मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।18.39।।
यत्-जो; अग्रे – प्रारम्भ में; च-और; अनुबन्धे-अंत में; च-और; सुखम्-सुख; मोहनम्-मोह; आत्मन:-अपना; निद्रा-नींद; आलस्य-आलस्य; प्रमाद-मोह से; उत्थम्-उत्पन्न; तत्-वह; तामसम्–तामसी; उदाहृतम्-कहलाता है।
निद्रा, आलस्य और मोह से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ में और परिणाम में आत्मा को या स्वयं को मोहित करनेवाला है, वह सुख तामस कहा गया है अर्थात जो सुख आदि से अंत तक आत्मा की प्रकृति को ढक देता है और जो निद्रा, आलस्य और असावधानी से उत्पन्न होता है वह तामसिक सुख कहलाता है।।18.39।।
निद्रालस्यप्रमादोत्थम् – जब राग अत्यधिक बढ़ जाता है तब वह तमोगुण का रूप धारण कर लेता है। इसी को मोह कहते हैं। इस मोह (मूढता) के कारण मनुष्य को अधिक सोना अच्छा लगता है। अधिक सोने वाले मनुष्य को गाढ़ नींद नहीं आती। गाढ़ नींद न आने से तन्द्रा ज्यादा आती है और स्वप्न भी ज्यादा आते हैं। तन्द्रा और स्वप्न में तामस मनुष्य का बहुत समय बरबाद हो जाता है परन्तु तामस मनुष्य को इसी से ही सुख मिलता है इसलिये इस सुख को निद्रा से उत्पन्न बताया है। जब तमोगुण अधिक बढ़ जाता है तब मनुष्य की वृत्तियाँ भारी हो जाती हैं। फिर वह आलस्य में समय बरबाद कर देता है। आवश्यक काम सामने आनेपर वह कह देता है कि फिर कर लेंगे , अभी तो आराम कर रहे हैं। इस प्रकार आलस्यअवस्था में उसको सुख मालूम देता है परन्तु निकम्मा रहने के कारण उसकी इन्द्रियों और अन्तःकरण में शिथिलता आ जाती है , मन में संसार का फालतू चिन्तन होता रहता है और मन में अशान्ति , शोक , विषाद , चिन्ता , दुःख होते रहते हैं। जब इससे भी अधिक तमोगुण बढ़ जाता है तब मनुष्य प्रमाद करने लग जाता है। वह प्रमाद दो तरह का होता है – अक्रिय प्रमाद और सक्रिय प्रमाद। घर , परिवार , शरीर आदि के आवश्यक कामों को न करना और निठल्ले बैठे रहना अक्रिय प्रमाद (टिप्पणी प0 922) है। व्यर्थ क्रियाएँ (देखना , सुनना , सोचना आदि ) करना ; बीड़ी , सिगरेट , शराब , भाँग , तम्बाकू , खेल-तमाशा आदि दुर्व्यसनों में लगना और चोरी , डकैती , झूठ , कपट , बेईमानी , व्यभिचार , अभक्ष्यभक्षण आदि दुराचारों में लगना सक्रिय प्रमाद है। प्रमाद के कारण तामस पुरुषों को निरर्थक समय बरबाद करने में तथा झूठ , कपट , बेईमानी आदि करने में सुख मिलता है। जैसे काम-धंधा करने वाले पैसे (मजदूरी या वेतन) तो पूरे ले लेते हैं पर काम पूरा और ठीक ढंग से नहीं करते। चिकित्सक लोग रोगियों का ठीक ढंग से इलाज नहीं करते जिससे रोगी लोग बार-बार आते रहें और पैसे देते रहें। दूध बेचने वाले पैंसों के लोभ में दूध में पानी मिलाकर बेचते हैं। पैसे अधिक देने पर भी वे पानी मिलाना नहीं छोड़ते। ऐसे पापरूप प्रमाद से उनको घोर नरकों की प्राप्ति होती है। जब तमोगुणी प्रमादवृत्ति आती है तब वह सत्त्वगुण के विवेक-ज्ञान को ढक देती है और जब तमोगुणी निद्रा-आलस्य वृत्ति आती है तब वह सत्त्वगुण के प्रकाश को ढक देती है। विवेक-ज्ञान के ढकने पर प्रमाद होता है तथा प्रकाश के ढकने पर आलस्य और निद्रा आती है। तामस पुरुष को निद्रा , आलस्य और प्रमाद – तीनों से सुख मिलता है इसलिये तामस सुख को इन तीनों से उत्पन्न बताया गया है। विशेष बात- निद्रा दो प्रकार की होती है – युक्तनिद्रा और अतिनिद्रा। (1) युक्तनिद्रा – निद्रा में एक विश्राम मिलता है। विश्राम से शरीर , मन , बुद्धि , अन्तःकरण में नीरोगता , स्फूर्ति , स्वच्छता , निर्मलता और ताजगी आती है। ताजगी आने से साधन-भजन करने में और सांसारिक काम करने में भी शक्ति मिलती है और उत्साह रहता है। इसलिये युक्तनिद्रा दोषी नहीं है प्रत्युत सबके लिये आवश्यक है। भगवान ने भी युक्तनिद्रा को आवश्यक बताया है – युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा (गीता 6। 