मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
ज्ञाननिष्ठा का विषय
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।18.49।।
असक्तबुद्धिः-आसक्ति रहित बुद्धि; सर्वत्र-सभी स्थानों पर; जितात्मा ( जित-आत्मा ) -अपने मन को वश में करने वाला; विगतस्पृहः-इच्छाओं से रहित; नैष्कर्म्यसिद्धिम – अकर्मण्यता की स्थिति; परमाम्-सर्वोच्च; संन्यासेन-वैराग्य के अभ्यास द्वारा; अधिगच्छति–प्राप्त करता है।
वे जिनकी बुद्धि सदैव सभी स्थानों पर अनासक्त रहती है, जो इच्चकों से रहित हैं , जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है , जिसने अपने शरीर पर अधिकार प्राप्त कर लिया है , जो वैराग्य के अभ्यास द्वारा कामनाओं से मुक्त हो जाते हैं, वे कर्म से मुक्ति की पूर्ण सिद्धि प्राप्त करते हैं अर्थात वह मनुष्य सांख्ययोग के द्वारा या सन्यास के द्वारा नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।।18.49।।
संन्यास (सांख्य) योग का अधिकारी होने से ही सिद्धि होती है। अतः उसका अधिकारी कैसा होना चाहिये ? यह बताने के लिये श्लोक के पूर्वार्द्ध में तीन बातें बतायी हैं (1) असक्तबुद्धिः सर्वत्र – जिसकी बुद्धि सब जगह आसक्तिरहित है अर्थात् देश , काल , घटना , परिस्थिति , वस्तु , व्यक्ति , क्रिया , पदार्थ आदि किसी में भी जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती। (2) जितात्मा – जिसने शरीर पर अधिकार कर लिया है अर्थात् जो आलस्य , प्रमाद आदि से शरीर के वशीभूत नहीं होता प्रत्युत इसको अपने वशीभूत रखता है। तात्पर्य है कि वह किसी कार्य को अपने सिद्धान्तपूर्वक करना चाहता है तो उस कार्य में शरीर तत्परता से लग जाता है और किसी क्रिया , घटना आदि से हटना चाहता है तो वह वहाँ से हट जाता है। इस प्रकार जिसने शरीर पर विजय कर ली है वह जितात्मा कहलाता है। (3) विगतस्पृहः – जीवनधारणमात्र के लिये जिनकी विशेष जरूरत होती है उन चीजों की सूक्ष्म इच्छा का नाम स्पृहा है जैसे – सागपत्ती कुछ मिल जाय , रूखी-सूखी रोटी ही मिल जाय , कुछ न कुछ खाये बिना हम कैसे जी सकते हैं ? जल पिए बिना हम कैसे रह सकते हैं ? ठण्डी के दिनों में कपड़े बिलकुल न हों तो हम कैसे जी सकते हैं ? सांख्ययोग का साधक इन जीवननिर्वाहसम्बन्धी आवश्यकताओं की भी परवाह नहीं करता। तात्पर्य यह हुआ कि सांख्ययोग में चलने वाले को जडता का त्याग करना पड़ता है। उस जडता का त्याग करने में उपर्युक्त तीन बातें आयी हैं। असक्तबुद्धि होने से वह जितात्मा हो जाता है और जितात्मा होने से वह विगतस्पृह हो जाता है तब वह सांख्ययोग का अधिकारी हो जाता है। नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति – ऐसा असक्तबुद्धि , जितात्मा और विगतस्पृह पुरुष सांख्ययोग के द्वारा परम नैष्कर्म्यसिद्धि को अर्थात् नैष्कर्म्यरूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। कारण कि क्रियामात्र प्रकृति में होती है और जब स्वयं का उस क्रिया के साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता तब कोई भी क्रिया और उसका फल उस पर किञ्चिन्मात्र भी लागू नहीं होता। अतः उसमें जो स्वाभाविक , स्वतःसिद्ध निष्कर्मता – निर्लिप्तता है वह प्रकट हो जाती है। अब उस परम सिद्धि को प्राप्त करने की विधि बताने की प्रतिज्ञा करते हैं।