The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद

 

 

The Bhagavad Gita Chapter 18ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।

प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।18.19।।

 

ज्ञानम्-ज्ञान; कर्म-कर्म; च-और; कर्ता-कर्ता; च-भी; त्रिधा-तीन प्रकार का; एव-निश्चय ही; गुणभेदतः-प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार अंतर करना; प्रोच्यते-कहे जाते हैं; गुणसंख्याने-सांख्य दर्शन, जो प्रकृति के गुणों का वर्णन करता हैं; यथावत्-जिस रूप में हैं उसी में; शृणु-सुनो; तानि-उन सबों को; अपि-भी।

 

सांख्य दर्शन अर्थात गुणसंख्यान शास्त्र ( गुणों के सम्बन्ध से प्रत्येक पदार्थ के भिन्न-भिन्न भेदों की गणना करने वाले ) में तीनों गुणों के भेद के अनुसार ज्ञान , कर्म तथा कर्ता की तीन श्रेणियों का उल्लेख किया गया है अर्थात वे तीन-तीन प्रकार से ही कहे जाते हैं, उनको भी तुम यथार्थ रूप से सुनो । मैं तुम्हें इनका भेद बताता हूँ।।18.19।।

 

प्रोच्यते गुणसंख्याने – जिस शास्त्र में गुणों के सम्बन्ध से प्रत्येक पदार्थ के भिन्न-भिन्न भेदों की गणना की गयी है उसी शास्त्र के अनुसार मैं तुम्हें ज्ञान , कर्म तथा कर्ता के भेद बता रहा हूँ। ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः – पीछे के श्लोक में भगवान ने कर्म की प्रेरणा होने में तीन कारण बताये तथा तीन ही कारण कर्म के बनने में बताये। इस प्रकार कर्मसंग्रह होने तक में कुल छः बातें बतायीं (टिप्पणी प0 901)। अब इस श्लोक में भगवान ज्ञान , कर्म तथा कर्ता – इन तीनों का विवेचन करने की ही बात कहते हैं। कर्मप्रेरकविभाग में से विवेचन करने के लिये केवल ज्ञान लिया गया है क्योंकि किसी भी कर्म की प्रेरणा में पहले ज्ञान ही होता है। ज्ञान के बाद ही कार्य का आरम्भ होता है। कर्मसंग्रहविभाग में से केवल कर्म और कर्ता लिये गये हैं। यद्यपि कर्म के होने में कर्ता मुख्य है तथापि साथ में कर्म को भी लेने का कारण यह है कि कर्ता जब कर्म करता है तभी कर्मसंग्रह होता है। अगर कर्ता कर्म न करे तो कर्मसंग्रह होगा ही नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मप्रेरणा में ज्ञान तथा कर्मसंग्रह में कर्म और कर्ता मुख्य हैं। इन तीनों – (ज्ञान ,कर्म और कर्ता) के सात्त्विक होने से ही मनुष्य निर्लिप्त हो सकता है – राजस और तामस होने से नहीं। अतः यहाँ कर्मप्रेरकविभाग में ज्ञाता और ज्ञेय को तथा कर्मसंग्रहविभाग में करण को नहीं लिया गया है। कर्मप्रेरकविभाग के ज्ञाता और ज्ञेय का विवेचन क्यों नहीं किया ? कारण कि ज्ञाता जब क्रिया से सम्बन्ध जोड़ता है तब वह कर्ता कहलाता है और उस कर्ता के तीन (सात्त्विक , राजस और तामस) भेदों के अन्तर्गत ही ज्ञाता के भी तीन भेद हो जाते हैं परन्तु ज्ञाता जब ज्ञप्तिमात्र रहता है तब उसके तीन भेद नहीं होते क्योंकि उसमें गुणों का सङ्ग नहीं है। गुणों का सङ्ग होने से ही उसके तीन भेद होते हैं। इसलिये वृत्तिज्ञान ही सात्त्विक , राजस तथा तामस होता है। जिसे जाना जाय उस