17)। ताजगीमात्र के लिये निद्रा साधक के लिये आवश्यक है। जिस साधक के रागपूर्वक सांसारिक संकल्प नहीं होते उसको नींद बहुत जल्दी आ जाती है और जो ज्यादा संकल्पशील है उसको नींद जल्दी नहीं आती। इससे यह सिद्ध हुआ कि संसार का जो सम्बन्ध है वह निद्रा का सुख भी नहीं लेने देता। निद्रा आवश्यक क्यों है ? कारण कि निद्रा में जो स्थिर तत्त्व है वह साधक को साधन में प्रवृत्त करने में और सांसारिक कार्य करने में बल देता है इसलिये निद्रा आवश्यक है। यद्यपि नींद तामसी है तथापि नींद का जो बेहोशीपना है वह त्याज्य है और जो विश्रामपना है वह ग्राह्य है परन्तु हरेक आदमी बेहोशी के बिना विश्रामपना ग्रहण नहीं कर सकता । अतः उनके लिये नींद का बेहोशीभाग भी ग्राह्य है। हाँ , जो साधना करके ऊँचे उठ गये हैं उनको नींद के बेहोशीभाग के बिना भी जाग्रत्सुषुप्ति में विश्राम मिल जाता है। कारण कि जाग्रत्अवस्था में संसार के चिन्तन का सर्वथा त्याग होकर परमात्मतत्त्व में स्थिति हो जाती है तो महान विश्राम , सुख मिलता है । इस स्थिति से भी असङ्ग होने पर वास्तविक तत्त्व की प्राप्ति हो जाती है। जो साधक हैं उनको विश्राम के लिये नहीं सोना चाहिये। उनका तो यही भाव होना चाहिये कि पहले काम-धंधा करते हुए भगवान का भजन करते थे , अब लेटे-लेटे भजन करना है। (2) अतिनिद्रा – समय पर सोना और समय पर जागना युक्तनिद्रा है और अधिक सोना अतिनिद्रा है। अतिनिद्रा के आदि और अन्त में शरीर में आलस्य भरा रहता है। शरीर में भारीपन रहता है। अधिक नींद लेने का स्वभाव होने से हरेक कार्य में नींद आती रहती है। 14वें अध्याय के आठवें श्लोक में भगवान ने पहले प्रमाद को , दूसरे नम्बर में आलस्य को और तीसरे नम्बर में निद्रा को रखा है – प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत परन्तु यहाँ पहले निद्रा को , दूसरे नम्बर में आलस्य को और तीसरे नम्बर में प्रमाद को रखा है – निद्रालस्यप्रमादोत्थम्। इस व्यतिक्रम का कारण यह है कि वहाँ इन तीनों के द्वारा मनुष्य को बाँधने का प्रसङ्ग है और यहाँ मनुष्य का पतन करने का प्रसङ्ग है। बाँधने के विषय में प्रमाद सबसे अधिक बन्धनकारक है अतः इसको सबसे पहले रखा है। कारण कि प्रमाद निषिद्ध आचरणों में प्रवृत्त करता है जिससे अधोगति होती है। आलस्य केवल अच्छी प्रवृत्ति को रोकने वाला होने से इसको दो नम्बर में रखा है। निद्रा आवश्यक होने से बन्धनकारक नहीं है प्रत्युत अतिनिद्रा ही बन्धनकारक है । अतः इसको तीसरे नम्बर में रखा है। यहाँ उससे उलटा क्रम रखने का अभिप्राय है कि सबके लिये आवश्यक होने से निद्रा इतना पतन करने वाली नहीं है। निद्रा से अधिक आलस्य पतन करता है और आलस्य से भी अधिक प्रमाद पतन करता है। कारण कि मनुष्य ज्यादा नींद लेगा तो वृक्ष आदि मूढ़ योनियों की प्राप्ति होगी परन्तु आलस्य और प्रमाद करेगा तो कर्तव्यच्युत होकर दुराचार करने से नरक में जाना पड़ेगा (टिप्पणी प0 923.1)। यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः – निद्रा , आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न हुआ सुख आरम्भ में और परिणाम में अपने को मोहित करने वाला है। इस सुख में न तो आरम्भ में विवेक रहता है और न परिणाम में विवेक रहता है अर्थात् यह