक नाम , वर्ण , आश्रम आदि का हूँ – ऐसा आरोप करता है यही असत् का सम्बन्ध है। असत् के सम्बन्ध से अर्थात् शरीर के साथ तादात्म्य मानने से शरीर की क्रिया को लेकर मैं करता हूँ – ऐसा भाव उत्पन्न होता है इसको अहंकृति कहते हैं। अहम् को लेकर ही अपने में परिच्छिन्नता आती है। इसलिये अहंस्फूर्ति में भी किञ्चित् परिच्छिन्नता (व्यक्तित्व) रह सकती है परन्तु यह परिच्छिन्नता बन्धनकारक नहीं होती अर्थात् परिच्छिन्नता रहने पर भी अहंस्फूर्ति दोषी नहीं होती। कारण कि अहंकृति अर्थात् कर्तृत्व के बिना अपने में गुण-दोष का आरोप नहीं होता। अहंकृति आने से ही अपने में गुण-दोष का आरोप होता है जिससे शुभ-अशुभ कर्म बनते हैं। बोध होनेप र अहंस्फूर्ति में जो परिच्छिन्नता है वह जल जाती है और स्फूर्तिमात्र रह जाती है। ऐसी स्थिति में मनुष्य न मारता है और न बँधता है। न हन्ति न निबध्यते (न मारता है और न बँधता है) का क्या भाव है ? एक निर्विकल्प अवस्था होती है और एक निर्विकल्प बोध होता है। निर्विकल्प अवस्था साधन-साध्य है और उसका उत्थान भी होता है अर्थात् वह एकरस नहीं रहती। इस निर्विकल्प अवस्था से भी असङ्गता होने पर स्वतःसिद्ध निर्विकल्पबोध का अनुभव होता है। निर्विकल्पबोध साधन-साध्य नहीं है और उसमें निर्विकल्पता किसी भी अवस्था में किञ्चिन्मात्र भी भंग नहीं होती। निर्विकल्पबोध में कभी परिवर्तन हुआ नहीं , होगा नहीं और होना सम्भव भी नहीं। तात्पर्य है कि उस निर्विकल्पबोध में कभी हलचल आदि नहीं होते यही ‘न हन्ति न निबध्यते’ का भाव है। अहंकृतभाव और बुद्धि में लेप न रहने का उपाय क्या है ? क्रियारूप से परिवर्तन केवल प्रकृति में ही होता है और उन क्रियाओं का भी आरम्भ और अन्त होता है तथा उन कर्मों के फलरूप से जो पदार्थ मिलते हैं उनका भी संयोग-वियोग होता है। इस प्रकार क्रिया और पदार्थ – दोनों के साथ संयोग-वियोग होता रहता है। संयोग-वियोग होने पर भी स्वयं तो प्रकाशकरूप से ज्यों का त्यों ही रहता है। विवेक-विचार से ऐसा अनुभव होने पर अहंकृतभाव और बुद्धि में लेप नहीं रहता। ज्ञान और प्रवृत्ति (क्रिया) दोषी नहीं होते प्रत्युत कर्तृत्वाभिमान ही दोषी होता है क्योंकि कर्तृत्वाभिमान से ही कर्मसंग्रह होता है – यह बात आगे के श्लोक में बताते हैं।