मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।18.38।।
विषय-इन्द्रिय विषयों के साथ; इन्द्रिय-इन्द्रियों के; संयोगत्-संपर्क से; यत्-जो; तत्-वह; अग्रे – प्रारम्भ में; ( ऽमृतोपमम् ) अमृत-उपमम्-अमृत के समान; परिणामे- अन्त में; विषमिव ( विषम्-इव ) -विष के समान; तत्-वह; सुखम्-सुख; राजसम्-राजसी; स्मृतम्-माना जाता है।
जो सुख विषयों और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है, वह आरम्भ में तो अमृत के समान लगता है परन्तु परिणाम में विष तुल्य लगता है, वह सुख राजस कहा गया है।।18.38।।
विषयेन्द्रियसंयोगात् – विषयों और इन्द्रियों के संयोग से होने वाला जो सुख है उसमें अभ्यास नहीं करना पड़ता। कारण कि यह प्राणी किसी भी योनि में जाता है वहाँ उसको विषयों और इन्द्रियों के संयोग से होने वाला सुख मिलता ही है। शब्द , स्पर्श आदि पाँचों विषयों का सुख पशु-पक्षी , कीट-पतङ्ग आदि सभी प्राणियों को मिलता है। अतः उस सुख में प्राणिमात्र का स्वाभाविक अभ्यास रहता है। मनुष्यजीवन में भी बचपन से देखा जाय तो अनुकूलता में राजी होना और प्रतिकूलता में नाराज होना स्वाभाविक ही होता आया है। इसलिये इस राजस सुख में अभ्यास की जरूरत नहीं है। यत्तदग्रेऽमृतोपमम् – राजस सुख को आरम्भ में अमृत की तरह कहने का भाव यह है कि सांसारिक विषयों की प्राप्ति की सम्भावना के समय मन में जितना सुख होता है उतना सुख , मस्ती और राजीपन विषयों के मिलने पर नहीं रहता। मिलने पर भी आरम्भ में (संयोग होते ही) जैसा सुख होता है थोड़े समये के बाद वैसा सुख नहीं रहता और उस विषय को भोगते-भोगते जब भोगने की शक्ति क्षीण हो जाती है उस समय सुख नहीं होता प्रत्युत विषयभोग से अरुचि हो जाती है। भोग भोगने की शक्ति क्षीण होने के बाद भी अगर विषयों को भोगा जाय तो दुःख , जलन पैदा हो जाती है , चित्त में सुख नहीं रहता इसलिये यह राजस सुख आरम्भ में अमृत की तरह दिखता है। अमृत की तरह कहने का दूसरा भाव यह है कि जब मन विषयों में खींचता है तब मन को वे विषय बड़े प्यारे लगते हैं। विषयों और भोगों की बातें सुनने में जितना रस आता है उतना भोगों में नहीं आता। इसलिये गीता में आया है – यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः (2। 42) राजस पुरुष स्वर्ग के भोगों का सुख सुनते हैं तो उनको वह सुख बड़ा प्रिय लगता है और वे उसके लिये ललचा उठते हैं। तात्पर्य है कि वे स्वर्ग के सुख दूर से सुनकर ही बड़े प्रिय लगते हैं परन्तु स्वर्ग में जाकर सुख भोगने से उनको उतना सुख नहीं मिलता और वह उतना प्रिय भी नहीं लगता। परिणामे विषमिव – आरम्भ में विषय बड़े सुन्दर लगते हैं , उनमें बड़ा सुख मालूम देता है परन्तु उनको भोगते-भोगते जब परिणाम में वह सुख नीरसता में परिणत हो जाता है उस सुख में बिलकुल अरुचि हो जाती है तब वही सुख जहर की तरह मालूम देता है। संसार में जितने प्राणी कैद में पड़े हैं जितने चौरासी लाख योनियों और नरकों में पड़े हैं उसका कारण देखा जाय तो उन्होंने विषयों का भोग किया है , उनसे सुख लिया है । इसी से वे कैद , नरक आदिमें दुःख पा रहे हैं क्योंकि राजस सुख का परिणाम दुःख होता ही है – रजसस्तु फलं दुःखम् (गीता 14। 16)। आज भी जो लोग घबरा रहे हैं , दुःखी हो रहे हैं वे सब पदार्थों के राग के कारण ही दुःख पा रहे हैं। जो धनी होकर फिर निर्धन हो गया है वह जितना दुःखी और संतप्त है उतना दुःख और सन्ताप स्वाभाविक निर्धन को नहीं है क्योंकि उसके भीतर सुख के संस्कार अधिक नहीं पड़े हैं परन्तु धनी ने राजस सुख अधिक भोगा है , उसके भीतर सुख के संस्कार अधिक पड़े हैं इसलिये उसको धन के अभाव का दुःख ज्यादा है। जैसे जो मनुष्य तरह-तरह की सामग्री भोजन करने वाला है उसके भोजन में कभी थोड़ी सी भी कमी रह जाय तो उसको वह कमी बड़ी खटकती है कि आज भोजन में चटनी नहीं है , खटाई नहीं है , मिठाई नहीं है , अमुक-अमुक चीज नहीं है – इस प्रकार नहीं-नहीं का ही ताँता लगा रहता है परन्तु साधारण आदमी बाजरे