सुख विवेक को जाग्रत नहीं होने देता। पशु-पक्षी , कीट-पतंग आदि में भी विवेकशक्ति जाग्रत न रहने से वे क्रिया के आरम्भ और परिणाम को सोच नहीं पाते। ऐसे ही जिस सुख के कारण मनुष्य यह सोच ही नहीं सकता कि इस निद्रा आदि से उत्पन्न हुए सुख का परिणाम हमारे लिये क्या होगा ? उससे क्या लाभ होगा ? क्या हानि होगी ? क्या हित होगा ? क्या अहित होगा ? उस सुख को तामस कहा गया है – तत्तामसमुदाहृतम्। विशेष बात (1) प्रकृति और पुरुष – दोनों अनादि हैं और ये दो हैं इस प्रकार इनकी पृथक्ता का विवेक भी अनादि है। यह विवेक पुरुष में ही रहता है प्रकृति में नहीं। जब यह पुरुष इस विवेक का अनादर करके अविवेक के कारण प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तब इस सम्बन्ध के कारण पुरुष में राग पैदा हो जाता है (टिप्पणी प0 923.2)। जब राग बहुत सूक्ष्म रहता है तब विवेक प्रबल रहता है। जब राग बढ़ जाता है तब विवेक दब जाता है मिटता नहीं। पर विवेक ठीक तरह से जाग्रत हो जाय तो फिर राग टिकता नहीं अर्थात् राग का अभाव हो जाता है और उस समय पुरुष मुक्त कहलाता है। उस राग के कारण मनुष्य की प्रकृतिजन्य सुख में आसक्ति हो जाती है। उस आसक्ति के रहते हुए जब मनुष्य किसी कारणवश सात्त्विक सुख को प्राप्त करना चाहता है तब राजस और तामस सुख का त्याग करने में उसे कठिनता मालूम देती है – यत्तदग्रे विषमिव। परन्तु जब राग मिट जाता है तब वह सुख अमृत की तरह हो जाता है – परिणामेऽमृतोऽपमम्। राग के कारण ही रजोगुणी सुख आरम्भ में अमृत की तरह दिखता है पर वह सुख परिणाम में प्राणी के लिये जहर की तरह अनिष्टकारक अर्थात् महान दुःखरूप हो जाता है। प्रकृतिजन्य सुख की आसक्ति होने पर दुःखी परम्परा का कोई अन्त नहीं आता। जब वही राग तमोगुण का रूप धारण कर लेता है तब मनुष्य की वृत्तियाँ भारी हो जाती हैं। फिर मनुष्य नींद और आलस्य में समय बरबाद कर देता है तथा आवश्यक कर्तव्य से विमुख होकर अकर्तव्य में लग जाता है परन्तु तामस पुरुष को इन्हीं में सुख मालूम देता है। इसलिये यह तामस सुख आदि और अन्त में मोहित करने वाला है। (2) जो प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है वह वास्तव में नहीं है पर जो नहीं को प्रकाशित करने वाला तथा उसका आधार है वह वास्तव में है तत्त्व है। उसी तत्त्व को सच्चिदानन्द कहते हैं। निरन्तर सत्तारूप से रहने के कारण उसे सत् कहते हैं , ज्ञानस्वरूप होने के कारण उसे चित् कहते हैं और आनन्दस्वरूप होने के कारण उसे आनन्द कहते हैं। उस सच्चिदानन्द परमात्मा का ही अंश होने से यह प्राणी भी सच्चिदानन्दस्वरूप है परन्तु जब प्राणी असत् वस्तु की इच्छा करता है कि अमुक वस्तु मुझे मिले तब उस इच्छा से स्वतःस्वाभाविक आनन्द – सुख ढक जाता है। जब असत् वस्तु की इच्छा मिट जाती है तब उस इच्छा के मिटते ही वह स्वतःस्वाभाविक सुख प्रकट हो जाता है। नित्य-निरन्तर रहने वाला जो सुखरूप तत्त्व है उसमें जब सात्त्विकी बुद्धि तल्लीन हो जाती है तब बुद्धि में स्वच्छता , निर्मलता आ जाती है। उस स्वच्छ और निर्मल बुद्धि से अनुभव में आने वाला यह स्वाभाविक सुख ही सात्त्विक कहलाता है। बुद्धि से भी जब सम्बन्ध छूट जाता है तब वास्तविक सुख रह जाता है। सात्त्विकी बुद्धि के सम्बन्ध से ही उस सुख की सात्त्विक संज्ञा होती है। बुद्धि से सम्बन्ध छूटते ही उसकी सात्त्विक संज्ञा नहीं रहती। मन में जब किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा होती है तब वह वस्तु मनमें बस जाती है अर्थात् मन और बुद्धि का उसके साथ सम्बन्ध