मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
फल सहित वर्ण धर्म का विषय
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।18.41।।
ब्राह्मण-पुरोहित वर्गः क्षत्रिय – युद्ध और शासन करने वाला वर्ग; विशां- व्यापार और कषि करने वाला वर्ग; शूद्राणाम्-श्रमिक वर्ग; च-और; परन्तप-शत्रुओं का विजेता, अर्जुन; कर्माणि-कर्त्तव्य; प्रविभक्तानि-विभाजित; स्वभावप्रभवैर्गुणैः (स्वभाव-प्रभवैः-गुणैः ) – किसी के स्वभाव और गुणों पर आधारित कर्म।
हे परन्तप ! ब्राह्मणों, श्रत्रियों, वैश्यों और शुद्रों के कर्तव्यों अथवा कर्मों को इनके गुणों के अनुसार तथा प्रकृति के तीन गुणों के अनुरूप विभक्त किया गया है, न कि इनके जन्म के अनुसार।।18.41।।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप – यहाँ ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य – इन तीनों के लिये एक पद और शूद्रों के लिये अलग एक पद देने का तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य – ये द्विजाति हैं और शूद्र द्विजाति नहीं है। इसलिये इनके कर्मों का विभाग अलग-अलग है और कर्मों के अनुसार शास्त्रीय अधिकार भी अलग-अलग है। कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः – मनुष्य जो कुछ भी कर्म करता है उसके अन्तःकरण में उस कर्म के संस्कार पड़ते हैं और उन संस्कारों के अनुसार उसका स्वभाव बनता है। इस प्रकार पहले के अनेक जन्मों में किये हुए कर्मों के संस्कारों के अनुसार मनुष्य का जैसा स्वभाव होता है उसी के अनुसार उसमें सत्त्व , रज और तम – तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न होती है। इन गुणवृत्तियों के तारतम्य के अनुसार ही ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र के कर्मों का विभाग किया गया है (गीता 4। 13)। कारण कि मनुष्य में जैसी गुणवृत्तियाँ होती हैं वैसा ही वह कर्म करता है। विशेष बात(1) कर्म दो तरह के होते हैं (1) जन्मारम्भक कर्म और (2) भोगदायक कर्म। जिन कर्मों से ऊँच-नीच योनियों में जन्म होता है वे जन्मारम्भक कर्म कहलाते हैं और जिन कर्मों से सुख-दुःख का भोग होता है वे भोगदायक कर्म कहलाते हैं। भोगदायक कर्म अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को पैदा करते हैं जिसको गीता में अनिष्ट , इष्ट और मिश्र नाम से कहा गया है (18। 12)। गहरी दृष्टि से देखा जाय तो मात्र कर्म भोगदायक होते हैं अर्थात् जन्मारम्भक कर्मों से भी भोग होता है और भोगदायक कर्मों से भी भोग होता है। जैसे जिसका उत्तम कुल में जन्म होता है उसका आदर होता है , सत्कार होता है और जिसका नीच कुल में जन्म होता है उसका निरादर होता है , तिरस्कार होता है। ऐसे ही अनुकूल परिस्थिति वाले का आदर होता है और प्रतिकूल परिस्थिति वाले का निरादर होता है। तात्पर्य है कि आदर और निरादर रूप से भोग तो जन्मारम्भक और भोगदायक – दोनों कर्मों का होता है परन्तु जन्मारम्भक कर्मों से जो जन्म होता है उसमें आदर-निरादर रूप भोग गौण होता है क्योंकि आदर-निरादर कभी-कभी हुआ करते हैं , हरदम नहीं हुआ करते और भोगदायक कर्मों से जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है उसमें परिस्थिति का भोग मुख्य होता है क्योंकि परिस्थिति हरदम आती रहती है। भोगदायक कर्मों का सदुपयोग-दुरुपयोग करने में मनुष्यमात्र स्वतन्त्र है अर्थात् वह अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति से सुखी-दुःखी भी हो सकता है और उसको साधन सामग्री भी बना सकता है। जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति से सुखी-दुःखी होते हैं वे मूर्ख होते हैं और जो उसको साधनसामग्री बनाते हैं वे बुद्धिमान साधक होते हैं। कारण कि मनुष्यजन्म परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही मिला है । अतः इसमें जो भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आती है वह सब साधनसामग्री ही है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को साधनसामग्री बनाना क्या है ? अनुकूल परिस्थिति आ जाय तो उसको दूसरों की सेवा में , दूसरों के सुख-आराम में लगा दे और प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सुख की इच्छा का त्याग कर दे। दूसरों की सेवा करना और सुखेच्छा का त्याग करना – ये दोनों साधन हैं। (2) शास्त्रों में आता है कि पुण्यों की अधिकता होने से जीव स्वर्ग में जाता है और पापों की अधिकता होने से नरकों में जाता है तथा पुण्य-पाप समान होने से मनुष्य बनता है। इस दृष्टि से किसी भी वर्ण , आश्रम , देश , वेश आदि का कोई भी मनुष्य सर्वथा पुण्यात्मा या पापात्मा नहीं हो सकता। पुण्य-पाप समान होने पर जो मनुष्य बनता है उसमें भी अगर देखा जाय तो पुण्य-पापों का तारतम्य रहता है अर्थात् किसी के पुण्य अधिक होते हैं और किसी के पाप अधिक होते हैं (टिप्पणी प0 927)। ऐसे ही गुणों का विभाग भी है। कुल मिलाकर सत्त्वगुण की प्रधानता वाले ऊर्ध्वलोक में जाते हैं , रजोगुण की प्रधानता वाले मध्यलोक अर्थात् मनुष्यलोक में आते हैं और तमोगुण की प्रधानता वाले अधोगति में जाते हैं। इन तीनों में भी गुणों के तारतम्य से अनेक तरह के भेद होते हैं। सत्त्वगुण की प्रधानता से ब्राह्मण , रजोगुण की प्रधानता और सत्त्वगुण की गौणता से क्षत्रिय , रजोगुण की प्रधानता और तमोगुण की गौणता से वैश्य तथा तमोगुण की प्रधानता से शूद्र होता है। यह तो सामान्य रीति से गुणों की बात बतायी। अब इनके अवान्तर तारतम्य का विचार करते हैं – रजोगुणप्रधान मनुष्यों में सत्त्वगुण की प्रधानता वाले ब्राह्मण हुए। इन ब्राह्मणों में भी जन्म के भेद से ऊँच-नीच ब्राह्मण माने जाते हैं और परिस्थितिरूप से कर्मों का फल भी कई तरह का आता है अर्थात् सब ब्राह्मणों की एक समान अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति नहीं आती। इस दृष्टि से ब्राह्मणयोनि में भी तीनों गुण मानने पड़ेंगे। ऐसे ही क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र भी जन्म से ऊँच-नीच माने जाते हैं और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भी कई तरह की आती है। इसलिये गीता में कहा गया है कि तीनों लोकों में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो तीनों गुणों से रहित हो (18। 40)। अब जो मनुष्येतर योनि वाले पशु-पक्षी आदि हैं उनमें भी ऊँच-नीच माने जाते हैं। जैसे गाय आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कुत्ता , गधा , सूअर आदि नीच माने जाते हैं। कबूतर आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कौआ , चील आदि नीच माने जाते हैं। इन सबको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भी एक समान नहीं मिलती। तात्पर्य है कि ऊर्ध्वगति , मध्यगति और अधोगति वालों में भी कई तरह के जातिभेद और परिस्थितिभेद होते हैं। अब भगवान ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म बताते हैं।