विषय को ज्ञेय कहते हैं। जानने के विषय अनेक हैं इसलिये इसके अलग भेद नहीं किये गये परन्तु जानने योग्य सब विषयों का एकमात्र लक्ष्य सुख प्राप्त करना ही रहता है। जैसे कोई विद्या पढ़ता है , कोई धन कमाता है , कोई अधिकार पाने की चेष्टा करता है तो इन सब विषयों को जानने , पाने की चेष्टा का लक्ष्य एकमात्र सुख ही रहता है। विद्या पढ़ने में यही भाव रहता है कि ज्यादा पढ़कर ज्यादा धन कमाऊँगा , मान पाऊँगा और उनसे मैं सुखी होऊँगा। ऐसे ही हरेक कर्म का लक्ष्य परम्परा से सुख ही रहता है। इसलिये भगवान ने ज्ञेय के तीन भेद सात्त्विक राजस और तामस सुख के नाम से आगे (18 । 36 — 39में) किये हैं। ऐसे ही भगवान ने करण के भी तीन भेद नहीं किये क्योंकि इन्द्रियाँ आदि जितने भी करण हैं वे सब साधनमात्र हैं। इसलिये उनके तीन भेद नहीं होते परन्तु इन सभी करणों में बुद्धि की ही प्रधानता है क्योंकि मनुष्य करणों से जो कुछ भी काम करता है उसको वह बुद्धिपूर्वक (विचारपूर्वक) ही करता है। इसलिये भगवान ने करण के तीन भेद सात्त्विक , राजस और तामस बुद्धि के नाम से आगे (18। 30 — 32 में) किये हैं। बुद्धि को दृढ़ता से रखने में धृति बुद्धि की सहायक बनती है। ज्ञानयोग की साधना में भगवान ने दो जगह (6। 25 में तथा 18। 51में) बुद्धि के साथ ‘धृति’ पद भी दिया है। इससे यह मालूम देता है कि ज्ञानमार्ग में बुद्धि के साथ धृति की विशेष आवश्यकता है। इसलिये भगवान ने धृति के भी तीन भेद (18। 33 — 35 में) बताये हैं। त्रिधैव पद में यह भाव है कि ये भेद तीन (सात्त्विक , राजस और तामस) ही होते हैं कम और ज्यादा नहीं होते अर्थात् न दो होते हैं और न चार होते हैं। कारण कि सत्त्व , रज और तम – ये तीन गुण ही प्रकृति से उत्पन्न हैं – सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः (गीता 14। 5)। इसलिये इन तीनों गुणों को लेकर तीन ही भेद होते हैं। यथावत् – गुणसंख्यानशास्त्र में इस विषय का जैसा वर्णन हुआ है वैसा का वैसा तुम्हें सुना रहा हूँ अपनी तरफ से कुछ कम या अधिक करके नहीं सुना रहा हूँ। श्रृणु- इस विषय को ध्यान से सुनो। कारण कि सात्त्विक , राजस और तामस – इन तीनों में से सात्त्विक चीजें तो कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करके परमात्मतत्त्व का बोध कराने वाली हैं , राजस चीजें जन्म-मरण देने वाली हैं और तामस चीजें पतन करने वाली अर्थात् नरकों और नीच योनियों में ले जाने वाली हैं। इसलिये इनका वर्णन सुनकर सात्त्विक चीजों को ग्रहण तथा राजस-तामस चीजों का त्याग करना चाहिये। तानि – इन ज्ञान आदिका तुम्हारे स्वरूप के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। तुम्हारा स्वरूप तो सदा निर्लेप है। अपि – इनके भेदों को जानने की भी बड़ी भारी आवश्यकता है क्योंकि इनको ठीक तरह से जानने पर यस्य नाहंकृतो भावो ৷৷. न हन्ति न निबध्यते (18। 17) – इस श्लोक का ठीक अनुभव हो जायगा अर्थात् अपने स्वरूप का बोध हो जायगा। अब भगवान सात्त्विक ज्ञान का वर्णन करते हैं।

 

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