हो जाता है। जब वह मनोवाञ्छित वस्तु मिल जाती है तब वह वस्तु मन से निकल जाती है अर्थात् वस्तु का मन में जो खिंचाव था वह निकल जाता है। उसके निकलते ही अर्थात् वस्तु से सम्बन्धविच्छेद होते ही वस्तु के अभाव का जो दुःख था वह निवृत्त हो जाता है और नित्य रहने वाले स्वतःसिद्ध सुख का तात्कालिक अनुभव हो जाता है। वास्तव में यह सुख वस्तु के मिलने से नहीं हुआ है प्रत्युत राग के तात्कालिक मिटने से हुआ है पर राजस पुरुष भूल से उस सुख को वस्तु के मिलने से होने वाला मान लेता है। वास्तव में देखा जाय तो वस्तु का संयोग बाहर से होता है और प्रसन्नता भीतर से होती है। भीतर से जो प्रसन्नता होती है वह बाहर के संयोग से पैदा नहीं होती प्रत्युत भीतर (मन में) बसी हुई वस्तु के साथ जो सम्बन्ध था उस वस्तु से सम्बन्धविच्छेद होने पर पैदा होती है। तात्पर्य यह है कि वस्तु के मिलते ही अर्थात् बाहर से वस्तु का संयोग होते ही भीतर से उस वस्तु से सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और सम्बन्धविच्छेद होते ही नित्य रहने वाले स्वाभाविक सुख का आभास हो जाता है। जब नींद में बुद्धि तमोगुणमें लीन हो जाती है तब बुद्धि की स्थिरता को लेकर वह सुख प्रकट हो जाता है। कारण कि तमोगुण के प्रभाव से नींद में जाग्रत और स्वप्न के पदार्थों की विस्मृति हो जाती है। पदार्थों की स्मृति दुःखों का कारण है। पदार्थों की विस्मृति होने से निद्रावस्था में पदार्थों का वियोग हो जाता है तो उस वियोग के कारण स्वाभाविक सुख का आभास होता है । इसी को निद्रा का सुख कहते हैं परन्तु बुद्धि की मलिनता से वह स्वाभाविक सुख जैसा है वैसा अनुभव में नहीं आता। तात्पर्य है कि बुद्धि के तमोगुणी होने से बुद्धि में स्वच्छता नहीं रहती और स्वच्छता न रहने से वह सुख स्पष्ट अनुभव में नहीं आता। इसलिये निद्रा के सुख को तामस कहा गया है (टिप्पणी प0 924)। इन सबका तात्पर्य यह है कि सात्त्विक मनुष्य को संसार से विमुख होकर तत्त्व में बुद्धि के तल्लीन होने से सुख होता है , राजस मनुष्य को राग के कारण अन्तःकरण में बसी हुई वस्तु के बाहर निकलनेसे सुख होता है और तामस मनुष्य को वस्तुओं के लिये किये जाने वाले कर्तव्यकर्मों की विस्मृति से और निरर्थक क्रियाओं में लगने से सुख होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो नित्य-निरन्तर रहने वाला सुखरूप तत्त्व है वह असत् के सम्बन्ध से आच्छादित रहता है। विवेकपूर्वक असत से सम्बन्धविच्छेद हो जाने पर , राग वाली वस्तुओं के मन से निकल जाने पर और बुद्धि के तमोगुण में लीन हो जाने पर जो सुख होता है वह उसी सुख का आभास है। तात्पर्य यह हुआ कि संसार से विवेकपूर्वक विमुख होने पर सात्त्विक सुख , भीतर से वस्तुओं के निकलने पर राजस सुख और मूढ़ता से निद्रा-आलस्य में संसार को भूलने पर तामस सुख होता है परन्तु वास्तविक सुख तो प्रकृतिजन्य पदार्थों से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद से ही होता है। इन सुखों में जो प्रियता , आकर्षण और (सुख का) भोग है वही पारमार्थिक उन्नति में बाधा देने वाला और पतन करने वाला है। इसलिये पारमार्थिक उन्नति चाहने वाले साधकों को इन तीनों सुखों से सम्बन्धविच्छेद करना अत्यन्त आवश्यक है। 20वें से 39वें श्लोक तक भगवान ने गुणों की मुख्यता को लेकर ज्ञान , कर्म आदि के तीन-तीन भेद बताये। अब इनके सिवाय गुणों को लेकर सृष्टि की सम्पूर्ण वस्तुओं के भी तीन-तीन भेद होते हैं – इसका लक्ष्य कराते हुए भगवान आगे के श्लोक में प्रकरण का उपसंहार करते हैं।