The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

ज्ञाननिष्ठा का विषय

 

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।18.53।।

 

अहड्.कारम्-अहंकार; बलम्- बल ; दर्पम्-घमंड को; कामम्-इच्छा; क्रोधम्-क्रोध; परिग्रहम्-स्वार्थ मुक्त; विमुच्य–मुक्त होकर; निर्ममः-स्वामित्व की भावना से रहित; शान्तः-शान्तिप्रियब्रह्म-भूयाय-ब्रह्म के साथ एकीकृत होना; कल्पते योग्य हो जाता है।

 

जो अहंकार, बल , अभिमान, कामनाओं , क्रोध, संपत्ति के स्वामित्व और स्वार्थ से मुक्त रहता है , जो ममता से रहित और जो शांति में स्थित है वह ब्रह्म के साथ एकरस होने का अधिकारी है अर्थात वह ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है ।।18.53।।

 

  बुद्ध्या विशुद्धया युक्तः – जो सांख्ययोगी साधक परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना चाहता है उसकी बुद्धि विशुद्ध अर्थात् सात्त्विकी (गीता 18। 30) हो। उसकी बुद्धि का विवेक साफ-साफ हो उसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह न हो। इस सांख्ययोग के प्रकरण में सबसे पहले बुद्धि का नाम आया है। इसका तात्पर्य है कि सांख्ययोगी के लिये जिस विवेक की आवश्यकता है वह विवेक बुद्धि में ही प्रकट होता है। उस विवेक से वह जडता का त्याग करता है। वैराग्यं समुपाश्रितः – जैसे संसारी लोग रागपूर्वक वस्तु , व्यक्ति आदि के आश्रित रहते हैं , उनको अपना आश्रय , सहारा मानते हैं। ऐसे ही सांख्ययोग का साधक वैराग्य के आश्रित रहता है अर्थात् जनसमुदाय , स्थान आदि से उसकी स्वाभाविक ही निर्लिप्तता बनी रहती है। लौकिक और पारलौकिक सम्पूर्ण भोगों से उसका दृढ़ वैराग्य होता है। विविक्तसेवी – सांख्ययोग के साधक का स्वभाव , उसकी रुचि स्वतः स्वाभाविक एकान्त में रहने की होती है। एकान्त सेवन की रुचि होनी तो बढ़िया है पर उसका आग्रह नहीं होना चाहिये अर्थात् एकान्त न मिलने पर मन में विक्षेप , हलचल नहीं होनी चाहिये। आग्रह न होने से , रुचि होने पर भी एकान्त न मिले प्रत्युत समुदाय मिले , खूब हल्ला-गुल्ला हो तो भी साधक उकतायेगा नहीं अर्थात् सिद्धि-असिद्धि में सम रहेगा परन्तु आग्रह होगा तो वह उकता जायगा उससे समुदाय सहा नहीं जायगा। अतः साधक का स्वभाव तो एकान्त में रहने का ही होना चाहिये पर एकान्त न मिले तो उसके अन्तःकरण में हलचल नहीं होनी चाहिये। कारण कि हलचल होने से अन्तःकरण में संसार की महत्ता आती है और संसार की महत्ता आने पर हलचल होती है जो कि ध्यानयोग में बाधक है। एकान्त में रहने से साधन अधिक होगा , मन भगवान में अच्छी तरह लगेगा , अन्तःकरण निर्मल बनेगा – इन बातों को लेकर मन में जो प्रसन्नता होती है वह साधन में सहायक होती है परन्तु एकान्त में हल्ला-गुल्ला करने वाला कोई नहीं होगा । अतः वहाँ नींद अच्छी आयेगी , वहाँ किसी भी प्रकार से बैठ जाएं तो कोई देखने वाला नहीं होगा , वहाँ सब प्रकार से आराम रहेगा , एकान्त में रहने से लोग भी ज्यादा मान-बड़ाई , आदर करेंगे – इन बातों को लेकर मन में जो प्रसन्नता होती है वह साधन में बाधक होती है क्योंकि यह सब भोग है। साधक को इन सुख-सुविधाओं में फँसना नहीं चाहिये प्रत्युत इनसे सदा सावधान रहना चाहिये। लघ्वाशी – साधक का स्वभाव स्वल्प अर्थात् नियमित और सात्त्विक भोजन करने का हो। भोजन के विषय में हित , मित और मेध्य – ये तीन बातें बतायी गयी हैं। हित का तात्पर्य है – भोजन शरीर के अनुकूल हो। मित का तात्पर्य है – भोजन न तो अधिक करे और न कम करे प्रत्युत जितने भोजन से शरीरनिर्वाह हो जाय उतना भोजन करे (गीता 6। 16)। भोजन से शरीर पुष्ट हो जायगा – ऐसे भाव से भोजन न करे प्रत्युत केवल औषध की तरह क्षुधानिवृत्ति के लिये ही भोजन करे जिससे साधन में विघ्न न पड़े। मेध्य का तात्पर्य है – भोजन पवित्र हो। धृत्यात्मानं नियम्य च – सांसारिक कितने ही प्रलोभन सामने आने पर भी बुद्धि को अपने ध्येय परमात्मतत्त्व से विचलित न होने देना – ऐसी दृढ़ सात्त्विकी धृति (गीता 18। 33) के द्वारा इन्द्रियों का नियमन करे अर्थात् उनको मर्यादा में रखे। आठों पहर यह जागृति रहे कि इन्द्रियों के द्वारा साधन के विरुद्ध कोई भी चेष्टा न हो। यतवाक्कायमानसः – शरीर , वाणी और मन को संयत (वश में) करना भी साधक के लिये बहुत जरूरी है (गीता 17। 