मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।18.28।।
अयुक्तः-अनुशासनहीन; प्राकृतः-अशिष्ट; स्तब्धाः-हठी; शठः-धूर्त; नैष्कृतिक:-कुटिल या नीच; अलसः-आलसी; विषादी-अप्रसन्न और निराश; दीर्घसूत्री-टाल मटोल करने वाला; च-और; कर्ता-कर्ता; तामसः-तमोगुण; उच्यते-कहलाता है।।
जो कर्ता अनुशासनहीन, अशिष्ट, हठी, कपटी, धूर्त , कुटिल , नीच , आलसी , निराश , अप्रसन्न और टाल मटोल करने वाला होता है वह तमोगुणी या तामस कहलाता है।।18.28।।
अयुक्तः – तमोगुण मनुष्य को मूढ़ बना देता है (गीता 14। 8)। इस कारण किस समय में कौन सा काम करना चाहिये ? किस तरह करने से हमें लाभ है और किस तरह करने से हमें हानि है ? इस विषय में तामस मनुष्य सावधान नहीं रहता अर्थात् वह कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में सोचता ही नहीं। इसलिये वह अयुक्त अर्थात् असावधान कहलाता है। प्राकृतः – जिसने शास्त्र , सत्सङ्ग , अच्छी शिक्षा , उपदेश आदि से न तो अपने जीवन को ठीक बनाया है और न अपने जीवन पर कुछ विचार ही किया है , माँ-बाप से जैसा पैदा हुआ है वैसा का वैसा ही कोरा अर्थात् कर्तव्य-अकर्तव्य की शिक्षा से रहित रहा है ऐसा मनुष्य प्राकृत अर्थात् अशिक्षित कहलाता है। स्तब्धः – तमोगुण की प्रधानता के कारण उसके मन , वाणी और शरीर में अकड़ रहती है। इसलिये वह अपने वर्ण-आश्रम में बड़े-बूढ़े माता , पिता , गुरु , आचार्य आदि के सामने कभी झुकता नहीं। वह मन , वाणी और शरीर से कभी सरलता और नम्रता का व्यवहार नहीं करता प्रत्युत कठोर व्यवहार करता है। ऐसा मनुष्य स्तब्ध अर्थात् ऐंठ-अकड़ वाला कहलाता है। शठः – तामस मनुष्य अपनी एक जिद होने के कारण दूसरों की दी हुई अच्छी शिक्षा को , अच्छे विचारों को नहीं मानता। उसको तो मूढ़ता के कारण अपने ही विचार अच्छे लगते हैं। इसलिये वह शठ अर्थात् जिद्दी कहलाता है (टिप्पणी प0 909)। अनैष्कृतिकः – जिनसे कुछ उपकार पाया है उनका प्रत्युपकार करने का जिसका स्वभाव होता है वह नैष्कृतिक कहलाता है परन्तु तामस मनुष्य दूसरों से उपकार पा करके भी उनका उपकार नहीं करता प्रत्युत उनका अपकार करता है इसलिये वह अनैष्कृतिक कहलाता है। अलसः – अपने वर्ण-आश्रम के अनुसार आवश्यक कर्तव्यकर्म प्राप्त हो जाने पर भी तामस मनुष्य को मूढ़ता के कारण वह कर्म करना अच्छा नहीं लगता प्रत्युत सांसारिक निरर्थक बातों को पड़े-पड़े सोचते रहना अथवा नींद में पड़े रहना अच्छा लगता है। इसलिये उसे आलसी कहा गया है। विषादी – यद्यपि तामस मनुष्य में यह विचार होता ही नहीं कि क्या कर्तव्य होता है और क्या अकर्तव्य होता है ? तथा निद्रा , आलस्य , प्रमाद आदि में मेरी शक्ति का , मेरे जीवन के अमूल्य समय का कितना दुरुपयोग हो रहा है? तथापि अच्छे मार्ग से और कर्तव्य से च्युत होने से उसके भीतर स्वाभाविक ही एक विषाद (दुःख ,अशान्ति) होता रहता है। इसलिये उसे विषादी कहा गया है। दीर्घसूत्री – अमुक काम किस तरीके से बढ़िया और जल्दी हो सकता है – इस बात को वह सोचता ही नहीं। इसलिये वह किसी काम में अविवेकपूर्वक लग भी जाता है तो थोड़े समय में होने वाले काम में भी बहुत