की रूखी-सूखी रोटी खाकर भी मौज से रहता है । उसको भोजन में किसी चीज की कमी खटकती ही नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि पदार्थों के संयोग से जितना ज्यादा सुख लिया है उतना ही उसके अभाव का अनुभव होता है। अभाव के अनुभव में दुःख ही होता है। जिस पदार्थ की कामना होती है उसकी प्राप्ति के लिये मनुष्य उद्योग करते हैं। उद्योग करने पर भी वस्तु मिलेगी या नहीं मिलेगी इसमें संदेह रहता है। वस्तु न मिले तो उसके अभाव का दुःख होता है और वस्तु मिल जाय तो उस वस्तु को और भी अधिक प्राप्त करने की इच्छा हो जाती है। इस प्रकार इच्छापूर्ति नयी इच्छा का कारण बन जाती है और इच्छापूर्ति तथा फिर इच्छा की उत्पत्ति – यह चक्कर चलता ही रहता है। इसका कभी अन्त नहीं आता। तात्पर्य यह है कि इच्छा कभी मिटती नहीं और इच्छा के रहते हुए अभाव खटकता रहता है। यह अभाव ही विष की तरह है अर्थात् दुःखदायी है। जब राजस सुख परिणाम में विष की तरह है तो फिर राजस सुख लेने वाले जितने लोग हैं उन सबको सुखभोग के अन्त में मर जाना चाहिये परन्तु राजस सुख विष की तरह मारता नहीं प्रत्युत विष की तरह अरुचिकारक हो जाता है। उसमें पहले जैसी रुचि होती है वैसी रुचि अन्त में नहीं रहती अर्थात् वह सुख विष की तरह हो जाता है , साक्षात् विष नहीं होता। राजस सुख विष की तरह क्यों होता है ? कारण कि विष तो एक जन्म में ही मारता है पर राजस सुख कई जन्मों तक मारता है। राजस सुख लेने वाला रागी पुरुष शुभ कर्म करके यदि स्वर्ग में भी चला जाता है तो वहाँ भी उसको सुख , शान्ति नहीं मिलती। स्वर्ग में भी अपने से ऊँची श्रेणी वालों को देखकर ईर्ष्या होती है कि ये हमारे से ऊँचे क्यों हो गये ? समान पद वालों को देखकर दुःख होता है कि ये हमारे समान पद पर आकर क्यों बैठ गये और नीची श्रेणीवालोंको देखकर अभिमान आता है कि हम इनसे ऊँचे हैं । इस प्रकार उसके मन में ईर्ष्या , दुःख और अभिमान होते ही रहते हैं फिर उसके मन में सुख कहाँ और शान्ति कहाँ ? इतना ही नहीं पुण्यों के क्षीण हो जाने पर उसको पुनः मृत्युलोक में आना पड़ता है – क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (गीता 9। 21)। यहाँ आकर फिर शुभ कर्म करता है और फिर स्वर्ग में जाता है। इस प्रकार जन्म-मरण के चक्कर में चढ़ा ही रहता है – गतागतं कामकामा लभन्ते (9। 21)। यदि वह राग के कारण पापकर्मों में लग जाता है तो परिणाम में चौरासी लाख योनियों और नरकों में पड़ता हुआ न जाने कितने जन्मों तक जन्मता-मरता रहता है जिसका कोई अन्त नहीं आता। इसलिये इस सुख को विष की तरह कहा गया है। तत्सुखं राजसं स्मृतम् – सात्त्विक सुख के लिये तो (37वें श्लोक में) ‘प्रोक्तम्’ पद कहा है पर राजस सुख के लिये यहाँ ‘स्मृतम्’ पद कहने का तात्पर्य है कि पहले भी मनुष्य ने राजस सुख का फल दुःख पाया है परन्तु राग के कारण वह संयोग की तरफ पुनः ललचा उठता है। कारण कि संयोग का प्रभाव उस पर पड़ा हुआ है और परिणाम के प्रभाव को वह स्वीकार नहीं करता। अगर वह परिणाम के प्रभाव को स्वीकार कर ले तो फिर वह राजस सुख में फँसेगा नहीं। स्मृति , शास्त्र , पुराण आदि में ऐसे बहुत से इतिहास आते हैं जिनमें मनुष्यों के द्वारा राजस सुख के कारण बहुत दुःख पाने की बात आयी है। इसी बात को स्मरण कराने के लिये यहाँ ‘स्मृतम्’ पद आया है। जिसकी वृत्ति जितनी सात्त्विक होती है वह उतना ही हरेक विषय के परिणाम की तरफ देखता है। अभी के तात्कालिक सुख की तरफ वह ध्यान नहीं देता परंतु राजसी वृत्ति वाला परिणाम की तरफ देखता ही नहीं उसकी वृत्ति तात्कालिक सुख की तरफ ही जाती है। इसलिये वह संसार में फँसा रहता है। राजस पुरुष को संसार का सम्बन्ध वर्तमान में तो अच्छा मालूम देता है परन्तु परिणाम में यह हानिकारक है – ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते (गीता 5। 22)। इसलिये साधक को संसार से विरक्त हो जाना चाहिये , राजस सुख में नहीं फँसना चाहिये। अब तामस सुख का वर्णन करते हैं।