14 — 16)। अतः वह शरीर से वृथा न घूमे , देखने-सुनने के शौक से कोई यात्रा न करे। वाणी से वृथा बातचीत न करे , आवश्यक होने पर ही बोले , असत्य न बोले , निन्दा-चुगली न करे। मन से रागपूर्वक संसार का चिन्तन न करे प्रत्युत परमात्मा का चिन्तन करे। शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा – ध्यान के समय बाहर के जितने सम्बन्ध हैं जो कि विषयरूप से आते हैं और जिनसे संयोगजन्य सुख होता है उन शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध – पाँचों विषयों का स्वरूप से ही त्याग कर देना चाहिये। कारण कि विषयों का रागपूर्वक सेवन करने वाला ध्यानयोग का साधन नहीं कर सकता। अगर विषयों का रागपूर्वक सेवन करेगा तो ध्यान में वृत्तियाँ (बहिर्मुख होने से) नहीं लगेंगी और विषयों का चिन्तन होगा। रागद्वेषौ व्युदस्य च – सांसारिक वस्तु महत्त्वशाली है , अपने काम में आने वाली है , उपयोगी है – ऐसा जो भाव है उसका नाम राग है। तात्पर्य है कि अन्तःकरण में असत् वस्तु का जो रंग चढ़ा हुआ है वह राग है। असत् वस्तु आदि में राग रहते हुए कोई उनकी प्राप्ति में बाधा डालता है उसके प्रति द्वेष हो जाता है। असत् संसार के किसी अंश में राग हो जाय तो दूसरे अंश में द्वेष हो जाता है – यह नियम है। जैसे शरीर में राग हो जाय तो शरीर के अनुकूल वस्तुमात्र में राग हो जाता है और प्रतिकूल वस्तुमात्र में द्वेष हो जाता है। संसारके साथ राग से भी सम्बन्ध जुड़ता है और द्वेष से भी सम्बन्ध जुड़ता है। राग वाली बात का भी चिन्तन होता है और द्वेष वाली बात का भी चिन्तन होता है। इसलिये साधक न राग करे और न द्वेष करे। ध्यानयोगपरो नित्यम् – साधक नित्य ही ध्यानयोग के परायण रहे अर्थात् ध्यान के सिवाय दूसरा कोई साधन न करे। ध्यान के समय तो ध्यान करे ही व्यवहार के समय अर्थात् चलते-फिरते , खाते-पीते , काम-धंधा करते समय भी यह ध्यान (भाव) सदा बना रहे कि वास्तव में एक परमात्मा के सिवाय संसार की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं (गीता 18। 20)। अहंकारं बलं दर्पं ৷৷. विमुच्य – गुणों को लेकर अपने में जो एक विशेषता दिखती है उसे अहंकार कहते हैं। जबर्दस्ती करके विशेषता से मनमानी करने का जो आग्रह (हठ) होता है उसे बल कहते हैं। जमीन जायदाद आदि बाह्य चीजों की विशेषता को लेकर जो घमंड होता है उसे दर्प कहते हैं। भोग , पदार्थ तथा अनुकूल परिस्थिति मिल जाय इस इच्छा का नाम काम है। अपने स्वार्थ और अभिमान  में ठेस लगने पर दूसरों का अनिष्ट करने के लिये जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है उसको क्रोध कहते हैं। भोगबुद्धि से सुख-आराम बुद्धि से चीजों का जो संग्रह किया जाता है उसे परिग्रह (टिप्पणी प0 947.1) कहते हैं। साधक उपर्युक्त अहंकार , बल , दर्प , काम , क्रोध और परिग्रह – इन सबका त्याग कर देता है।निर्ममः – अपने पास निर्वाहमात्र की जो वस्तुएँ हैं और कर्म करने के शरीर इन्द्रियाँ आदि जो साधन हैं उनमें ममता अर्थात् अपनापन न हो (टिप्पणी प0 947.2)। अपना शरीर , वस्तु आदि जो हमें प्रिय लगते हैं उनके बने रहने की इच्छा न होना निर्मम होना है। जिन व्यक्तियों और वस्तुओं को हम अपनी मानते हैं वे आज से सौ वर्ष पहले भी अपनी नहीं थीं और सौ वर्ष के बाद भी अपनी नहीं रहेंगी। अतः जो अपनी नहीं रहेंगी उनका उपयोग या सेवा तो कर सकते हैं पर उनको अपनी मानकर अपने पास नहीं रख सकते। अगर उनको अपने पास नहीं रख सकते तो वे अपने नहीं हैं ऐसा मानने में क्या बाधा है ? उनको अपनी न मानने से अधिक निर्मम हो जाता है। शान्तः – असत् संसार के साथ सम्बन्ध रखने से ही अन्तःकरण में अशान्ति , हलचल आदि पैदा होते हैं। जडता से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर अशान्ति कभी पास में आती ही नहीं। फिर राग-द्वेष न रहने से साधक हरदम शान्त रहता है। ब्रह्मभूयाय कल्पते – ममतारहित और शान्त मनुष्य (सांख्ययोग का साधक) परमात्मप्राप्ति का अधिकारी बन जाता है अर्थात् असत का सर्वथा सम्बन्ध छूटते ही उसमें ब्रह्मप्राप्ति की योग्यता , सामर्थ्य आ जाती है। कारण कि जब तक असत् पदार्थों के साथ सम्बन्ध रहता है तब तक परमात्मप्राप्ति की सामर्थ्य नहीं आती। उपर्युक्त साधनसामग्री से निष्ठा प्राप्त हो जाने पर क्या होता है ? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं।

 

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