ज्यादा समय लगा देता है और उससे काम भी सुचारुरूप से नहीं होता। ऐसा मनुष्य दीर्घसूत्री कहलाता है। कर्ता तामस उच्यते – उपर्युक्त आठ लक्षणों वाला कर्ता तामस कहलाता है। विशेष बात- 26वें , 27वें और 28वें श्लोक में जितनी बातें आयीं हैं वे सब कर्ता को लेकर ही कही गयी हैं। कर्ता के जैसे लक्षण होते हैं उन्हीं के अनुसार कर्म होते हैं। कर्ता जिन गुणों को स्वीकार करता है उन गुणों के अनुसार ही कर्मों का रूप होता है। कर्ता जिस साधन को करता है वह साधन कर्ता का रूप हो जाता है। कर्ता के आगे जो करण होते हैं वे भी कर्ता के अनुरूप होते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसा कर्ता होता है वैसे ही कर्म , करण आदि होते हैं। कर्ता सात्त्विक , राजस अथवा तामस होगा तो कर्म आदि भी सात्त्विक , राजस अथवा तामस होंगे। सात्त्विक कर्ता अपने कर्म , बुद्धि आदि को सात्त्विक बनाकर सात्त्विक सुख का अनुभव करते हुए असङ्गतापूर्वक परमात्मतत्त्व से अभिन्न हो जाता है – दुःखान्तं च निगच्छति (गीता 18। 36)। कारण कि सात्त्विक कर्ता का ध्येय परमात्मा होता है। इसलिये वह कर्तृत्व-भोक्तृत्व से रहित होकर चिन्मय तत्त्व से अभिन्न हो जाता है क्योंकि वह तात्त्विक स्वरूप से अभिन्न ही था परन्तु राजस-तामस कर्ता , राजस-तामस कर्म , बुद्धि आदि के साथ तन्मय होकर राजस-तामस सुख में लिप्त होता है। इसलिये वह परमात्मतत्त्व से अभिन्न नहीं हो सकता। कारण कि राजस-तामस कर्ता का उद्देश्य परमात्मा नहीं होता और उसमें जडता का बन्धन भी अधिक होता है। अब यहाँ शङ्का हो सकती है कि कर्ता का सात्त्विक होना तो ठीक है पर कर्म सात्त्विक कैसे होते हैं ? इसका समाधान यह है कि जिस कर्म के साथ कर्ता का राग नहीं है , कर्तृत्वाभिमान नहीं है , लेप (फलेच्छा) नहीं है वह कर्म सात्त्विक हो जाता है। ऐसे सात्त्विक कर्म से अपना और दुनिया का बड़ा भला होता है। उस सात्त्विक कर्म का जिन-जिन वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ , वायुमण्डल आदि के साथ सम्बन्ध होता है उन सब में निर्मलता आ जाती है क्योंकि निर्मलता सत्त्वगुण का स्वभाव है – तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् (गीता 14। 6)। दूसरी बात – पतञ्जलि महाराज ने रजोगुण को क्रियात्मक ही माना है – प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम्। (योगदर्शन 2। 18) परन्तु गीता रजोगुण को क्रियात्मक मानते हुए भी मुख्यरूप से रागात्मक ही मानती है – रजो रागात्मकं विद्धि (14। 7)। वास्तव में देखा जाय तो राग ही बाँधने वाला है , क्रिया नहीं। गीता में कर्म तीन प्रकार के बताये गये हैं – सात्त्विक , राजस और तामस (18। 23 — 25)। कर्म करने वाले का भाव सात्त्विक होगा तो वे कर्म सात्त्विक हो जायेंगे , भाव राजस होगा तो वे कर्म राजस हो जायँगे और भाव तामस होगा तो वे कर्म तामस हो जायँगे। इसलिये भगवान ने केवल क्रिया को रजोगुणी नहीं माना है। सभी कर्म विचारपूर्वक किये जाते हैं। उन कर्मों के विचार में बुद्धि और धृति – इन कर्मसंग्राहक करणों की प्रधानता होने से अब आगे उनके भेद बताते हैं।