मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात् त्रिभिर्गुणैः।।18.40।।
न-नहीं; तत्-वह; अस्ति – है; पृथिव्यां – पृथ्वी पर; वा-या; दिवि-स्वर्ग के उच्च लोक; देवेषु-स्वर्ग के देवताओं में; वा-या ; पुनः-फिर; सत्वम-अस्तित्त्व; प्रकृति-जे-प्रकृति से उत्पन्न; मुक्तम-मुक्त होना; यत्-जो; एभि – इनके प्रभाव से; स्यात-है; त्रिभिः-तीन; गुणैः-प्रकृति के गुण।
पृथ्वी पर या स्वर्ग के उच्च लोकों में रहने वाला कोई भी जीव अथवा स्वर्ग के देवताओं में तथा इनके अतिरिक्त और कहीं भी ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो या इन तीन गुणों के प्रभाव से मुक्त हो ।।18.40।।
[इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने संन्यास और त्याग का तत्त्व जानना चाहा तो भगवान ने पहले त्याग – कर्मयोग का वर्णन किया। उस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान ने कहा कि जो त्यागी नहीं हैं उनको अनिष्ट , इष्ट और मिश्र – यह तीन प्रकार का कर्मों का फल मिलता है और जो संन्यासी हैं उनको कभी नहीं मिलता। ऐसा कहकर 13वें श्लोक से संन्यास – सांख्ययोग का प्रकरण आरम्भ करके पहले कर्मों के होने में अधिष्ठानादि पाँच हेतु बताये। 16वें-17वें श्लोकों में कर्तृत्व मानने वालों की निन्दा और कर्तृत्व का त्याग करने वालों की प्रशंसा की। 18वें श्लोक में कर्मप्रेरणा और कर्मसंग्रह का वर्णन किया परन्तु जो वास्तविक तत्त्व है वह न कर्मप्रेरक है और न कर्मसंग्राहक। कर्मप्रेरणा और कर्मसंग्रह तो प्रकृति के गुणों के साथ सम्बन्ध रखने से ही होते हैं। फिर गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि , धृति और सुख के तीन-तीन भेदों का वर्णन किया। सुख का वर्णन करते हुए यह बताया कि प्रकृति के साथ यत्किञ्चित् सम्बन्ध रखते हुए ऊँचा से ऊँचा जो सुख होता है वह सात्त्विक होता है परंतु जो स्वरूप का वास्तविक सुख है वह गुणातीत है , विलक्षण है , अलौकिक है (गीता 6। 21)। सात्त्विक सुख को आत्मबुद्धिप्रसादजम् कहकर भगवान ने उसको जन्य (उत्पन्न होने वाला) बताया। जन्य वस्तु नित्य नहीं होती। इसलिये उसको जन्य बताने का तात्पर्य है कि उस जन्य सुख से भी ऊपर उठना है अर्थात् प्रकृति और प्रकृति के तीनों गुणों से रहित होकर उस परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना है जो कि सबका अपना स्वाभाविक स्वरूप है। इसलिये कहते हैं ] न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः – यहाँ ‘पृथिव्याम्’ पद से मृत्युलोक और पृथ्वी के नीचे के अतल , वितल आदि सभी लोकों का , ‘दिवि’ पद से स्वर्ग आदि लोकों का , देवेषु पद को प्राणिमात्र के उपलक्षण के रूप में उन-उन स्थानों में रहने वाले मनुष्य , देवता , असुर , राक्षस , नाग , पशु , पक्षी , कीट, पतंग , वृक्ष आदि सभी चर-अचर प्राणियों का और ‘वा पुनः’ पदों से अनन्त ब्रह्माण्डों का संकेत किया गया है। तात्पर्य यह हुआ कि त्रिलोकी और अनन्त ब्रह्माण्ड तथा उनमें रहने वाली कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो अर्थात् सब के सब त्रिगुणात्मक हैं – सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्ित्रभिर्गुणैः। प्रकृति और प्रकृति का कार्य – यह सब का सब ही त्रिगुणात्मक और परिवर्तनशील है। इनसे सम्बन्ध जोड़ने से ही बन्धन होता है और इनसे सम्बन्धविच्छेद करने से ही मुक्ति होती है क्योंकि स्वरूप असङ्ग है। स्वरूप स्व है और प्रकृति पर है। प्रकृति से सम्बन्ध जुड़ते ही अहंकार पैदा हो जाता है जो कि पराधीनता को पैदा करने वाला है। यह एक विचित्र बात है कि अहंकार में स्वाधीनता मालूम देती है पर है वास्तव में पराधीनता । कारण कि अहंकार से प्रकृतिजन्य पदार्थों में आसक्ति , कामना आदि पैदा हो जाती है जिससे पराधीनता में भी स्वाधीनता दिखने लग जाती है। इसलिये प्रकृतिजन्य गुणों से रहित होना आवश्यक है। प्रकृतिजन्य गुणों में रजोगुण और तमोगुण का त्याग करके सत्त्वगुण बढ़ाने की आवश्यकता है। सत्त्वगुण में भी प्रसन्नता और विवेक तो आवश्यक है परन्तु सात्त्विक सुख और ज्ञान की आसक्ति नहीं होनी चाहिये क्योंकि सुख और ज्ञान की आसक्ति बाँधने वाली है। इसलिये इनकी आसक्ति का त्याग करके सत्त्वगुण से ऊँचा उठे। इससे ऊँचा उठने के लिये ही यहाँ गुणों का प्रकरण आया है। साधक को तो सात्त्विक ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि , धृति और सुख – इन पर ध्यान देकर इनके अनुरूप अपना जीवन बनाना चाहिये और सावधानी से राजस-तामस का त्याग करना चाहिये। इनका त्याग करने में सावधानी ही साधन है। सावधानी से सब साधन स्वतः प्रकट होते हैं। प्रकृति से सम्बन्धविच्छेद करने में सात्त्विकता बहुत आवश्यक है। कारण कि इसमें प्रकाश अर्थात् विवेक जाग्रत् रहता है जिससे प्रकृति से मुक्त होने में बड़ी सहायता मिलती है। वास्तव में तो इससे भी असङ्ग होना है। त्याग के प्रकरण में भगवान ने यह बताया कि नियत कर्मोंका त्याग करना उचित नहीं है। उनका मूढ़तापूर्वक त्याग करनेसे वह त्याग तामस हो जाता है शारीरिक क्लेश के भयसे नियत कर्मोंका त्याग करनेसे वह त्याग राजस हो जाता है और फल एवं आसक्ति का त्याग करके नियत कर्मों को करने से वह त्याग सात्त्विक हो जाता है (18। 7 — 9)। सांख्ययोग की दृष्टि से सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि में पाँच हेतु बताते हुए जहाँ सात्त्विक कर्म का वर्णन हुआ है वहाँ नियत कर्मको कर्तृत्वाभिमान से रहित , राग-द्वेष से रहित और फलेच्छा से रहित मनुष्य के द्वारा किये जाने का उल्लेख किया है (18। 23)। उन कर्मों में किस वर्ण के लिये कौन से कर्म नियत कर्म हैं और उन नियत कर्मों को कैसे किया जाय ? इसको बताने के लिये और साथ ही भक्तियोग की बात बताने के लिये भगवान आगे का प्रकरण आरम्भ करते हैं।